April 25, 2011

सब अक्षर धुल जायेंगे...

लायोश ज़िलाही एक अच्छे कवि और कथाकार थे. उनका लिखा नाटक फायरबर्ड उन्नीसवी सदी के आरम्भ में लन्दन के चर्चित नाटकों में से एक था. इस प्ले को कई सालों तक मंचित किया गया. पिछले महीने भर से उनकी एक कहानी के बारे में जब भी लिखने बैठता हूँ, तीन पंक्तियों के बाद मन बिखर जाता रहा है. कहानी का शीर्षक है 'यान कोवाच का अंत". इसे पढ़ते समय और एकांत के पलों में कई सारे ख़याल मेरे मन में संचरित होते रहते हैं.

कहानी का प्लाट कुछ इस तरह से है. एक दिन वह मर गया. पांच साल बाद उसकी एक रिश्तेदार महिला की मृत्यु हो गयी. इसके चौदह साल बाद उसकी चचेरी बहन मर गयी. चचेरी बहन की मृत्यु के इक्कीस माह बाद केरेपेशी के शराबखाने में एक टेबल पर बैठ कर शराब पीते हुए टेक्सी चालकों ने उसे याद किया, जो मर गया था. इसके भी पांच साल बाद एक अधेड़ महिला ने मरते समय एक लडके को याद किया. जिसने गेंहू के खेतों में उसका हाथ थामा था और उस रात पहली बार ज़िन्दगी का सुख जाना था.

इसके दो साल बाद वह चर्च आग से ध्वस्त हो गया, जिसमें जन्म और मृत्यु का ब्यौरा दर्ज था. दो और साल बाद अत्यधिक ठण्ड से बचने के लिए उसकी कब्र पर लगे लकड़ी के क्रोस को चुरा कर जला दिया गया. इस घटना के बीस साल बाद एक युवा वकील अपने पिता की अलमारी को बुहार रहा था. उसमें एक रसीद रखी थी, जिसमें लिखा था 'चार फ्लोरिन और चालीस क्रूज़र प्राप्त किये, पोलिश की हुई दो कुर्सियों की कीमत - सादर यान कोवाच'

वकील ने इस कागज को रद्दी की टोकरी में फैंक दिया. नौकरानी ने टोकरी में रखा सब कुछ कचरे के ढेर पर फैंक दिया. कचरे पर आसमान से बादल बरसे. पानी में भीगने से मुड़े-टुडे कागज पर बचा रह गया, य... कोवा... इसके हफ्ते भर बाद फ़िर बारिश हुई. उसमें सब अक्षर धुल गए लेकिन एक बचा रह गया. इसके तीन दिन बाद फ़िर बारिश हुई और उसी क्षण मृत्यु के उनचास वर्ष बाद अलमारी बनाने वाले कारीगर यान कोवाच की ज़िन्दगी इस धरती से सदा सदा के लिए समाप्त और लुप्त हो गयी.

क्या मृत्यु एक छल प्रदर्शन का पूर्ण हो जाना है. क्या यह एक धोखा या भ्रम था कि कुछ है. वह वास्तव में था ही नहीं, होता तो भला नष्ट कैसे होता ? क्या हम वाकई किसी भ्रम के जीवन का हिस्सा हैं. क्या हमारे दुःख और सुख सभी एक अनिवार्य कल्पना के अंश हैं ? तुम जब पूछती हो हाउज़ लाइफ तो क्या उस वक़्त की सभी खुशियां बेमानी है.

यान कोवाच के नाम की तरह कितने सालों तक बची रहेगी, हमारी मुहब्बत... वो मुहब्बत जिसके तीन पाए टूट चुके है. जो बारिशों में भीग कर बेढब हो गयी है. जिसके बदन पर सर्द दिनों के पाले के निशान उभर आये हैं. जिसे धूप ने सुलगा कर आग बुझे जंगल का एक ठूंठ कर दिया है. वैसे, मैंने तुम्हारा नाम ऐसी जगह लिखा है, जिसे कोई बारिश न धो सकेगी, वह सिर्फ दहकेगा लाल और नीली लपटों में...

April 11, 2011

बस ख़ुदा का शुक्र है...

आह ! अब जाकर आराम आया. सप्ताह भर से मन में अजीब सी बेचैनी थी. भविष्य के बायस्कोप में झांकने का साहस ही नहीं हो रहा था. नए भारत का ख़याल मात्र आते ही रूह काँप जाती थी. नियम कायदे से जीना सब से मुश्किल काम होता है. इस बार जैसी हवा चल रही थी उसके हिसाब से तो आने वाले दिनों में जीना असंभव हो जाता. ऐसा कहते हुए गधा आराम से नसरुद्दीन के बराबर बैठ गया.

उसने पनवाड़ी को कहा कि आज ऐसा हठीला पान लगाओ की शाम खिंची चली आये. गधे के बदन का एक-एक रोंयां ख़ुशी के मारे झूम रहा था. जबकि नसरुद्दीन ठोडी को हथेली पर टिकाये गुम-ख़याल था. गधे ने कहा हालाँकि मैंने सिगरेट पीना छोड़ दिया है पर सच कहूं तो आज ये मन हो रहा है कि धुंएँ के छल्ले बनाऊँ. उन छल्लों की एक जंजीर बने, उस के सहारे आसमान तक चढ़ कर ख़ुदा का शुकराना अदा करूं, इतनी बड़ी ख़ुशी बख्शने के लिए.

उसका जी था कि आस पास खड़े हुए सबको एक करारी दुलत्ती का इनाम भी दे. लेकिन इस महान अवसर पर उसने शब्द शक्ति का ही दामन थाम कर रखा. उसने दो बार नसरुद्दीन के हाथ पर अपनी गरदन रगड़ी और कहा. उस पढ़े लिखे ठेले वाले का सत्यानाश हो जिसने देशों में आग लगवा दी. सारी दुनिया आज़ादी-आज़ादी चिल्लाने लगी. इधर अपने देश के सौ फीसद लोग भी भ्रष्टाचार से दुखी हैं तो वे भी इस हवा में शामिल होने की तैयारी करने लगे. सच में हालात इतने गंभीर हैं कि कभी भी जनाक्रोश का विस्फोट हो सकता है.

ठीक ऐसे में इन बुजुर्गवार ने जंतर-मंतर शुरू किया. मंतर अचूक था कि देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराओ और जंतर यानि कोई भौतिक साधन यानि गाँधी टोपी से भी बड़ी आशाएं जाग रही थी. देश के कोने-कोने से नए स्वच्छ भारत के लिए आवाज़ें आने लगी तो पहले मैं डर गया और दो दिन तक छुप कर बैठा रहा. भले ही गधा हूँ पर इतना समझ में आ गया है कि मुसीबत से भागो नहीं बल्कि सामना करो तो मुक्ति है. नसरुद्दीन का चेहरा जिज्ञासु था और गधे ने अपने आत्ममुग्ध बयान को जारी रखा.

उसने आगे कहा कि मैंने इंटरनेट पर इनका जन लोकपाल का प्रस्ताव पढ़ा. यकीन मानिये कि मेरा डर बड़ी तेजी से गायब हुआ. एक प्रस्ताव था कि भारत रत्न जैसे सम्मानों से नवाजे गए लोग लोकपाल चुनने में हमारा मार्गदर्शन करेंगे. मुझे तुरंत एक पद्मश्री से सम्मानित व्यक्ति का चेहरा याद आया. उनको पर्यावरण के क्षेत्र में पद्मश्री से सम्मानित किया गया है. ख़ुशी की बात है कि वे पर्यावरण में किसी भी तरह के हस्तक्षेप के दोषी नहीं है. मुझे बड़ा आराम आया कि ये तो फिर से अपने ही लोगों को चुनने की बात कर रहे हैं.

लेकिन जनता उद्वेलित थी, मासूम बच्चे देश भर में सड़कों पर आ रहे थे और अन्ना साहब और उनके साथियों के पीछे लगे बैनर पर भगत सिंह की तस्वीर बनी हुई थी इसलिए मैंने दो और दिन लोकपाल के प्रस्तावों को पढने और अपने जैसे भ्रष्ट आलसियों के अंजाम के बारे में फौरी कयास लगाते हुए बिता दिये. मुझे ये भी डर था कि कहीं सरकार और विपक्ष इस बात पर एकजुट न हो जाये कि लोकसेवकों और प्रसाशकों से लेकर निम्न स्तर तक के अधिकारियों के विरुद्ध मुकदमा चलाये जाने की लंबित फाइलों पर तुरंत प्रभाव से बिना शर्त अनुमति जारी कर दे.

नसरुद्दीन ने कहा कि ये तो तुमने अपने डर बताये हैं, ख़ुशी की बात क्या है ?
गधे ने महासमर विजेता की मुस्कान के साथ कहा. इस गाँधी टोपी ने कमाल कर दिया है. इनके रोल माडल भी वहीं हैं. जिनके गले में नरमुंडों की मालाएं हैं और जो भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हैं. गधे ने अपनी टांगों की अकड़ दूर करते हुए कहा. अभी भूगर्भीय हलचलें इतनी तेज़ नहीं है कि लावा फूट पड़े, ये यूं ही भगत सिंह का फोटो लगा कर डराते हैं. गधे ने अपनी बात को इक़बाल अज़ीम की ग़ज़ल से सुपर इम्पोज कर दिया.

तुमने दिल की बात कह दी आज ये अच्छा हुआ
हम तुम्हें अपना समझते थे, बड़ा धोखा हुआ !

April 1, 2011

ऐ दुनिया, अपनी दुनिया ले जाओ...

हवा में तपिश थी और कई दिनों से मौसम थके हुए सरकारी हरकारों की तरह उखड़े हुए जवाब देने लगा था. कहवाघर के मालिक ने अपने कान को खुजाने के लिए अंगुली को सीधा किया तो उसकी आँख किसी यन्त्र की तरह बंद होने लगी यानि जब अंगुली ठीक कान को छू गयी उसी समय एक पलक बंद हुई. नसरुद्दीन की नज़र तीसरे घर के मेहराब से टकरा रही थी और गधा थका हुआ सा उदास बैठा था. अपने दाई तरफ करवट लेते हुए गधे ने कहा. वे अगर क्रीमिया में युद्ध के सिपाही न बने होते तो क्या वार ऐंड पीस नहीं लिखते ?

नसरुद्दीन ने जवाब नहीं दिया. वह अक्सर ऐसा ही करता है. उसका मानना है कि अपनों का कहा हुआ सुनने के लिए होता है, जवाब देने के लिए नहीं. इसलिए उसने एक प्यार भरी निगाह मात्र डाली. गधे ने उसी करवट के एंगल में थोड़ा सा उठाव लाते हुए किसी ज्ञानी की तरह एक साँस भर का मौन धारण किया और कहने लगा.

रात, मैंने एक सपना देखा. उस सपने का भूगोल कई सपनों में पहले भी देखा हुआ है यानि इसी सपने को मैंने कोई पांचवीं बार देखा. एक तीन मंजिला दुकानों वाली बिल्डिंग है. उसमें से एक पतला सा दरवाज़ा किसी होटल में ले जाता है. वहां सीलन भरे कमरे और एक बड़ा खुला हाल है. अपने कमरे से बाहर देखो तो लगता है कि सड़क पर गिरने वाले हैं. इस बिल्डिंग के आगे बहुत ही चौड़ी सड़क नुमा खुली जगह है जैसी रोमन नृत्य शालाओं के आगे हुआ करती है. मैं उस जगह से होता हुआ हमेशा उत्तर-पूर्व की दिशा में जाता हूँ. कुछ ही दूरी पर रास्ता ख़त्म होकर नीचे उतरने वाली सीढियों में तब्दील हो जाता है.

इन सीढियों के पास जाते हुए ऐसा लगने लगता है कि मैं खो गया हूँ. कई बार ख़याल आया कि वे सीढियाँ किसी अंतिम फैसले वाली जगह की ओर जाती है. यह विचार मुझे भय से भर देता है. इस सूनी जगह पर सीढियों से पहले पत्थर की एक लम्बी रेलिंग लगी हुई है. उसको देखने से आभास होता है कि कोई नदी या बड़ा झरना उसके नीचे से गुजरता होगा, हालाँकि मैं कभी वहां तक गया नहीं और हर बार मेरा सपना यहीं टूट गया. सपने से आधे जगे हुए खुद का हाल कुछ ऐसा पाया कि निर्जन प्रदेश में समय ठहर गया है और बेरहम मृत्यु अकेला छोड़ चुकी है. किसी प्रिय की अनुपस्थिति में आँखें भीगी हुई है और मार्मिक पुकारें गले में घोंट दी गयी है.

नसरुद्दीन ने पूछा कि इस सपने का टाल्सटॉय से क्या सम्बन्ध है ?
गधे ने कहा कि इस सपने का सम्बन्ध तो सोफ़िया आन्द्रीवना से भी नहीं है. रैल्फ कडवर्थ, क्लार्क, शेफ्ट्सबरी और ब्रीड्ले से भी नहीं है. शराब का पीपा लिखने वाले एडलर एलन पो और रेतीले मैदानों में एक अकेली सुंदरी के इर्द गिर्द रहस्य गढ़ने वाले राबर्ट लुई स्टीवेंसन से भी नहीं है. आत्मा से गुलाम लोगों की कथा लिखने वाले हंगरी के कथाकार ज़ोल्तान सितन्याई से भी नहीं है. ऐसा कहते हुए गधे का गला भर आया था. वह रो रहा था या हांफ रहा था, कहना मुश्किल था. गधे ने आगे कहा कि सब गधे भी एक से नहीं होते. सबके सुख और दुःख अलग होते हैं और कोई किसी को समझ नहीं सकता...

नसरुद्दीन चुप बैठा था कि ईरान में बेसतून पहाड़ को काटते समय फ़रहाद को न पत्थर दिखता था न दूध की नदी. उसकी आँखों में बस एक शीरीं थी. पास ही कहीं इब्ने इंशा की ग़ज़ल बज रही थी, कल चौदहवीं की रात थी...

दो अश्क़ जाने किसलिए पलकों पे आके टिक गए
अल्ताफ़ की बारिश तेरी इक़राम का दरिया तेरा !

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर ...