tag:blogger.com,1999:blog-88279447557851227692024-02-25T02:15:58.064+05:30हथकढ़[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comBlogger715125tag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-23785176289640016692023-12-31T10:14:00.000+05:302023-12-31T10:15:07.547+05:30अलविदा 2023<div>ये बरस बीत गया है। असंख्य परिवारों के लिए ये बरस कभी नहीं बीतेगा। ये सियाह छाया बनकर उनके जीते जी साथ चलता रहेगा। आज नव वर्ष की पूर्व संध्या पर उल्लास होगा, रोशनियां होगी, बधाइयां होगी हर कोई ये भूल जाएगा कि इस दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं। इन युद्धों में दुनिया के पांच छह लाख लोग मारे जा चुके हैं। </div><div><br></div><div>युद्ध के बारे में हीरोडोटस ने कहा कि शांति में पुत्र पिता का अंतिम संस्कार करते हैं और युद्ध में पिता पुत्रों का। इस बरस हमने मांओं, पिताओं और चाचा मौसियों की गोद में नन्हे बच्चों को पार्थिव देह देखी। ऐसे भी बच्चे देखे कि जिनका इस दुनिया में कोई नहीं बचा। वे अस्पताल में चिकित्सकों के सामने खून से सने हुए भय से कांप रहे थे। </div><div><br></div><div>जीवन जितना भयावह दिखा, उतनी भयावह तस्वीर कोई आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कभी नहीं बना सकेगा। दुख, पीड़ा और भय से भरी तस्वीर केवल मनुष्य ही नफ़रत से रच सका है। नई दुनिया, नई तकनीक और नए भुलावों में जीने का समय है। </div><div><br></div><div>तकनीक मनुष्यता की उतनी ही मित्र हो सकती थी, जितनी की वह शत्रु बनी बैठी है। आकाश का सैन्यीकरण हो रहा है। जबकि इस बरस भूकंपों से दुनिया कांपती रही। कोई तकनीक काम नहीं आई। टर्की और सीरिया में साठ हज़ार लोग मलबे में दफ़न हो गए। भूकंप के दस हज़ार झटके लगातार झेले गए। ये सोचना ही कितना डरवाना है कि हर बार लगे अब नहीं बचेंगे। जीवन कच्चे धागे पर लटकी लोहे की चीज़ होकर रह गया।</div><div><br></div><div>इस बरस भारत आधिकारिक रूप से दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश हो गया। इसमें युवाओं का प्रतिशत सबसे अधिक है। युवा जो दुनिया का नक्शा बदल दे। रेगिस्तान को नखलिस्तान बना दे। अपने श्रम से धरती पर फसलें लहलहा दे। लेकिन सहारा अफ्रीकी देशों की साठ प्रतिशत गरीबी के बाद पैंतालीस प्रतिशत से अधिक भारत की है। दक्षिण एशिया का गरीबों का देश, जिसके धनाढ्य तबके के पास खरबों रुपयों की संपत्ति है। जिस देश के अरबपति वैश्विक धनाढ्यों की सूची में ऊंचा स्थान रखते हैं। </div><div><br></div><div>धन मनुष्य से अक्सर मनुष्यता छीन लेता है। अरबपति लोग टाइटन में सवार होकर समुद्र की गहराई में विशाल जलयान टाइटेनिक के मलबा देखने जाने के लिए बेहिसाब धन खर्च करके काल के मुंह में जाना पसंद करते हैं लेकिन किसी भूखे की मदद करने के लिए मन नहीं बना पाते। भूख जिस मनुष्य को पकड़ लेती है, धनी के लिए वह मनुष्य ही नहीं रहता। बस यही नई दुनिया है। इसे ही बनाना था।</div><div><br></div><div>कोरोना आया और लाखों जीवन लील कर कोमा में चला गया। लेकिन मलेरिया और केंसर सदाबहार बने रहे। इस वर्ष दो अच्छी खबरें आई कि मलेरिया का टीका प्रायोगिक तौर पर तैयार कर लिया गया। केंसर कोशिकाओं को लगभग सम्पूर्ण नष्ट करने की दवा बना ली गई। लेकिन ये दवाएं क्या आम आदमी को बिना पैसे दिए मिल जाएगी? अब तक का इतिहास यही कहता है कि जीने की कीमत पूरी वसूली जाएगी। दवा कंपनियां अपना मुनाफा लिए बिना किसी की मदद नहीं करेगी। कोई देश ऐसा कानून नहीं बनाएगा कि लागत पर दवाएं उपलब्ध करवाई जाए। </div><div><br></div><div>टाइम पत्रिका की अपनी प्रतिष्ठा है। उसके अपने हित भी हैं। उनकी पर्सन ऑफ द ईयर इस बार टेलर स्विफ्ट हैं। पॉप गायिका हैं। पहली बार कलाकार को ये सम्मान दिया गया है। चौदह बरस की उम्र से गीत लिखना और गाना आरंभ करने वाली टेलर स्विफ्ट का गीत वी आर नेवर एवर गेटिंग बैक टुगेदर, से वे दुनिया के लिए एक गायिका के रूप में सामने आई। अब वे मिलियन डॉलर संपत्ति की मालिक है। उनके सामाजिक योगदान के बारे में मुझे कुछ मालूम नहीं है। मुझे केवल कुछ स्त्रियों की याद है, जो जेल में क़ैद है। जो अपने हक़ के लिए चुप नहीं रहीं। </div><div><br></div><div>सिकंदर ने कहा था, मेरे हाथ अर्थी से बाहर खुले रखना ताकि दुनिया देखे कि विश्व विजेता खाली हाथ जा रहा है। दुनिया ने देखा होगा लेकिन धनी व्यक्ति ये कभी नहीं देख पाएगा कि उसकी आंखों पर धन का अपारदर्शी चश्मा चढ़ा रहेगा। जिससे केवल धन और अधिक धन पाने के रास्ते ही दिखेंगे</div><div><br></div><div>साहित्य और सिनेमा इस नई दुनिया में सस्ता पॉप हो चुका है। कहानी, उपन्यास और फ़िल्म शोरगुल के साथ आते हैं। लाखों दीवाने और रचने वाले आत्ममुग्ध। अहंकार से भरे हुए। मेले , जलसे करते हुए। जीवन का ज्ञान देते हुए। अपनी रचनाओं से वन लाइनर बुद्धत्व पेश करते हुए। ऐसे ही पाठक और दर्शक, आज वाह वाही करते और कल भूल जाते हुए। पिछले तीन दशक में जैसे पॉप गायक, ग़ज़ल और कव्वाली वाले आए और छा कर समय की धूल के नीचे गुम हो गए, वैसे ही आज के लेखक, सिनेमाकार हैं। बहुत ज्ञानी किंतु उनके गंभीर ज्ञान फुलझड़ियों से भी कम उम्र के हैं। उनके ज्ञान में व्यक्ति छाया हुआ है और समाज अनुपस्थित है। </div><div><br></div><div>यही नई दुनिया है, यही इसके तेईसवे बरस का अंतिम दिन है। </div><div><br></div><div>आपने ये पोस्ट पढ़ ली है तो अब एक अनुरोध भी पढ़ लीजिए। ये लालच की दुनिया है, इस दुनिया को बदला नहीं जा सकता है किंतु किसी भूखे व्यक्ति, जानवर, पंछी को खाना देने का सामर्थ्य आप में है। इसलिए नए बरस के लिए ये तय करना कि किसी भूखे को खाना खिलाना है। जब भी सामर्थ्य हो इस काम को चुपचाप करना है। यही मनुष्यता का धर्म है, बाकी सब आडंबर है। </div><div><br></div><div>आप सबका नया बरस शांति, सहयोग और धैर्य से भरा रहे। यही प्रार्थना है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-49292966429488832422023-10-20T08:57:00.001+05:302023-10-20T08:57:19.149+05:30अलाव की रौशनी में <div>मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है </div><div>हंसी किसे पसन्द नहीं होती। </div><div><br></div><div>तुम में हर वो बात है </div><div>कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं </div><div>और भाप की तरह उड़ जाऊं। </div><div><br></div><div>मगर हम एक शोरगर के बनाये </div><div>आसमानी फूल हैं </div><div>बारूद एक बार सुलगेगा और बुझ जाएगा। </div><div><br></div><div>इत्ती सी बात है।</div><div>---</div><div><br></div><div>रेगिस्तान की पगडंडियों पर बहके बहके चलते हुए औचक तेज़ भागने लगे। शहरों को चीर कर गुज़रती रेलगाड़ी में सवार होकर दूर से दूर होते गए। </div><div><br></div><div>अजनबी रास्तों पर नई हथेली थामे, कभी बातों बातों में किसी पुरानी बात पर संजीदा होते। फिर से किसी के करीब नहीं होंगे का खुद याद दिलाते हुए अचानक मुस्कराने लगते। कि तुमसे नहीं मिले होते तो ये बातें किस से सुनते। इसलिए फिर फिर नए लोगों से मिलना। </div><div><br></div><div>फिर से दावत पर बुलाना मोहब्बत को और सटकर चलना। ठण्डी रात में अलाव जलाकर बैठना। देखना कि आग की लपटों की रौशनी में वह कितना सुंदर दिखता है। </div><div><br></div><div>शोरगर, तुम्हारा मन है। उसे बुझने मत देना। हर बार नए रंग का बनना और नए तरीके से बिखरना। </div><div><br></div><div>शुक्रिया।</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-51883676740638937992023-10-12T13:28:00.001+05:302023-10-12T13:28:29.831+05:30कुछ देर कुछ न सोचें<div>शरद पूर्णिमा आने को है। उसके साथ हेमंत ऋतु आएगी।</div><div><br></div><div>सुबह का समय है। मैं खुले आंगन में बैठा हूं। बाखल में पुष्पों की सुवास है। दक्षिणी हवा के संग मादकता बिखर रही है। बहुत शांति है। गली में भी जाने किस कारण शोर का कारखाना बंद है। </div><div><br></div><div>अचानक याद आता है कि अपना स्वास्थ्य अच्छा हो तो सब भला लगता है। महीने भर से कफ और खांसी से कठिनाई खड़ी कर रखी थी। दिन रात एक से हो गए थे। थकान भरा बदन लिए कुछ काम करो कुछ सांस लो। जिस हाल में सोना उसी में जाग जाना। अजीब चक्र बन गया था। आज स्वास्थ्य भला लग रहा।</div><div><br></div><div>अक्टूबर जब बीतने को होगा हल्की गुलाबी ठंड प्रारंभ हो जाएगी। अगले दो महीने में शिशिर ऋतु का आगमन होगा। तब ठंड होगी। गर्म कपड़े होंगे। इसी जगह बैठे हुए धूप की प्रतीक्षा होगी किंतु दोपहर तक थोड़ी सी कच्ची धूप मिलेगी। </div><div><br></div><div>हम अक्सर अकारण उलझ जाते हैं। समझते हैं कि ये आवश्यक कार्य है, इसे पूर्ण करके ही आराम करेंगे। वास्तव में ये एक जटिल फंदा होता है, जिसमें अपने दिन रात फंसा लेते हैं। जीवन है तो काम बने रहेंगे। सब काम कभी एक साथ पूरे नहीं किए जाएंगे। हर काम के बाद एक नया नया काम आ खड़ा होगा। </div><div><br></div><div>इसलिए थोड़ा समय प्रतिदिन अपने लिए बचाना चाहिए कि आराम कर लें। बिना हड़बड़ी के कहीं बैठ जाएं। घर के कोने का चक्कर लगाते हुए फूलों पत्तियों को निहार लें। कुछ देर कुछ न सोचें और फिर कोई काम शुरू करें। </div><div><br></div><div>ये सब किसी को कहना कितना आसान है कि कुछ भी कहीं नहीं जा रहा। न कुछ दौड़ने से प्राप्य। सब जीवन गति का भाग है। अभी लगता है छूट रहा है। बाद समय के लगता है, वह इतना भी आवश्यक नहीं था। लेकिन इस बात को अपने भीतर बसा लेना, इसी तरह जीना कितना कठिन। </div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-90910193318263018832023-09-13T10:10:00.001+05:302023-09-13T10:10:45.188+05:30इट स्मेल्स हैप्पीनेस - अणु शक्ति सिंह<div>सेवाप्रसाद सहज यौन इच्छाओं से भरा सरल व्यक्ति है। वह अभी तक कुंठित नहीं हुआ है। समाज के सबसे निचले पायदान के कार्य स्वच्छता का कार्मिक है। उसके लिए सुखी परिवार की सीमा उन परिवारों तक समाप्त हो जाती है, जहां वह कचरा उठाता है।</div><div><br></div><div>उसकी पत्नी फूल बेचती है। फूल बांटने वालों के हाथों में खुशबू बची रह जाती है, उक्ति की तरह हर रात पत्नी महकती हुई मिलती है। वह उसकी प्रतीक्षा करता है। इस प्रतीक्षा में खुशबू भरी स्त्री के अतिरिक्त अनेक स्त्रियों की तस्वीरें हैं। उनकी देह और खुशबू के बारे में कल्पनाएं पंख लगाए उसके आसपास उड़ती रहती है। उन नाज़ुक पंखों की छुअन से वह अक्सर उत्तेजित महसूस करता है। सेवाप्रसाद की इन कल्पनाओं से उपजी हरकतों पर पत्नी कायदा भी बिठा देती है।</div><div><br></div><div>कचरा जिस तरह सेवाप्रसाद को ऊब और उकताहट से भरता है, उसके उलट जिनके यहां कचरा बीनता है, उन लोगों के जीवन का सुख उसे इच्छाओं से भर देता है। वह उस जीवन में सेंध लगाना चाहता है। भीतर प्रवेश करके सुख को चिन्हित कर लेना चाहता है। </div><div><br></div><div>डिकोड करने की ये चाहना फलीभूत होती है। वह एक घर के खुले दरवाज़े के भीतर प्रवेश कर जाता है। वहां प्रथम दृष्टि एक सुघड़ स्त्री की टांगों पर ठहरती है। स्त्री सोई हुई है। उसकी टांगें उन तस्वीरों से मेल खाती है। ये सेंध उसे अचानक एक आफत में डाल देती है।</div><div><br></div><div>वह परिवार आत्महत्या कर चुका होता है। निम्न मध्यम या मध्यम वर्ग का परिवार जिसमें पति पत्नी और दो बच्चे हैं। सब असमय दुनिया से विदा ले चुके होते हैं। कर्ज़ से न उबर पाने के कारण, वे ऐसा कदम उठाते हैं। </div><div><br></div><div>अणुशक्ति सिंह की ये कहानी है इट स्मेल्स हैप्पीनेस।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEjiWrPKoWgky6Zv6s9hiDCdW2A5ur3bc5yLvSEFSkKZtc2GH5Ed6xYViMekYT6dUCJo_R68Ok1yO3IOTFJX3ogXPZMFOVMZTZ2KCxKn0tmy_4Cy6SgNnHVN0EaRNRf0oez_dugWxL-k9AdbVmFYB2wmYxLSoQ4m1ja1VxhwflIrpMKY3CIK5vXaFFQpuDmV" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div><div><br></div><div>कहानी पूंजीवाद के बारे में है। हमारी इस व्यवस्था के बारे में है। ऐसी आर्थिक प्रणाली जिसमें धनिक वर्ग उत्पादन साधनों पर अधिकार कर श्रमिकों का शोषण करता है। पूंजी की व्यवस्था का सरल उद्देश्य है, अमीर और गरीब के बीच की खाई को बढ़ाते जाना। सब सुखी हो जाएंगे तो सेवाप्रसाद जो काम करता है, वह कौन करेगा। वह भी केवल इतने दाम में कि उसे दो समय का खाना मिल जाए। </div><div><br></div><div>इस कहानी में पूंजीवाद निम्न और मध्यम वर्ग को भौतिक आकांक्षाओं के जुए में जोत कर मिटा रहा है। वह जो हैप्पीनेस की खुशबू है, असल में उधार के कुचक्र की गंध है। इस खुशबू के नीचे छुपे एक कष्टप्रद और बोझिल जीवन का अंत होना निश्चित है। ऐसा निरंतर हो रहा है। हम प्रतिदिन समाचार पत्रों में सामूहिक आत्महत्या और कारण के रूप में कर्ज़ को पढ़ते हैं। हमें ऐसा समाचार नहीं मिलता, जिसमें कर्ज़ देने वाले लोग, कंपनियां या संस्थाएं दोषी पाई गई हों और उनको दंडित किया गया हो। </div><div><br></div><div>कहानी पाखी में प्रकाशित हुई है। जहां मैं रहता हूं रेगिस्तान के इस कस्बे तक अब साहित्यिक पत्रिकाएं आना बंद हो गई है। इसलिए कभी कभार किसी मित्र से कहानी की तस्वीरें या पीडीएफ मिल जाता है तो पढ़ पाता हूं। ये कहानी कल मिली थी। </div><div><br></div><div>इतनी आवश्यक कहानी कहने के लिए अणुशक्ति सिंह जी को धन्यवाद पहुंचे। </div><div><br></div><div>Painting - Couched, 2020 Jenna Gribbon</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-29596846113739052272023-08-12T18:24:00.001+05:302023-08-12T18:24:20.427+05:30टाई बांधे हुए बकरी <div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEg7pgYYuY8wQaJENzzjo45j--3WlABBnsJGzFP9Wgcc0sliPrU-YGt7678G1SsV6rvIzVbHknI5yykAES-qEWDXQlAz-spNOYtka0UwHKm3pyLNdyiyMMvgLsAOuxWHN2VNM-5VOsnU2z5q1R6PMwSr-bh0GmZ5-wBQ0FPIdQgxv85XJJF5M-fmeLrfu_ea" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div><div><br></div><div>बाड़मेर रेलवे स्टेशन के क्रॉसिंग पर बहुत सारी सुंदर बकरियां फाटक खुलने का इंतज़ार कर रही थी। उनमें से एक के गले में टाई बांधी हुई थी। </div><div><br></div><div>सिरोही नस्ल की बकरियां थी। हालांकि थोड़ा बहुत संकर हो जाना भी आम बात है। बाड़मेर शहर में इस नस्ल की बकरियां तेलियों और पठानों के पास अधिक हैं। यहां का किसान समुदाय मारवाड़ी या जरखाना नस्ल की बकरियां पालना पसंद करते हैं। </div><div><br></div><div>बाड़मेर के किसान बकरी को दूध और बाकर माने उनके बालों के लिए पालते हैं। ये बकरियां दो से तीन लीटर दूध दे सकती हैं। इनके बाल ऊंट के बालों के साथ जिरोही माने चटाई बुनने में काम ले लिए जाते हैं। हालांकि बाकर अधिक होने से जिरोही चुभती है। </div><div><br></div><div>सिरोही नस्ल के बकरे का भार चालीस पचास किलो के आसपास होता है। बकरियां औसत तीस पैंतीस किलो होती हैं। इस नस्ल का पालन पोषण मीट के लिए अधिक किया जाता है। </div><div><br></div><div>बकरी के दूध को डेंगू रोगी के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। बाड़मेर में डेंगू के भयावह प्रकोप के समय दूध की कीमत अविश्वसनीय हो गई थी। </div><div><br></div><div>वैसे बकरी बहुत सुंदर जानवर है। ये काफी हठी स्वभाव का भी होता है। इसे पहाड़ों पर खड़ी चढ़ाई चढ़ने में कोई समस्या नहीं होती। बाड़मेर में जहां कहीं अरावली के पहाड़ हैं, वहां बकरियां उनको बोना साबित करती रहती हैं।</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-48304407347641449402023-08-02T17:02:00.001+05:302023-08-02T17:03:40.260+05:30टूटी हुई बिखरी हुई <div>हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है। </div><div><br></div><div>टूटी हुई बिखरी हुई <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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<img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/a/AVvXsEinUV-y_nlx1IWEtbQepGbaNepJQTbd4R_D1DOpgoBoSf08pV6orh0Y55jwcnglo0pYpHwDHMQNPqnwzq8Iex__OHGg4c_2RwmLlcEa67R7yMuRymlzgzD4QB8A-loKI7RwGBvm9wSmWvZAt46QQvOveZHz-nMRdW3iEPnE60qGksvCU__4SQg3sGW1ovVa" width="400">
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</div>शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं। </div><div><br></div><div>इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है। </div><div><br></div><div>पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था।</div><div><br></div><div>ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट भाव से अनेक रचनाएं हैं। लेकिन यीशु पर इत्र छिड़कने के लिए इत्रदान को फोड़ देने की घटना पर रचित संगीत रचना अतिलोकप्रिय रही है। मरियम ने वह सब नासमझी में किया या समझ कर, इस पर बात नहीं हुई किंतु परालौकिक संकेतों के बारे में हुई है। कि यीशु कहते हैं। ये मेरी विदा पूर्व की तैयारी का संकेत है। </div><div><br></div><div>लेखकों का एक अलग संसार है। जहां वे उलझे हुए रहते हैं। वे नया रचते हैं और मेरे जैसा पाठक अतीत में छलांग लगा देता है। </div><div><br></div><div>जैसे एक तेरे नाम के साथ कितने नाम याद आए।</div><div>•</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-388766075082725802023-06-29T15:30:00.000+05:302023-06-29T15:31:02.627+05:30समय के साखी<div>कविताओं से मोहभंग है। फिर भी कविता वह जगह है, जहाँ मन को आश्रय मिलता है। या जैसे घर लौट आए हों। </div><div><br></div><div>कविता पढ़ने के अपने दुख हैं। उनका कुछ नहीं किया जा सकता। कि आप कविता पढ़ने जाते हैं और हताश होकर लौटते हैं। </div><div><br></div><div>इसलिए हर दो तीन बरस में देख आता हूं कि युवाओं ने कविता के लोहे को कितना तपाया है। इसी देखने में समय के साखी का अंक ऑर्डर किया था। </div><div><br></div><div>बहुत बरस बाद मैंने कविताएं पढ़ीं। पढ़कर सुख पाया। कुछ कविताएं परमानंद रहीं। </div><div><br></div><div>जमुना बीनी की कविता लौटने के इंतज़ार में, प्रतिभा गोटीवाले की सरस्वती पर माल्यार्पण, नेहा नरूका की कुलताबाई, विगाह वैभव की ईश्वर को किसान होना चाहिए, ज्योति रीता की प्रिय विनोदिनी, सौम्य मालवीय की कविता तिरंगायन और पार्वती तिर्की की सोसो बंगला। </div><div><br></div><div>पार्वती तिर्की की एक कविता चुनना मेरे लिए कठिन था कि सभी कविताएं मैंने कई बार पढ़ीं। सब मन को छूने वाली कविताएं हैं। आवश्यक कविताएं।</div><div><br></div><div>इस अंक को मैं प्रसन्नता के अतिरेक में पढ़ रहा हूँ। अभी पूरा पढ़ा नहीं है। जो पन्ना खुलता है, उसे दोबारा तिबारा पढ़ने लगता हूँ। </div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-30058271345371236352023-06-22T23:07:00.001+05:302023-06-22T23:07:51.747+05:30प्रतीक्षा के बारे में<div>मैं प्रतीक्षा में था। हालांकि जीवन बीत चुका है और कोई प्रतीक्षा कभी गहरी मित्र नहीं हुई। </div><div><br></div><div>इसी प्रतीक्षा में आस पास को देखता रहता हूँ । चीज़ें कैसी हैं। उनका विन्यास कैसा है। रंग रूप किस तरह खिला बुझा है। लोग क्या कर रहे हैं। वे कैसे मनोभावों से घिरे हैं और कितने मनोभाव पढ़े जा सकते हैं। </div><div><br></div><div>इस देखने को अकसर शब्दों में उतार लेता हूँ। कि शब्दों से थोड़ी सी मित्रता है। किसी बात को ठीक ठीक कह देने लायक बना देते हैं। कभी कभी मैं मोबाइल से या कैमरा से तस्वीरें खींच लेता हूँ। </div><div><br></div><div>वैसे तस्वीर को न उतारा जा सकता है, न ही खींचा। कहां से उतारा जाता है। क्या तस्वीर कहीं ऊपर रखी है। क्या तस्वीर किसी हाथी-घोड़े पर चढ़ी है। और खींचना कैसे होता है। कोई फंदा डालकर या रंढू से बांधकर खींचा जाता है? हालांकि वह दूर का दृश्य है। उसे बिना पास गए सहेज लिया गया है लेकिन खींचा कैसे ये मुझे समझ नहीं आता। </div><div><br></div><div>फिर भी परसों शाम बाड़मेर के विवेकानंद सर्कल पर प्रतीक्षा में खड़े हुए मैंने एक तस्वीर ली। मैं वैसा ही छायाकार हूँ, जैसा कि संयोग से लेखक या रेडियो पर बोलने का काम करने वाला हूँ। कुछ परिस्थितियां ही होती हैं। </div><div><br></div><div>इसी परिस्थिति में मुझे तस्वीर में एक उल्टा धूमकेतु दिखाई दिया। आप इसे पुच्छल तारा की जगह अग्गल तारा कह सकते हैं। </div><div><br></div><div>जीवन में भरोसा नहीं रखना चाहिए फिर भी कभी न कभी वह हो जाता है, जिसकी आप आशा नहीं करते। जैसे मैं एक बहुत दूर राज्य के आदमी के बारे में सोचता था कि उससे कभी मिलना नहीं होगा। </div><div><br></div><div>अचानक पांच सात लोगों के घेरे से एक व्यक्ति बाहर आया। उसने मुझ जाते हुए को आवाज़ दी। केसी। मैंने मुड़कर देखा। वह मेरे सामने खड़ा था। हम गले मिले। कसकर गले मिले। </div><div><br></div><div>फिर उसने कहा। जैसलमेर जा रहा हूँ। संयोग से इधर से निकला। सोचा था कि तुम क्या ही मिलोगे, मैं कहाँ खोज पाऊंगा। ये भी नहीं मालूम था कि जयपुर रहते हो या यहाँ। </div><div><br></div><div>उसने अपनी जेब पर हाथ रखा मगर जेब खाली थी। मैंने भी अपनी तलाशी ली लेकिन मेरी जेब में भी सिगरेट नहीं थी। वह जो लंबी प्रतीक्षा थी। अचानक समाप्त हुई। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div><div><br></div><div>उसके जाते ही किसी दूजी प्रतीक्षा ने मेरा हाथ थाम लिया।</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-41053977057593756252023-06-13T08:06:00.001+05:302023-06-13T08:06:40.259+05:30सुलगते जाने को<div>हम अतीत में क्या खोज सकते हैं। भविष्य को कितना जान सकते हैं। वर्तमान को कितना देख सकते हैं। ये सोचते हुए एक पुरानी तस्वीर देखता हूं। </div><div><br></div><div>क्या मैंने इस तस्वीर को खोजा है या ये तस्वीर कुछ याद दिलाने को सामने चली आई है। कि इस लम्हे तुम कितना इस लम्हे को देख रहे थे। इस लम्हे से पीछे कितनी दूर तक सोचा था। आगे कभी इस लम्हे को कैसे याद करोगे। </div><div><br></div><div>शायद कुछ भी नहीं। </div><div><br></div><div>यादें एब्सट्रैक्ट हैं। नंगी हैं। हंसी और नमी से भरी हैं। उनमें तम्बाकू की गंध है। ऊंट की पीठ से उतारी काठी जैसी महक से भरी है। बहुत तेज़ भाग रही हड़बड़ी वाली किसी मशीन के अचानक रुक जाने से हुए घर्षण की जलती हुई खुशबू है। </div><div><br></div><div>रेड कार्पेट, टीवी शो, भव्य सम्मेलनों, प्रतिष्ठित करने को चमकते मोमेंटो, भीड़ में अंगुलियों के छू लेने भर की कामना से उपजा सुख, कहीं अपने नाम का शोर सुनने को चाह में हांफते हुए कुछ न कुछ करते जाने से बहुत परे की बात है। </div><div><br></div><div>मन किसी के साथ सुलगते जाने और फिर हवा में चुपचाप गुम हो जाने का मन है। उसे अतीत और भविष्य से क्या वास्ता होगा। वह बस वर्तमान के बारे में क्षणिक सोचता है कि काश तुम होते। जानता है कि नहीं हो। </div><div><br></div><div>जब जो नहीं है तो ठीक है। ओके। ऑल राइट।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-50857881443910205022023-06-11T10:01:00.001+05:302023-06-11T10:01:40.657+05:30शर्ट का तीसरा बटन <div>एक ही ख़त में सारा कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं है।</div><div>~ मानव कौल </div><div><br></div><div>पिछली गर्मियों में हिंदयुग्म के दफ़्तर से ये उपन्यास ले आया था। किताबें आधी आधी बंट जाती हैं। कुछ जयपुर और कुछ बाड़मेर वाले घर के हिस्से आती हैं। कि कहीं भी रहो, फुरसत में कुछ पढ़ सको।</div><div><br></div><div>मानव को पढ़ना एक अलग अनुभूति है। वैसे हर लेखक की भाषा और कथानक के अलग जींस होते हैं। किंतु कुछ के हमारे मन से मिलते हैं। </div><div><br></div><div>मानव की कहानियां जिसने पढ़ी हैं और भली लगी। उनके लिए ये एक सुंदर उपन्यास है। प्रेम कबूतर कहानी कैशोर्य के प्रेम की सरलता को कहती है। उससे आगे इस कथा के किशोरवय पात्र जीवन की कठोरता से दो चार होते हैं। वे माँ, पिता, नाना, नानी के होने को एक सम्बंध से आगे मनुष्य के रूप में पहचानने लगते हैं। ये सुंदर बात है।</div><div><br></div><div>अच्छा लगा। धन्यवाद मानव।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-11432643516315067152023-06-03T13:11:00.001+05:302023-06-03T13:11:30.199+05:30गलता जी मंदिर जयपुर<div>विदेशी लोग थे। कड़ी धूप थी। बारिश से पहले की उमस थी। उनका उत्साह इन सबसे अधिक था। गलता जी के निचले कुंड के पास बैठक बनी हुई है। यहां कभी गद्दे और मसनद लगती होंगी। पानी को छूकर आती हवा के ठंडे झकोरे आते होंगे। </div><div><br></div><div>अब यहां बंदर अपने बच्चों के साथ लेटे हुए थे। दो श्वान भी दोपहर का आराम कर रहे थे। आकाश में कुछ बादल थे लेकिन बारिश की आस नहीं थी। एक श्वान उठा और कुंड के पानी में जाकर बैठ गया। गर्मी से राहत का तात्कालिक उपाय यही था। </div><div><br></div><div>विदेशी लोगों का दल कुंड के बीच बने फव्वारे की ओर मुंह करके योग मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवा रहा था। धूप से अपरिचित रहने वाली उनकी त्वचा पर हल्की आग थी। किंतु उनके चेहरों पर इस जगह होने का आनंद था। </div><div><br></div><div>मैं पसीने से भीग गया था। मेरी पीठ पर उमस ने गहरी लकीरें उकेर दी थी। मैं सीढ़ियां उतरते हुए ऊपरी कुंड में नहाने वाले बच्चों और युवाओं के श्याम वर्ण को याद कर रहा था। वे उत्साहित होकर गोता लगाते और फिर सांकल पकड़े हुए खड़े मुस्कुराते थे। </div><div><br></div><div>पानी का रंग ही पानी के स्वास्थ्य को बताने के लिए पर्याप्त था। काई का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हो चुका था। उसने कुंड में कोई जगह नहीं छोड़ी थी। एक बीम थी। उस पर गीली मिट्टी जमी हुई थी। बंदर वहां भी बैठे थे। साथ में छोटे बच्चे भी थे। सब उनींदे थे। कि वह एक वातानुकूलित जगह थी। </div><div><br></div><div>बीम से गिरने का डर बंदरों को नहीं होगा। वैसे भी नीचे पानी था। किंतु मैंने उनकी इस जगह के बारे में सोचा तो सिहरन हुई। सफाई की जाती होगी। मुझे मालूम नहीं है। फिर भी इस जगह को थोड़ा अधिक वैज्ञानिक तरीके और आधुनिक मशीनों से साफ किया जा सकता है। </div><div><br></div><div>बंदरों के लिए केले, मूंगफली और मखाने हर जगह रखे हुए थे। छोटे बंदर दोपहर तक भोजन में लीन थे जबकि बड़े बंदर सोए हुए से थे। कुछ एक अपने कबीले की परंपरा अनुसार सेवा भाव में लीन थे। </div><div><br></div><div>सबसे ऊपर एक छोटा कुंड है। उसमें मनुष्यों द्वारा फैलाया गया कचरा था। प्लास्टिक बोतल, थैली और कुछ कपड़े के टुकड़े। कुंड के आस पास की गई कोबरा फेंसिंग पर भी लोगों ने फटे हुए कपड़े टांग रखे थे। </div><div><br></div><div>हमारे यहां परंपरा बनने में देर नहीं लगती। असल में उसे परंपरा कहने के स्थान पर भेड़ चाल कहना चाहिए। भेड़ कहना भी ठीक नहीं है कि सर झुकाए अगली भेड़ के पीछे चलते जाना उनका प्राकृतिक स्वभाव है। मनुष्य तो अति बुद्धि में मूर्खतापूर्ण कार्य आरंभ करता है। किसी ने ताला टांगा तो सब ताले टांगते जाते। किसी ने एक रिबन बांधा तो सब यही करते जाते। ऐसे ही फटी हुई साड़ियां और पुराने कंबल फेंसिंग पर लटके हुए थे।</div><div><br></div><div>दूर देस से आए लोग जो कि योग मुद्रा में अपनी तस्वीरें खिंचवाने की प्रसन्नता में गर्मी को भूल गए थे। वे स्थानीय पर्यटकों के फैलाए कूड़े करकट को अपनी तस्वीरों में साथ लेकर जाएंगे।</div><div><br></div><div>गलता जी परिसर में दो सुंदर मंदिर है। एक सीताराम जी का है। सीताराम जी के मंदिर में ही सुरंगनुमा रास्ता है। ये रास्ता बालाजी के मंदिर में जाता है। वहां के सेवक का कहना था कि इस स्थान पर अखंड ज्योत है। ये बालाजी स्वयं प्रकट हुए हैं। </div><div><br></div><div>मंदिर में चढ़ावे के लिए कोई दबाव तो क्या आग्रह भी नहीं था। दानपेटी रखी थी। यूपीआई से भी चढ़ावा करने की व्यवस्था थी। मंदिर परिसर में गहरी शांति थी। महिलाओं का एक समूह दर्शन के पश्चात शांत बैठा हुआ था। हमने गलता जी परिसर में प्रवेश करने के समय उत्तर प्रदेश परिवहन की रजिस्टर्ड बस देखी थी। इस से अनुमान लगाया कि ये उसी किसी तरफ के पर्यटक हैं। </div><div><br></div><div>पयोहारी बाबा की गुफा की ओर जाने वाले रास्ते के पास बने भवन की दीवार के सहारे बेंच रखी थी। मैं थोड़ी देर बैठा रहा। वहां से दिखते भव्य निर्माण की प्राचीनता के बारे में सोचने लगा। विज्ञान ने आधुनिक संसार का बहुत भला किया है लेकिन उसने सहयोग और मनुष्यता को हमसे छीन लिया है। </div><div><br></div><div>गलता जी साफ जगह है। बस थोड़ी सी और कड़ाई चाहिए।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-66079495011940821622023-05-20T19:19:00.001+05:302023-05-20T19:19:24.732+05:30दरकते दायरे<div>पुस्तक मेला में विनीता जी मिल गए थे। उस भेंट में उनकी दो किताबों पर साइन भी करवा लिए। विनम्र व्यक्तित्व। </div><div><br></div><div>वहाँ से लौटा तो बाड़मेर में सुबह के धुएं-धकार, थड़ी की चाय-शाय, दफ़्तर की हाजरी और शाम को खेल की उछल कूद में दिन बीतते गए। रेगिस्तान में कुछ दिनों मौसम अकारण सुहाना बना रहा। लोग अचरज करने लगे कि ये कैसा मौसम है। अप्रैल मई में ठंडी हवाएं चल रही। मौसम को अपने बारे में शिकायतें पसंद नहीं आई और उसने लू से रेगिस्तान को भर दिया। </div><div><br></div><div>लेकिन रेगिस्तान के लोगों को क्या फर्क पड़ता है। एक ने कहा आज गर्मी ज्यादा है। तो दूजे ने गर्दन झटक कर गर्मी को नाकाम और फालतू ठहरा दिया। तीजा कहता है, इस गर्मी में बाहर नहीं आना चाहिए था मगर एक जगह बैठे ऊब होती है। गर्मी बेचारी क्या बिगाड़ती है। पड़ती है, पड़ने दो। </div><div><br></div><div>ऐसे में किताबें पढ़ना, लिखना और कुछ आराम करना भी नहीं हो पाता। मैंने कुछ नहीं पढ़ा। हालांकि कुछ नहीं कुछ नहीं कहते हुए दो छोटे उपन्यास और एक अच्छी कहानी पढ़ ली थी। मगर ये कम ही रहा। गर्मी ज़्यादा रही। </div><div><br></div><div>दो दिन पहले अवकाश पर जयपुर आ गए। सामने चार किताबें दिखीं। विनीता जी का उपन्यास दरकते दायरे पढ़ना शुरू किया। </div><div><br></div><div>विनीता जी का कथ्य, भाषा और कथा शिल्प का निर्वाह सुंदर है, सुघड़ है। </div><div><br></div><div>उपन्यास में विनीता जी ने मनुष्य के मायावी मन और जटिल अंतर्सम्बंध को जिस तरह कहा है, वह दुर्लभ है। इस कहानी में मनुष्य और प्रत्येक प्राणी के, प्रेम आग्रही होने के प्राकृतिक भाव ने भिगोए रखा। मैं कई बार पात्रों को सोचकर, उनकी परिस्थिति के लिए द्रवित हुआ। </div><div><br></div><div>मैंने जो समाज अब तक देखा है, वह अपनी प्राचीनतम परंपराओं और व्यवहार को ही आगे बढ़ा रहा है। सुडोमी से लेकर अब तक के मनुष्य के लैंगिक व्यक्तित्व के आधुनिक एब्रिवियेशन तक बिलकुल नहीं बदला है। पहले चुप्पी थी। अब कोई बात करता है, कोई लिखता है, कोई इसके हक के लिए आंदोलनरत है। </div><div><br></div><div>उपन्यास का शिल्प किसी वेब सीरीज जैसा है। कहानी अनेक शहरों की पड़ताल करती है। पात्र हर तरह के पेशे से हैं। घटनाएं धोखा, स्वार्थ, षडयंत्र की तरह लग सकती है मगर मुझे उन पर प्रेम आता है। कि किसी को छू लेने, चूम लेने, अधिक देर या उम्र भर चाहते रहना कौन नहीं चाहता। स्त्री या पुरुष का दिल कोई सिंगल यूज आइटम है? कि एक बार काम आया तो दोबारा कुछ काम नहीं आएगा। </div><div><br></div><div>असल में ये ही मनुष्य समाज के सच्चे पात्र हैं। अपनी ही चाहना के भय से भरे हुए। थोड़ा सा पाने को बहुत कुछ करते हुए। टूटे दिल में, दिल तोड़ने वाले की उम्मीद लिए जीते हुए। बार बार माफ करते और जाने अनजाने साथ देते हुए। हद दर्जे के दुस्साहसी। जीवन को जिस सुंदरता से जिया जा सकता है, उसी में लगे हुए। </div><div><br></div><div>विनीता जी को शुक्रिया है। आपको पढ़ना सुख ठहरा। </div><div><br></div><div>पढ़ने का धैर्य हो। पात्रों में डूब सकें तो ये उपन्यास आपके लिए है। किसी यात्रा, प्रतीक्षा अथवा समय काटने के लिए नहीं है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-60707382415628777832023-05-01T20:48:00.001+05:302023-05-01T20:48:30.004+05:30सलेटी जींस <div>बीते दिनों हमने कई बार तय किया कि इस बार स्काय ब्लू जींस और व्हाइट शर्ट, टी खरीदेंगे। अगले कुछ बरस यही रंग पहनेंगे। </div><div><br></div><div>कौन जानता है कि खरीदे जाएंगे कि नहीं अगर खरीदे गए तो कब तक पहने जा सकेंगे। </div><div><br></div><div>पुरानी तस्वीरों में दोस्त अब भी गले लगे, चिपके और मुस्कुराते हुए बैठे हैं। वे दोस्त जो कि हम कभी नहीं बिछड़ेंगे के फील से भरे थे। अब बस तस्वीरों में हैं। </div><div><br></div><div>उन तस्वीरों को देखकर शुबहा होता है कि क्या वे दोस्त थे? </div><div><br></div><div>लेकिन दिल तवज्जो नहीं देता। वह खुश रहता है कि उम्र भर चलने वाली चीज़ें, रिश्ते या याराने की आस क्या रखना? जब तक जितना साथ था, अच्छा था न। खुश भी थे न? </div><div><br></div><div>ऐसे ही एक हल्के सलेटी रंग की जींस थी। ब्लॉग में कहीं उसकी याद के निशान मिलते हैं। जब तक साथ रही दिल में रही। फिर कभी वह रंग सामने आया ही नहीं। </div><div><br></div><div>एक तांत्रिक पूछता है। रूह देखी है कभी। वही तांत्रिक रूहों के लिबास भी जानता है। उस तांत्रिक के बहुत चाहने वाले हैं। उनमें से एक ने मुझसे पूछा था। रूह को महसूस किया है कभी? </div><div><br></div><div>पता नहीं तब मैने उसे क्या जवाब दिया था।</div><div><br></div><div>अब फिर से किसी ने मुझे पूछा तो कह सकता हूं। तुम हल्का आसमानी नीला और सफेद पहनकर मिलना। वही रंग तुम पर फबता है। वही रूह का रंग होता होगा। </div><div><br></div><div>मेरी रूह दुष्ट है। उसका रंग गहरा नीला है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-62236539236684365442023-04-20T08:50:00.001+05:302023-04-20T08:50:51.418+05:30लुटेरा<div>प्रेम एक दारुण प्रतीक्षा है। </div><div><br></div><div>समय ने उसके चेहरे की कोमलता पर सुघड़ता के तार कस दिए थे। किशोरवय में हल्के झूलते गालों के स्पंदन को यौवन के संपूर्ण तनाव ने विस्थापित कर दिया था। ललाट पर चोट के तीन हल्के निशान थे। थोड़ा जूम करके देखने पर ललाट चांद की कोई तस्वीर सा दिख सकता था। स्कूल की किताब में दिखने वाला वो चांद जो आकाश के चांद से अलग था। जिसमें असमतल ज़मीन पर बेतरतीब छोटे गड्ढे थे। </div><div><br></div><div>नायिका का अकेलापन क्षितिज की रेख की तरह फैला हुआ था। हवेली में सजी मूल्यवान धातुओं की चमक की तरह कौंधते हुए एकांत सा अकेलापन। सेवकों, मुंशियों, मनोरंजन करने वालों के बीच सजीव खड़ा हुआ। क्या इसी ठहरी और बोझिल ऊब से दिल किसी कांटे पर गिर पड़ता है। </div><div><br></div><div>नायक ने न कांटा फेंका। न उस पर चारा लगाया। उसके साथ इतना हुआ कि वह किसी और प्रयोजन से तालाब में पांव डालकर बैठा था कि एक मछली गुदगुदी कर गई। उस चौंक में पहली बार पानी में तैरते मचलते रंग दिखें। उन रंगों को अपनी अंजुरी में छिपा लेने का मन हो गया। ये नहीं सोचा कि पानी से हाथ बाहर निकालते ही पानी बह जाएगा। मछली तड़प कर मर जाएगी। </div><div><br></div><div>नायिका के अधखुले होंठ रूमान की गहरी तस्वीर खींचने में असमर्थ थे। नायक नई नई सुलगी कच्ची आग जितना ही दीप्त था। मद्यसार से भीगी रूई इस तरह जलती है या भड़क कर खिल उठती है। अकेलेपन पर गिरी बारिश की बूंदों का तड़ तड़ का स्वर धीमा होता है या उच्छवास के नगाड़ों की तरह बजता है। तूफानी हवा में वन लताएं मद्धम झूमती है या उलझ कर बेदम हो जाती है। </div><div><br></div><div>नियति के स्थान पर, किसी अविश्वसनीय दुर्घटना के स्थान पर, उपकृत होने के बोझ से दबा नायक अपने पांव पानी से बाहर खींच लेता है। वह जिन मोतियों को चुराने आया था, उनको लेकर चला जाता है। जाने वाले की प्रेमिल अंगुलियों का स्पर्श नायिका के सीने में ज़हर बुझा तीर बनकर धंस जाता है। वह जीवन की तमाम आशाओं और स्मृतियों को छोड़कर दूसरी जगह चली जाती है। जहां एक नए अकेलेपन में मृत्यु की प्रतीक्षा की जा सके। नई तरह का दुख, नए तरह का बोझ उठाए, नष्ट हो चुके प्रेम की स्मृति का आभार व्यक्त किया जा सके। </div><div><br></div><div>कहानी इतनी थी। किंतु कविता कहने की लत लग जाए तो समस्त भावुक कर देने वाले, बींधने वाले और नष्ट करने वाले बिम्ब कहे जाने से बचा नहीं जा सकता। </div><div><br></div><div>परिस्थितियां उनको फिर से आमने सामने करती हैं। जीवन इतना संगदिल हो सकता है। इतना निष्ठुर भी हो सकता है। इतना बड़ा ठग भी हो सकता है। </div><div><br></div><div>हम सब क्यों अपनी भूलों को सीने से लगाए रखना चाहते हैं। क्षण क्षण गतिमान जीवन में हम अतीत की गहरी चोट का मातम क्यों मनाते रहना चाहते हैं। प्रेम था। नहीं था। बाध्यता थी। चुनाव की प्राथमिकता थी। सब कुछ तो कहानी में सामने है। सब कुछ तो दिखता है। </div><div><br></div><div>नायक प्रेम में डूबा है। विवाह करने का साहसिक अनुरोध करता है। गंभीर है। इसके समानांतर उसकी ठग गैंग के सदस्य उसकी पूरी जानकारी में नायिका के पिता को ठग रहे हैं। अचानक नायक अपने वास्तविक उद्देश्य के प्रति निष्ठावान हो जाता है। इसको कैसे भूला जा सकता है। इसके बाद अपने स्वास्थ्य के प्रति चिंता करने और जीवन को जैसे भी बेहतर जीया जा सके, जीने के लिए यत्न करने चाहिए। लेकिन नायिका सूखी हुई बाती की तरह जलते हुए बुझ जाने की प्रतीक्षा में स्वयं को डुबो देती है। </div><div><br></div><div>प्रेम एक बार ही है और जीवन भर के लिए है। ऐसा जब भी कोई कहता है तो वह आपको उकसाता है कि एक ही हाल में जीना। सुबकना, रोना, स्वयं को कोसना और मर जाना। </div><div><br></div><div>प्रेम की प्रतिष्ठा का मानक स्वयं को नष्ट करने से स्थापित होता है तो प्रेम के बारे में तुम कुछ नहीं जानते हो।</div><div>***</div><div><br></div><div>मैं फ़िल्म नहीं देखता। मैं खुद को समझा नहीं पाता कि ये सिनेमा है। ये एक रचना है। किंतु जिस तरह, कथा, काव्य, नाट्य, संगीत आदि विधाओं में गहरी अनुभूतियों के बाद भी सहज रहता हूँ, उतना सिनेमा के साथ नहीं रह सकता। </div><div><br></div><div>जब कोई मुझे कहता है कि ये फ़िल्म देखनी चाहिए तब मैं उस पतवार के भरोसे अपनी कश्ती उतारता हूँ। अधिकतर फ़िल्में मुझे पसंद आती है। ये दस एक बरस पुरानी फ़िल्म है। मुझे अच्छी लगी। जिस तरह का कचरा बनाया और सराहा जाता। जिस तरह का सिनेमा बिकता है, उस से सौ गुणा बेहतर फ़िल्म है। </div><div>शुक्रिया। <br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div><br></div><div><br></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-38584844927490995812023-04-10T18:12:00.001+05:302023-04-10T19:53:42.909+05:30मेलडीज़ ऑफ अ व्हेल <div>मृत्यु के बारे में बात करना मना है। </div><div><br></div><div>ये अशुभ है। अशुभ कहना बात को टालना है। मृत्यु के बारे में संवाद असहज करते हैं। मानसिक विचलन लाते हैं। हम बात कर सकते हैं किंतु कठिनाई ये है कि इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है, इसके सब अनुमान गलत हैं। </div><div><br></div><div>जिस तरह दिन के उलट रात अधिक सम्मोहक, जादुई, भयावह, गोपनीय और रूमानी होती है, ठीक ऐसे ही जीवन के उत्कर्ष पर प्रतीक्षारत मृत्यु, एक क्षण पीछे चलती मृत्यु, औचक हर लेने वाली मृत्यु भयावह रूप से रहस्यमई है। साज़ से उड़े स्वर के बाद का सघन सन्नाटा है। किसी तार के टूटने के अप्रत्याशित स्वर की गहरी चुभन है। </div><div><br></div><div>जीवन सचमुच कितना हतप्रभ करता है, ये कहा नहीं जा सकता। काशी पर गद्य पढ़ रहा था। जीवन से मोहभंग नहीं हुआ है। न अभी से किसी दूसरी दुनिया में जाने की तैयारी शुरू की है। वैसे मैं इसे अप्रत्याशित ही रहने देना चाहता हूँ । </div><div><br></div><div>मेरे एक ताईजी का जीवन पिछले महीने भर से धागे से बंधा हुआ था। अन्न जल स्वीकारने से देह ने मना कर दिया था। पाए पकड़े बैठे बच्चे आंसू भरी आंखों से उनकी मुक्ति की कामना करते रहते। मुक्ति के उपाय होते होंगे मगर विश्वसनीयता की तराजू में आते ही टोटके लगने लगते हैं। लेकिन अचानक धागा टूट ही जाता है। उसके अगले दिन से काशी वाली पुस्तक छूट गई। जबकि उसे पढ़े जाने का ये सही समय था। </div><div><br></div><div>गांव आने जाने के सिलसिले में अचानक एक नई पुस्तक मेरे सिरहाने रखी थी। मैंने सोचा था कि इसे किसी सप्ताहांत में पढूंगा। लेकिन ये मेरे पास चली आई। ये इकहत्तर पन्नों का नोवेला है। नाम है "मैलडीज़ ऑफ अ व्हेल" </div><div><br></div><div>फिर वही मृत्यु! </div><div><br></div><div>स्वप्न से आरंभ होता कथानक जिजीविषा को इस तरह प्रकट करता है कि अपने तमाम डरावने स्वप्नों का सांद्रीकृत आसव गले में आ गया हो। जीवन को बचाए रखने की जुगत में फिसलता हुआ जीवन। एक अनदेखी मृत्यु से साक्षात्कार करने से बचने के अथक प्रयास। इस लोक को न छोड़ने की मर्मभेदी कोशिश। </div><div><br></div><div>यहां से जो कथा आरंभ होती है, वह जीवन के उस पहलू को उकेरने लगती है, जिस पर बात करना मना है। कथानक एक वास्तविक संसार में आपको बनाए रखता है। कथानक और कहन ऐसा विश्वास दिलाते हैं कि ये कहानी नहीं है। ये जीवन ही है। </div><div><br></div><div>मैंने थोड़ी देर पहले इसे पढ़ा है। इसके प्रवाह में अतिशयोक्ति नहीं है। इसमें मृत्यु के बाद अनजाने लोक में प्रवेश करने की काल्पनिक ब्यौरे नहीं है। लेकिन इस कहानी में किसी की अनुपस्थिति से क्या बदल जाता है, वह सबकुछ है। जीवन जितना कड़ा है, उसी रूप में हैं। हमारे भीतर समझ से बनने वाली मजबूती में जितने सुराख छूट जाते हैं, वे भी हैं।</div><div><br></div><div>मेरे लिए नितांत अपरिचित इस लेखक के पास लिखने का बहुत सुंदर हुनर है। कथा और दर्शन, कथा और वास्तविकता की बारीक रेखा की गहरी समझ है। शाम्भवी को बहुत सारा धन्यवाद इस बात के साथ पहुंचे कि वे और लिखें। </div><div><br></div><div>प्रचार की चौंध से परे कोई अच्छी रचना पढ़नी हो तो आप इस पुस्तक को खरीद सकते हैं। ये बहुत अच्छी पुस्तक है। मैंने अमेज़न से ऑर्डर की थी।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-64716299707256895382023-03-12T18:29:00.001+05:302023-03-12T18:29:07.679+05:30एक अजनबी जगह रात <div>स्टेशन पर कुछ अजनबी खड़े थे। उनके बारे में मुझे ये मालूम था कि वे किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी बेसब्री भी उतनी ही जाहिर थी, जितनी कि उनकी प्रतीक्षा। </div><div><br></div><div>रात हो चुकी थी। दिल्ली शहर के हादसों से डराई गई एक लड़की की याद आई। मैंने दूर खड़े लोगों के पास तक का फेरा दिया। मुझे उनमें कोई ऐसा नहीं दिखा, जिससे अनुमान लग सके कि ये वही है।</div><div><br></div><div>उनको देखने और भला समझने के क्षण भर बाद याद आया कि वे भी तो ऐसे नहीं दिखते थे। उनकी मुस्कान भी भली थी। वे कैब की पिछली सीट पर साथ बैठे हुए औचक चूम लेते थे। उनकी सवाली नज़र चूम लेने के संतोष से भरी होती। </div><div><br></div><div>कभी बहुत दूर मेट्रो में सटकर खड़े हुए उमस भरे माहौल में सांसों की गर्मी और कॉलर के पास से आती खुशबू आसपास बसी रहती। जब कभी धकियाते हुए भीड़ चढ़ती और करीब हो जाने के सुख का धक्का लगता। अचानक सब के रास्ते जुदा हो गए। </div><div><br></div><div>मैंने देखा कि घड़ी में क्या बजा है? </div><div><br></div><div>फिर सोचा कि मैं इस अजनबी शहर से बरसों मिला मगर अजनबी ही रहा। फिर यहाँ क्या कर रहा हूँ। क्या मैं किसी को विदा करके आया हूँ या मैं किसी से मिलने जा रहा हूँ। </div><div><br></div><div>दो मिनट में मेट्रो आएगी। मैं खाली गाड़ी में बैठ जाऊंगा। मैं अपने बैग में रखी किताब नहीं देखूंगा। मैं केवल केवल स्टेशन की सूची देखूंगा। अब और कितने स्टेशन दूर जाना है। फिर... पता नहीं क्या। </div><div><br></div><div>लेकिन जब मैं बाहर आया अजब शांति पसरी थी। पार्किंग खाली पड़ी थी। ऑटो वाले नहीं थे। निजी सुरक्षा कंपनी का एक वर्दी वाला आदमी खड़ा था। मैंने पूछा "यहाँ इस समय सिगरेट फूंकना गलत तो न होगा।" उसने इशारा किया कि पार्किंग प्रवेश के कियोस्क के पीछे हो लूं। </div><div><br></div><div>मैंने सोचा क्या यही वो दिल्ली वाला आदमी है? </div><div><br></div><div>कुछ देर और बैठना था मगर मुझे काफी दूर जाना था। मैं कैब का शीशा निचे किए हुए बाहर देख रहा था। जैसा कि अक्सर फ़िल्म वाले शूट करते हैं। जिज्ञासा, उदासी या बिछोह से भरे किरदार का कार से जाते हुए का दृश्य। </div><div><br></div><div>हालांकि न मैं उदास था, न मुझे इस शहर के लिए कोई जिज्ञासा थी और न ही बिछोह था। मैं शहर में एक ऊदबिलाव की तरह था। चुपचाप उसे देखता हुआ। कैब बढ़ी जा रही थी। </div><div><br></div><div>एक आदमी ने सेल्यूट किया। जाने क्यों। मैंने झुककर उनको दोनों हाथ जोड़े। कंधे पर लटका बैग संभालते हुए आगे बढ़ा। कोई पेड़ था। जिस से एक भरे पूरे जंगल की गंध आ रही थी। </div><div><br></div><div>मैंने नाक उठाकर उस गंध को नथुनों में भरा। इसके बाद अपनी कमीज़ की बांह को सूंघा। उसमें से रेगिस्तान की गंध गायब थी। मैं रेगिस्तान को धोखा देकर अजनबी जगह रात बिता रहा था। </div><div><br></div><div>पता नहीं क्या? मगर सब ठीक था हालांकि रात का एक बजा था।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKqLLqp5KTgUY-J21PUAKHyFuMpWQAwqgrsvyQhLeRbNOuWAMyEAGCgK9919lvXiULGzuBWL2aWO4BnUVJvUe9VX8Jh_DInyIFzCPLs4r8QvOYcBJyt_XdiHBXkFY86VRwaAksBAkE7Wp2/s1600/1678625942256987-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-5152234399775126532023-03-08T22:30:00.001+05:302023-03-08T22:30:55.451+05:30बची हुई तस्वीर <div>एक चिड़िया मनी प्लांट की पत्तियों के बीच झुक कर कुछ खोज रही थी. मुझे उसकी जिज्ञासा में रुचि नहीं हुई. मैं मोगरा की लता की शुष्क दिख रही शाख पर उग आए रेतीले रंग को देखता रहा.</div><div><br></div><div>मौसम में आर्द्रता थी. आकाश में कुछ बादल थे. मेरे मस्तिष्क में टुकड़ों में की गई यात्रा में उचक जाने की स्मृतियां थी. कि अभी ही बस ने औचक ब्रेक लगाया, अभी ही रेलगाड़ी धक्क से रुकी.</div><div><br></div><div>मैं सम्भल कर लौटा और पाया कि मोगरे पर कोई कोंपल नहीं है. कुछ पत्ते पीले हैं. जैसे थककर रंग कहीं और चला गया है. मैं समझता हूँ कि कभी-कभी न चाहते हुए भी जाना पड़ता है. </div><div><br></div><div>जाने कितने बरस हुए हैं. हम मित्र हैं. किसी एक मौसम में वह फूलों से लदी मुझसे मिलती है. उसी मौसम में धूप की तल्खी हमारी प्रतीक्षा कर रही होती है. फूलों की सुवास में बंद आँखें उस क्षण को जीना जानती है. बस यही सुख है बाकी सब बिछोह. </div><div><br></div><div>नौजवानी में कुछ बचाने के जतन में अक्सर उलझ जाता रहा. जितना उलझा उतना खोया. वे सब कष्ट निरर्थक नहीं रहे कि अब चाहता हूँ सब सुलझा रहे. कि आने वले कल हम नए पत्तों से मिल रहे होंगे. प्रेम की सुवास वही रहेगी, जो बीते बरस मोगरा की थी. </div><div><br></div><div>कुछ देर खड़े रहने के बाद. मैंने मोगरा की शाख पर हाथ फेरा. फिर मैंने मनी प्लांट में कुछ खोजने वाली चिड़िया की ओर देखा. मनी प्लांट चुप था. चिड़िया जा चुकी थी. </div><div><br></div><div>ऐसे ही एक तस्वीर बची रह जाती है. तुम जा चुके होते हो. फूलों के खिलने का मौसम गर्म रुत के साथ आ रहा होता है. रेत पर हवा लहरें उकेरने के बारे मे सोच रही होती है. </div><div><br></div><div>मैं खिड़की से आती मालती के फूलों की सुगंध से भरा सो जाता हूँ. उनींदे या नींद में स्वप्न देखता हुआ सुबह की प्रतीक्षा कर रहा होता हूँ. कि नई सुबह में रेत पर नंगे पांव चलते हुए यहीं आकर ठहर जाऊँ. जहाँ ये लता सुन्दर फूल लिए खड़ी है, कुछ मेरी प्रतीक्षा में उसकी हथेली से गिर गए हैं.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxhfGn-_EOcXAGUU36BkLaqTz_p2G-CVuRFlRYE635aGfHhLtD6J_L425YWQFuM2aAst9ly6HaY8_GT8ZDF0FKTfQKNQkltPWpOPeC7ORvG1e-plTfCYIdD3W75_6-sSX7pdna11TB9PIa/s1600/1678294847691975-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-2220123411398346942023-02-11T23:33:00.001+05:302023-02-11T23:33:32.140+05:30काले लोफ़र शू <div>मैं अपनी एक तस्वीर में काले रंग के चमड़े के लोफर पहले खड़ा हुआ हूं। इसके बाद बरस दर बरस लगभग हर तस्वीर में काले रंग के लोफर हैं। </div><div><br></div><div>सहसा पिताजी की याद आती है। वे सीढ़ियों के पास खड़े शू पॉलिश कर रहे हैं। सेंडो बनियान पहने और सूती तौलिया लपेटे हुए। वे जूतों की पॉलिश करने के काम में डूबे हुए हैं। उनका ध्यान केवल एक ही काम में है। </div><div><br></div><div>कुछ बरस बाद मैं उनके जूते पोलिश करने लगा। वे जूते देखते, उनको पहनते और चुपचाप चले जाते थे। कभी कभी जाते समय मैं उनके पांवों की ओर देखता था। जूते साफ और सुंदर दिख रहे हैं। ये देख लेने के बाद मैं अपने किसी काम में खो जाता था। </div><div><br></div><div>पिताजी अपने बाल छोटे रखते थे। वे लगभग हर महीने कटिंग के लिए जाते। एक भद्र सामाजिक व्यक्ति की तरह उनके बाल संवरे रहते थे। वे नित्य शेव बनाते थे।</div><div><br></div><div>वे यदा-कदा कुर्ता पहनते थे. अन्यथा उनकी पोशाक पतलून और कमीज होती थी. वे सलीके से शर्ट को टक इन करते. चमड़े का बेल्ट बांधते और कुर्सी पर शालीनता से बैठते थे.</div><div><br></div><div>उनकी व्यवस्थित जीवन शैली में केवल कुछ क्षण अलग होते थे. जब वे मानू या तनु के साथ होते. गोदी में उठाए जाने जितनी लड़कियां, उनके अनुशासन के बाँध में सुराख बना देती. उनकी बरसों से ठहरी हुए हंसी कलकल बहने लगती.</div><div><br></div><div>एक सुबह पिताजी नहीं रहे. उस सुबह के बाद बरस पर बरस बीतते गए. </div><div><br></div><div>मैंने जाने कब लोफ़र शू पहनने आरंभ किए, मुझे याद नहीं. बूढ़े लोगों के लिए बने समझे जाने वाले जूते मुझे पसंद नहीं थे. मैं स्पोर्ट्स शू में बरसों दफ़्तर जाता रहा. मैंने जींस और शॉर्ट कुर्ते पहने. मैं अपने लम्बे बालों के प्रति ला परवाह था. </div><div><br></div><div>आज की सुबह मैंने खाली खाली बाखल देखी. मैं उठकर उसी शीशे तक गया, जिसके सामने खड़े होकर पिताजी शेव बनाया करते थे. मैंने देखा कि मेरी दाढ़ी बढ़ी हुई है. मेरे बाल बे तरतीब हैं. </div><div><br></div><div>मेरे काले लोफ़र अंतिम अवस्था में है. हालांकि वे अच्छे से पोलिश किए हुए हैं. अचानक लगा कि अभी नए काले शू खरीदने निकलूँ और घर लौटे बिना दुष्यंत के पास चला जाऊँ.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-11975323635491941102023-02-05T15:29:00.001+05:302023-02-05T15:29:43.235+05:30सदा न जीवन थिर रहे <div>सदा न फूले तोरई सदा न सावन होय</div><div>सदा न जीवन थिर रहे सदा न जीवे कोय.</div><div><br></div><div>पत्ते झड़ रहे हैं. चम्पा की शाखाएं सूनी होती जा रही हैं. सुगंध बिखरने वाले अधिकतर फूल झड़ गए हैं. कुछ एक बचे हैं.</div><div><br></div><div>सीढ़ियों पर छांव बिखरने वाला, उनको अपने पीछे छिपाए रखने वाला चम्पा अपने पत्तों का त्याग कर चुका है. वह रिक्त हुआ है. वह इस रिक्तता को नई कलियों और पत्तों से भरेगा.</div><div><br></div><div>प्रकृति का ध्येय है नवीनता. सदा एक सा बने रहने की चाहना को त्याग कर नया कुछ रचना अच्छा होता है.<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-32742459277069701922023-01-31T21:58:00.001+05:302023-01-31T21:58:22.996+05:30कोई क्या ही जानता है <div>तुम बहुत सेफ खेले। </div><div><br></div><div>ये पढ़कर बहुत देर मुस्कुराता रहा। दो दिन बाद लगा कि ये बस मुस्कुराने की बात नहीं थी। तीन दिन बाद याद आया कि रेल में यात्रा के समय जो नेटवर्क डिस्कनेक्ट होता है, वह कभी कभी बहुत सारी नासमझी छोड़ जाता है। </div><div><br></div><div>रेल तुम्हारे पास ठीक मोबाइल नेटवर्क कब होगा? कि जो किसी को बेरुखी लगे, वह किसी को इंतज़ार में होना लगता रहे। </div><div><br></div><div>कुछ भी सेफ नहीं है। शुक्रिया। </div><div>***</div><div><br></div><div>एक रेलगाड़ी रेगिस्तान को चीरती हुई चलती है। पहाड़ की उपत्यका में जाकर ठहर जाती है। कभी पहाड़ नहीं जा पाती। ऐसे ही बहुत कुछ है।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-67993579622648785862023-01-30T20:12:00.001+05:302023-01-30T20:12:36.948+05:30औंधे पड़े ताश के पत्ते<div>जूतों पर पान के पीक के दाग़, अंगुलियों में जले तम्बाकू की बासी गंध, सलवटों से भरी पेशानी पर उलझे बिखरे बाल, कमीज़ के कॉलर पर सियाह गिरहें, आस्तीनों में पड़ी अनगिनत सलवटों के साथ जुआरी ताश के औंधे पड़े पत्तों को टुक देखता था। </div><div><br></div><div>जैसे प्रेमी बैठा हो असमाप्य प्रतीक्षा में। </div><div><br></div><div>जीत कर जुआरी जूते बदलेगा, नहाएगा बहुत देर तक, चेहरे पर समंदर पार से आई खुशबू लगाएगा, सफेद कमीज पहन लेगा, ताश के पत्तों से दूर किसी शराबखाने में व्हिस्की के पास बैठा होगा। </div><div><br></div><div>जब तुम आ जाओगे और प्रेमी की प्रतीक्षा समाप्त हो जाएगी तब प्रेमी कहीं नहीं जाएगा। वह कहेगा थक गए हैं। आओ धरती पर लेट जाएं कि इंतज़ार बहुत कड़ा होता है। अब हम मिलकर आकाश देखते हैं कि इसे सदियों देखा जा सकता है। </div><div><br></div><div>लेकिन अकसर जुआ और प्रतीक्षा खत्म नहीं होती।<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-21212918764697515962023-01-29T08:10:00.001+05:302023-01-29T08:10:28.445+05:30गिरजे का अकेलापन <div>मंच से उतरे व्यक्ति का अकेलापन, उसके लिए बहुत डरावना होता है। </div><div><br></div><div>व्यक्ति हर क्षण मंच तक पहुंच जाने की लालसा से भरा हुआ अथक प्रयास करता रहता है। जन समूह के समक्ष आसन पर बैठकर कला, साहित्य, सिनेमा, नीति और अन्य सामाजिक विषयों पर अपनी सीमित समझ का ब्योरा देने के समय मानसिक उत्तेजना और अंधे अदृश्य अहंकार की पुष्टि के ठीक बाद वह स्वयं को भीड़ के बीच और बेहद सामान्य व्यक्ति की तरह पाता है। </div><div><br></div><div>ये सचमुच पीड़ादायक है। जलसे का वह हिस्सा खत्म हो चुका है। श्रोता और दर्शक अब किसी और को देख सुन रहे हैं। अभी अभी का नायक पदच्युत हो चुका होता है। प्रसिद्धि और प्रयास काम नहीं कर पाते। वह अकेला रह जाता है। </div><div><br></div><div>इस समय अकेले में अकेलापन या निराशा नहीं आती वरन एक हताशा कठोर प्रहार करती है। इसलिए टूटन बेहिसाब होती है। वह जिस जन को एक स्थाई शोर और चीयर समझा था, वह क्षणिक ठहरा। </div><div><br></div><div>मैं और संजय एक बंद दुकान के पेढ़ी पर बैठे थे। कुछ ऐसी बातें कर रहे थे। </div><div><br></div><div>हमारे पास कुछ कहानियों और कुछ उपन्यासों की बातें थी। इनके बीच संजय ने व्यक्ति के वर्चुअल के स्पेस के बारे में सुंदर बात कही। ये इस समय का सच है। </div><div><br></div><div>मैं और संजय सोशल साइट्स पर न्यूनतम संवाद करते हैं। हमारा मिलना ही संवाद को आगे बढ़ाता है। फिर हम देर तक लिखने पढ़ने के बारे में बात करते हैं। हमें किसी के लिखने से कोई शिकायत नहीं होती। हम बस एक ऐसी किताब पढ़ लेना चाहते हैं, जो हमारी आत्मा को छूकर गुज़रे। बरसों से ऐसा होता नहीं है। हम ख़ुद जो लिख रहे हैं, वह भी स्वांत सुखाय भर है। </div><div><br></div><div>बातों के सिलसिले में अनिमेष मुखर्जी अचानक आए। उन्होंने कुछ तस्वीरें व्हाट्स एप स्टोरीज में शेयर की थी। संयोग से हम दोनों ने देखी। वे बेहद सुंदर तस्वीरें हैं। </div><div><br></div><div>व्यक्ति के अकेलेपन को उसकी रचनात्मकता ही सुंदरता से भर सकती है। </div><div><br></div><div>अनिमेष भरे पूरे हैं, उनमें उतना ही अकेलापन होगा जितना किसी के व्यक्तित्व में होना स्वाभाविक होता है। किंतु उनकी खींची तस्वीरें सुंदर उदाहरण हैं। आप कैसे इस दुनिया को देखते हैं। अपने देखे हुए को कैसे अपनों के बीच शेयर करते हैं। </div><div><br></div><div>मल्टी मीडिया का आदमी अपने व्यक्तित्व को अनेक रंगों से भरता है। वह अपनी रुचि के बहुत सारे काम करता है। सबको सुंदरता से करता है। </div><div><br></div><div>आज दोपहर संजय से फिर मुलाकात होनी थी मगर नहीं हुई। लेकिन मुझे अनिमेष की खींची तस्वीरें मिली हैं। उनका शुक्रिया। तस्वीरें खींचना जितना कलात्मक है, उतना ही कलात्मक है, तस्वीरों को पढ़ना। </div><div><br></div><div>आप जब कभी अकेलेपन से घिरा पाएं तो तस्वीरों को पढ़ें। </div><div><br></div><div><div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh230V6kJctqlAj53m9iRdOQcCCCoFlAVgqPyiVbXlR8P2bWpvQxVZjwGKS3v441uguPlDr2W1Ax4te-LeTJNL5Zbxv-TP0-LqzcUkOSziuTmwAJ2rFudHUHO4pft6-IrgO38Lqxfn3i-Ve/s1600/1674960021169951-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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</div><br></div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-52646427205128488262023-01-13T20:36:00.001+05:302023-01-13T20:36:47.376+05:30अलीजा की उनींदी आंख से गिरा लम्हा - दो <div>सपने कितने अच्छे होते हैं न? पहाड़ की तलहटी, रेगिस्तान का कोई कोना या समंदर के किसी किनारे नीम रोशनी में एक दूजे के साथ होना और फिर वह प्यार करना, जिसे सोच कर जिए जाते रहे कि काश ऐसा हो। </div><div><br></div><div>हालांकि हम ऐसी ही जगह पर थे। ये अचंभा था। किसने सोचा था? चार पांच बरस पहले की दौड़भाग भरी मुलाकात के बाद, ये क्षण सचमुच आएगा। </div><div><br></div><div>हम दूर रहते हुए जितना कुछ सोचते थे, वैसा कुछ नहीं हो रहा था। हम मिलकर गले लगकर चुप बैठ गए थे। जैसे किसी बच्चे को उसके सपनों के संसार में बिठाकर कह दिया जाए, जल्दी करना हमें वापस जाना है। </div><div><br></div><div>कुछ नहीं सूझ रहा था। न तो कोई गहरे बोसे याद आ रहे थे। न हमने एक दूजे को बाहों में भरकर स्क्वीज किया। हालांकि हम ऐसी बहुत बातें करते थे। </div><div><br></div><div>उसने अपनी तर्जनी से मेरी बाईं हथेली पर कुछ लिखा। मैंने पूछा क्या? </div><div><br></div><div>उसने नज़रें नहीं उठाई। मैं भी खिड़की के कांच के पार धुंधले साए सोचने लगा। अचानक उसने कहा "लिखने से सचमुच आराम आता है?" </div><div><br></div><div>मैंने कहा "पता नहीं" </div><div><br></div><div>वह कहती है "मेरे पिताजी डायरी लिखते थे। वे देर रात को जब भी जागते डायरी लिखने बैठ जाते थे।" </div><div><br></div><div>मैंने कहा "हर कोई अपना थोड़ा सा हिसाब रखना चाहता है" </div><div><br></div><div>"ये हिसाब वाली डायरी नहीं थी। ये रिश्तों और एहसासों की डायरी थी" ऐसा कहते हुए उसने मेरी बांह को अपनी बांह से बांध लिया।</div><div><br></div><div>मैंने कहा "रिश्ते भी हिसाब ही हैं"</div><div><br></div><div>"माने?"</div><div><br></div><div>मैं कहा "जाने दो। हम बाद में बात करेंगे" </div><div><br></div><div>मैं उठकर पन्नी के बीच फिल्टर और तंबाकू रखने लगा। उसने मेरी डायरी को अधबीच से खोला। मुझे देखकर मुस्कुराई और पढ़ने लगी। </div><div><br></div><div>"दिल की दीवारें भी होती है। दिल के कोने और खाने भी होते हैं। वरना तुम कब कर नसों में बहकर खत्म हो चुके होते। वह जो रोना आता है, जो खुशी होती है। वह जो किसी क्षण अचानक उछल पड़ता है। वह जो अचानक रुक जाता है। जो कभी अगली धड़कन भूल जाता है। न तो पागल है, न वह आवारा है। वह तुम्हारी किसी बात की प्रतिक्रिया भर है।"</div><div><br></div><div>हवा का एक झौंका खिड़की के बाहर से तंबाकू की गंध अंदर ले आया। जले हुए तंबाकू की गंध। वह मुझ तक आई और कहने लगी सिगरेट खुद बना कर पीने लगे हो? </div><div><br></div><div>मैंने अपने बारे में सोचा। उनका खयाल आया जो किसी के साथ होने को कुछ भी बात बना सकते हैं। मैंने कहा "बाबू कुछ नहीं बचेगा। न ये न वो मगर...."</div><div><br></div><div>"मगर?"</div><div><br></div><div>"मैंने ये लम्हा तुम्हारे साथ जिस तरह जिया है। ये मरने से ठीक पहले जब जीवन के कीमती क्षणों की रील चलती है न, उस समय याद आयेगा" </div><div><br></div><div>क्या शहर था? दिल्ली। शायद दिल्ली </div><div><br></div><div>[अलीजा की उनींदी आंख से गिरा लम्हा<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
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</div>]</div>के सी http://www.blogger.com/profile/03260599983924146461noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-8827944755785122769.post-31314148580980570482023-01-10T15:34:00.001+05:302023-01-10T15:39:42.859+05:30विष के मद से भरी सांसें <div>कभी बरसों बाद उसी सूने रास्ते पर वो फिर दिख जाएगा, ऐसा कौन सोचता है। </div><div><br></div><div>मैं अक्सर टूटी हुई चीज़ों को सावधानी से छूता हूँ। दुख जब किसी को तोड़ते हैं, तब वे तेज़ किनारे छोड़कर जाते हैं। दुख नहीं चाहते कि फिर से उनको कोई गले लगाकर बिसरा दे और हमको फिर से तोड़ने आना पड़े। </div><div><br></div><div>वो बरस कौनसा था, दिल से ये भी मिट गया था। कुछ याद नहीं रहा। रूठकर बिछड़ने की जगह लड़ कर पीड़ा से भरे बिछड़ना हुआ था। </div><div><br></div><div>परसों अचानक एक तस्वीर दिखी। हम चारों एक ही बिस्तर पर सटे पड़े थे। गद्दे पर रखे हुए भरे भरे शराब के प्यालों से बेफिक्र थे। कि औचक कहा "इतनी जल्दी और इतना सारा क्यों पी रहे हो?"</div><div><br></div><div>प्याला हाथ में लिए एक से दूजे कमरे फिर बालकनी और फिर घर के आगे सीढ़ियों पर बैठ गए थे। "ऐसे ही अच्छा लगता है। खासकर तुम आस पास रहो तो एक बार में ही ड्रिंक खत्म कर के तुमको देखता रहूं। </div><div><br></div><div>सब खत्म हो जाता है। मैं जब भी ये कहता तुमको बहुत शिकायत होती थी। भरोसा नहीं होता था। तब तुमको पता नहीं था। बाद में पता चला कि मैं डायरी में ककहरे भी सहेज कर रखता हूं। </div><div><br></div><div>पुरानी डायरियां पढ़कर ही मुझे विश्वास हुआ कि अब तक सबकुछ नष्ट ही तो हुआ है। सब खत्म ही होता है। लेकिन उस डायरी को देखते हुए तुमको देखना सुख था। मेरी डायरी के उजले डिजिटल पन्नों को पढ़ते हुए तुम्हारा चेहरा पीला था। बेहद पीला और भय से भरा हुआ। </div><div><br></div><div>क्या था उसमें? तुम्हारी लिखी बातें, तस्वीरें और आवाज़ सलीके से बचाई हुई थी। मेरे लिए ये बेशकीमती था मगर तुम्हारे लिए एक आफ़त थी। कि तुम अपने जिए हुए की कोई छाया नहीं चाहती थी। तुम अगले क्षण भी नई नकोर पेश होना चाहती थी। एक नए सम्बंध में, एक नई दुनिया में। </div><div><br></div><div>रात के बारह बजे मुझे और कौन फ़ोन कर सकता है। कोई शराबी दोस्त। मैं उनके फ़ोन उठाता हूं। मैं हाँ हूँ करते सुनते हुए बार पूछता हूँ कि तुमने पी रखी है न? </div><div><br></div><div>लेकिन सब एक सा नहीं होता। तुमने कहा "अभी नौ बजे हैं। वो आया नहीं है और मैंने पी नहीं है" </div><div><br></div><div>मैंने पुराने बी बॉक्स में लॉगिन किया और तुम्हारा एक ड्राफ्ट खोजा। जिसके बारे में तुमने कहा था। "ये मैंने आपके लिए लिखा है। आपको भेजने के सिवा इस दुनिया में किसी काम का नहीं है।" </div><div><br></div><div>कभी कोई शाम बेहद उदास होती है। हम जान नहीं पाते कि ठीक कारण क्या है? कुछ समझ नहीं आता। ऐसे ही कभी कोई सुबह सुंदर होती है। जब मैं देखता हूँ कि रात तीन बजे एक कॉल छूट गया था। </div><div><br></div><div>मैं मुस्कुराता हूं कि तुमने बारह बजे तक शराब पी थी। पीकर मुझे याद भी किया। </div><div><br></div><div>कोई किसी को कितना जान सकता है? अंशभर भी नहीं जान सकता। ज़हर का हर हिस्सा एक सा होता है लेकिन इंसान भीतर बाहर से इतना अलग होता है कि उसकी विषाक्तता तो चखकर भी हम नहीं समझ सकते। जैसे दंश के बाद मुंदती हुई आंखों से कोई प्राणी आकाश देखता है, हवा सूंघता है या मर जाने के सच्चे क्षण को महसूस करता है। उसी समय डसने वाले का चेहरा कोमल और प्रेमिल जान पड़ता है। वह चुप और असहाय बैठा दिखाई देता है। </div><div><br></div><div>जैसे उस रोज पेंटिंग बोर्ड पर रखी अधूरी पेंटिंग के सामने तुम बैठी थी।</div><div><br></div><div>वैसे वही आख़िरी लम्हा था। उसके बरसों बाद अधबुझी आंखों के पास से अनगिनत लोग गुज़रे। उनकी कोई याद नहीं। अब भी कुछ एक लोग बार बार गुज़रते। उनको कुछ मालूम नहीं होता कि वे एक विषदंत के दंश से पीड़ित अर्धचेतन व्यक्ति के पास होते हैं। </div><div><br></div><div>ऐसा व्यक्ति जो तुम्हारा कुछ नहीं कर सकता कि खुद अपने ही बस में नहीं है। उसकी चेतना और जिजीविषा कुछ एक गहरे चुंबनों और सहवास में खत्म हो चुके हैं। </div><div><br></div><div>साबुत और चोटिल आत्मा वाला हर कोई प्रेम करने लायक है। जब तक आंखें अधखुली हैं जब तक इन अधखुली आंखों की याद बची रह सके। <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgY76Cxdoos8FpyeyPdsQ7ngyeolVcqvorKh8t1eKkdE-NrB__GsYJHAyHVfFcmgnPjszsemY4vzsSs-_n25yyPGlzzPABbgYQqECxJG2ld4bmMXa5nw3VUkW2gjb3-FMh2on53uwcHk2rm/s1600/1673345068861688-0.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;">
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