January 31, 2014

हम होंगे कामयाब एक दिन

उन्नीस सौ उन्नीस में अमेरिका के मेनहट्टन प्रान्त में मई दिवस के दो दिन बाद के दिन पेट सीगर का जन्म हुआ था और वे इस जनवरी महीने के आखिरी दिनों में इस दुनिया के विरोध प्रदर्शनों में गाये जाने के लिए एक बेहद खूबसूरत गीत छोड़ गए हैं. हम होंगे कामयाब एक दिन. विश्व का ऐसा कौनसा कोना होगा जहाँ विश्वास और अमन के लिए संघर्षरत लोगों ने इसे अपने दिल पर हाथ रख कर न गाया हो. हर भाषा में इस गीत का अनुवाद हुआ और इसे पेट सीगर की धुन ने अलग अलग जुबानें बख्शीं. चार्ल्स अलबर्ट के मूल गीत आई विल ओवरकम वनडे को नयी शक्ल वी विल ओवरकम के रूप में मिली. अफ़्रीकी और अमेरिकी जन संघर्षों में गाये जाने वाले इस गीत को पहले पहल उन्नीस सौ अड़तालीस में इस रूप में गाया गया और फिर से संगीता एल्बम का हिस्सा बन कर बाज़ार में आया. सीगर की लोक गायकी ने इसे अंतर्राष्ट्रीय गीत बना दिया. हमने इस गीत को रक्तहीन आन्दोलनों में खूब गाया है. हम अपने किसी भी सामाजिक चेतना के कार्यक्रम में गए तो वहाँ इसी गीत को गाकर एकजुटता और विश्वास को व्यक्त किया. मजदूरों और क्रांतिकारियों के इस गीत में ऐसी क्या बात है कि दुनिया भर की क्रांतियों और संघर्षों को इसने अपने सम्मोहन में बाँध रखा है. मनुष्य की मूल चाहना और ज़रूरत शांति ही है. अशांत जीवन और मन के साथ जीना सबसे अधिक कष्टप्रद होता है. वैदिक पद्दति में अपने सुखों और विश्व कल्याण के लिए किये जाने वाले यज्ञों जैसे पवित्र कार्यों के बाद ओम् शांति शांति का आहवान किया जाना वास्तव में सुख से भी बड़े सुख अर्थात शांति का आह्वान है. इसी गीत में शांति की खूब कामना की गयी है. लोक गायक अपनी सरल भाषा में हर एक की बात को कहता है. होगी शांति चारों ओर एक दिन, मन में है विश्वास, पूरा है विश्वास. इससे नेक कामना मुझे भी नहीं सूझती है.

मजदूरों, नौजवानों और छात्रों को लाल झंडा खूब पसंद रहा है. इस झंडे के तले दुनियाभर में खूब आंदोलन हुए. इन आन्दोलनों में धर्म और जात-पांत से परे मनुष्यता के लिए लड़ाईयां लड़ी गयीं हैं. वे आंदोलन चाहे किसी भी देश और प्रान्त में हुए हों, उनमें एक मनुष्य का हाथ दूसरे मनुष्य ने ही थामा हुआ था. आज दुनिया के धर्म और उनके भीतर के फिरके मासूमों की जान लिए जा रहे हैं. सांप्रदायिक सद्भाव की बात तो बहुत दूर है. इन दिनों एक ही धर्म के भीतर अनेक पंथ चल पड़े हैं और वे सब एक दूजे के खून के प्यासे हो गए हैं. इस मतान्धता ने दुनिया के आम आदमी को अशांति और भय से भर दिया है. हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई की साझा संस्कृति वाले हमारे देश में भी कई सौ सालों से धार्मिक भेद और घृणा के हादसे होते रहे हैं. लेकिन आज के दौर में इसी घृणित विषय को गर्व का विषय बना कर राजनितिक लक्ष्य प्राप्त करने का काम भी किसी तरह का अपराधबोध नहीं बुनता है. हमने दूसरों के प्रति सहिष्णु होने की इंसानियत को धर्म के पर्दों के पीछे छिपा दिया है. आदमी को आदमी से दूर करने की साज़िश के इस दौर में यही गीत कहता है कि हम चलेंगे साथ साथ, डाले हाथों में हाथ, एक दिन. क्या वह दिन सबसे श्रेष्ठ न होगा, जिस दिन धर्म, जात और प्रान्त को भूल कर किसी भी देश के नागरिक एक साथ चलें और मानव सभ्यता को सुन्दर रंग दे सकें. गीत की यही कामना इसे वैश्विक और प्रिय गीत बनाती हैं. टूटते हुए देशों और नस्लों के भेद के बीच आगे बदती हुई दुनिया में इस तरह के गीत अमर रहेंगे. ये गीत एक दिन आदमियत को खोज कर पुनर्सृजित करेंगे.

हम स्काउट और गाइड जैसे कार्यक्रमों का हिस्सा होने के दिनों में इसे गाते थे. मैंने साक्षरता के लिए लगाने वाले केम्पों में इस गीत को गाते हुए अपने पिता को सुना था. उनका चेहरा एक खास किस्म के आत्मविश्वास से भरा रहता था. वे अपने ऊँचे मस्तक से आसमान को देखते हुए अपनी प्रतिबद्धतता दोहराते थे कि मनुष्यता के लिए किये जाने वाले कामों से कभी पीछे न हटा जायेगा. गाँव की अनपढ़ औरतें जब उनके और अन्य साथियों के साथ इस गीत में सुर मिला रही हों तब कहीं भी ये अहसास नहीं होता था कि हम उधार का गीत गा रहे हैं. हमें इस गीत को हमेशा अपना पाया. अमेरिका और अफ्रीका से दूर गरीब दुनिया के इस थार मरुस्थल में पेट सीगर की धुन बजती रही है. भाषा और संस्कृति से परे, भूगोल और देशों के विस्तार से परे ये गीत जनमानस का गीत है. मजदूरों और मेहनतकशों की उम्मीद वाली दुनिया रचने के सपने का गीत है. इस दुनिया के किसी भी कोने में धर्म के नाम पर भय बोया जायेगा तो मनुष्यता इसी गीत को फिर से गुनगुनायेगी. नहीं दर किसी का आज, नहीं भय किसी का आज, हम चलेंगे साथ साथ एक दिन. मैं इस गीत को जन जन का गीत बनाने के लिए अमेरिका के इस लोकगायक को दिल से याद कर रहा हूँ. मैं इस सिमटती हुई दुनिया में बढते हुए भारत के प्रभाव को और बढते जाने की दुआ करते हुए एक दुआ यह भी करता हूँ कि सांप्रदायिक और अंध धार्मिक शक्तियों का नाश हो. हमारी पसंद के सर्वकालिक गीतों और ज़रुरी गीतों में ये गीत हमेशा बना रहे. हम मनुष्य हों और उसके बाद किसी देश पतंत और नगर के वासी कहलाएं. हमारी पहचान में इन्सनितय की बैज लगा रहे. हम सब ऐसे गीतों के साये तले एक सुन्दर विश्व की ओर बढ़ सकें यही उस महान गायक को श्रद्धांजलि होगी. पेट सीगर का बारह तारों वाला गिटार दुनिया के संगीत प्रेमियों की स्मृति में बचा रहे. हम जीए सभी फिरकों को भुलाकर, एक विश्व होकर. हम होंगे कामयाब एक दिन.

January 25, 2014

बेआवाज़ बातों की दुनिया की ओर

दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे या फिर दायीं तरफ खुलेंगे. इस तरह की उद्घोषणा के बीच परसों मैंने तीसरी उद्घोषणा सुनी कि दरवाज़े नहीं खुलेंगे. मेट्रो ने जाने किसके सम्मान में अपनी गति को थोड़ा कम किया और सूने स्टेशन से आगे निकल गयी. मैं दिल्ली कम ही जाता हूँ. रेगिस्तान में सुख से जीते जाने का दिल्ली की चमचम और बाकी सारी मुश्किलों से क्या जोड़? लेकिन अपने दूसरे कथा संग्रह के प्री बुकिंग वाले आर्डर पर हस्ताक्षर करने के बाद मैं मेट्रो में हौज खास से चांदनी चौक तक का सफ़र कर रहा होता हूँ. मेरे पास एक छोटा सा थैला था. कंधे पर एक काले रंग की शाल थी. इसके सिवा दो किताबें थीं. इतनी सी चीज़ों को संभाले हुए मैं देख रहा था कि मेरे आस पास खड़े हुए लोग मेट्रो के न रुकने सम्बन्धी विषय पर निर्विकार थे. ऐसा लगता था कि या तो उनको पहले से ही मालूम है या वे भी हिंदुस्तान की सुख से बसर करने की चाह में चुपचाप कष्ट सहती जाती अवाम का हिस्सा हैं. हम ऐसे ही हैं कि हमें सब कुछ पका पकाया चाहिए. कोई सड़क साफ़ कर रहा हो तो हम उसकी मदद नहीं करते. उसके दूर होते ही सड़क को गंदा करने में लग जाते हैं. लोकतंत्र के लिए इतना भर करते हैं कि वोट आने पर वोट दे आते हैं. पांच साल की संसद या विधायिका तब तक ही होती है जब तक जनता चाहे. लेकिन हमने अपनी चुप्पी से इसे एक स्थायी चीज़ बना दिया है. इसलिए चुनकर आये हुए प्रतिनिधि आश्वस्त रहते हैं कि अब जो भी देखना होगा अगले साल देखेंगे. मेट्रो इसलिए बंद कि राज्य के मुख्यमंत्री सड़क पर हैं. भारत सरकार के किसी विशेष भवन में एक मुख्यमंत्री को प्रवेश नहीं करने दिया जाता ऐसा मैं कहीं सुनता हूँ. अचानक याद आता है कि मंदिरों में भी कुछ ऐसा ही होता था. लोगों को दरवाज़े से बहुत दूर रोक दिया जाता रहा था. कहते हैं ऐसी घटनाओं की अति होने पर कोई नव जागरण हुआ करता है. मैं कामना करता हूँ कि ऐसा जल्द हो.

दिल्ली के एक पत्रकार मित्र जो शायद टीवी और प्रिंट में फीचर का सेक्शन देखते होंगे मुझे अपनी किताब के लिए बधाई देते हुए पूछते है कि कैसा लगता है इस दौर में किताबें लिखते हुए. साहित्य और आज के दौर के पाठकों का रिश्ता कैसा है. मैं उनसे कहता हूँ कि सम्पूर्ण समूह का किसी एक विषय की ओर रुझान नहीं होता है. हमारा समाज अलग अलग ज़रूरतों के अनुसार भिन्न विधाओं का समुच्चय है. साहित्य उसका एक हिस्सा है. हम कई बार इस भूल में पड़ जाते हैं कि समूचा समाज अगर साहित्य नहीं पढता है तो ठीक नहीं है. साहित्य की अनेक विधाओं ने एक साथ जन्म लिया है. उनका आना भाषा के आने के समकक्ष न होकर वरन उससे भी पहले का है. यानी संकेतों की भाषा के समय भी भिन्न प्रकार से मनोरंजन और हल्के हास्य की क्रियाएँ उपस्थित रही होंगी.  आज  उससे इतर ये नया ज़माना जिन संसाधनों से लैस है उनकी गति बहुत तीव्र है. वे कम्युनिकेशन को नयी शक्ल दे रहे हैं. नेट्वर्किंग और उसके औजारों से आई क्रांति ने हम सबको एक खास किस्म की गति से भर दिया है. इसमें चीज़ें बहुत जल्द हम तक पहुँचती हैं और वे उसी गति से अपना असर खो देती हैं. साहित्य इस सब में कहाँ है ये सोचते ही पहला जवाब मिलता है कहीं नहीं. लेकिन सचमुच ऐसा नहीं है. जो धारदार और संक्षेप में लिखा गया वह इन माध्यमों में अब ज्यादा तेज़ी से संचरित है. मिर्ज़ा ग़ालिब और मीर तकी मीर, रूमी से बुल्लेशाह, बच्चन से दुष्यंत तक की कवितायेँ और ऐसी ही अनेक रचनाएँ व्हाट्स एप, ट्विटर, फेसबुक और ऐसे अनेक सोशल माध्यमों में खूब उपस्थित हैं. मेरे कहने का आशय है कि नये ज़माने में बदले सिर्फ औजार ही हैं. जैसे पुराने संपादकों की जगह आजकल नये और तेज़ी से काम करने वाले संपादक आये हैं. उसी तरह लेखन में खूब बदलाव आया है. जैसे कभी कागज की डायरियों में बंद रहने वाली अनुभूतियाँ आज पब्लिक डोमेन में खुलने वाली डायरी की शकल ले चुकीं हैं. मेरी अपनी डायरी को हर रोज़ दुनिया के अलग अलग देशों से औसतन सौ लोग पढते हैं. डायरी विधा की तरह अन्य विधाओं की इंटरनेटी सामग्री को खूब पढ़ा जा रहा है. पंकज जी का एक सवाल ये भी है कि क्या आज अच्छे पाठक हैं? अच्छे पाठक. ये सोचते ही मैं गदगद हो जाता हूँ. इसलिए कि मेरी कहानियों की अब तक आई दो किताबें हज़ार से अधिक पाठकों के घर तक पहुंची हैं. इन संग्रहों में सम्मिलित सभी कहानियों को उन्हीं गंभीर पाठकों ने अपनी टिप्पणियों से सम्पादित किया है.ब्लॉग पर लिखी गयी कहानी को गंभीर पाठक मिलते हैं और वे किसी गहरे संपादक की तरह अपना काम करते हैं. असल बात है कि रुचियों के संक्रमण काल में आज की पीढ़ी पल पल नष्ट होती चीज़ों के दौर से खूब उबने लगी हैं. उनको सुकून सिर्फ वहीँ मिलेगा जहाँ साहित्य की श्रेष्ठ रचनाएँ जो आज के समय को चिन्हित करती हों. ज़रूरत इस बात की है कि विश्व साहित्य को पढ़ने के इस स्वर्णिम अवसर का उपयोग किया जाये और अपने लिट्रेचेर को और अधिक सुन्दर रचा जाये. मैं मुड कर देखता हूँ, अपने पीछे कई सौ साल पुराने भारत को. मेट्रो की हत्थी थामे हुए. गांव में बैलगाड़ी पर चलने वाले अपने पुरखों को याद करता हूँ. अट्ठारह रुपये में बीस किलीमीटर की साफ़ सुथरी यात्रा करते हुए सोचता हूँ रेगिस्तान से दिल्ली जैसे शहरों की दूरी को. सोचता हूँ भाप के इंजन को और फिर तमाम मुश्किलों और भ्रष्टाचार के आरोपों के बीच आगे बढ़ रहे भारत के उज्ज्वल भविष्य की कामना करने लगता हूँ. क्या हम अपने ईमान को फिर से ज़िंदा नहीं कर सकते. क्या हम नहीं लौट सकते सत्य और अहिंसा के चरणों में. क्या सचमुच राजनीति सामंती संस्कारों से मुक्त होकर लोकगामी नहीं हो सकती. अचानक उद्घोषणा होती है चांदनी चौक यहाँ भारतीय रेल के पुरानी दिल्ली स्टेशन के लिए उतरें.

January 23, 2014

बाद मेरे कोई मुझसा ना मिलेगा तुमको

सुबह का अखबार देखता हूँ. एक तस्वीर है. सात आदमी राजस्थानी साफे बांधे हुए एक सरल रेखा में रखी कुर्सियों पर बैठे हैं. तस्वीर से उनकी उम्र का ठीक अंदाजा नहीं लगा पाता हूँ. मेरे संचित ज्ञान का कोई टुकड़ा कहता है कि उनकी उम्र का अनुपात पचास बरस के आस पास होना चाहिए. इस तस्वीर में ऐसी क्या खास बात है? किसलिए मैं इसका ज़िक्र एक इतनी कीमती जगह पर करना चाहता हूँ. इस तस्वीर में उन सात साफे पहने बैठे हुए भद्र लोगों के आगे राजस्थानी वेशभूषा में एक लड़की ठुमका लगाने की मुद्रा में है. सात में से चार आदमी उस लड़की को ऐसे देख रहे हैं जैसे किसी नृत्य प्रतियोगिता के परीक्षक हों. दो आदमी कहीं सामने देख रहे हैं. एक का सर झुका हुआ है और एक आदमी की सूरत लड़की के पीछे होने की वजह से दिख नहीं रही. ये किसी भी महिला महाविद्यालय का दृश्य हो सकता है. ऐसे दृश्यों की झलकियाँ अब रोज़ ही दिखाई देने वाली हैं. इसलिए कि हम भूल गए हैं हमारी जगहें कौनसी हैं. हमें कौनसी भूमिकाएं सौंपी गयी हैं. हम क्या कर रहे हैं. हम सब जानते हैं कि सबसे बड़ा गुरु माता होती है लेकिन शिक्षा व्यवस्था के तंत्र में विश्व विद्यालयों के अध्यापक ऊँचे गुरु माने जाते हैं. मैं पिछले कई दशकों से देखता हूँ कि छात्र संघों द्वारा आयोजित होने वाले सालाना उत्सवों को महाविद्यालयों के अध्यापकों ने अपने कब्ज़े में ले लिया है और प्राचार्यों ने इस पर चुप्पी साध ली है. छात्रों के कार्यक्रमों की रपटें जब अख़बारों में छपती हैं तो अध्यापकों के ही गुणगान भरे होते हैं. खबर के आखिर में कहीं किसी प्रतियोगिता में स्थान पाने वाले छात्र – छात्राओं के नाम भर छपते हैं. ऐसा लगता है कि अध्यापकों को अपनी ही क्षमता पर भरोसा नहीं रहा कि उनके पढाये सिखाए हुए छात्र-छात्राएं एक जिम्मेदार आयोजक हो सकते हैं. वे अपने स्तर पर महाविद्यालय में अपनी सिखलाई का प्रदर्शन कर सकते हैं. इसलिए अक्सर अध्यापक और कई बार प्रयोगशाला सहायक और लिपिक वर्ग के कर्मचारी भी विषय विशेषज्ञ बन कर ऐसे कार्यक्रमों के अधिष्ठाता बन बैठते हैं. मंच को ही शोभायमान करना हो तो क्या किसी महिला महाविद्यालय को शहर भर में सात पढ़ी लिखी जागरूक और जिम्मेदार महिलाएं नहीं मिल सकती. या फिर ये सोच समझ कर किया जा रहा सामंतवाद का प्रदर्शन है. ऐसा सामंतवाद जो कि एक बेहतरीन अध्यापक को अध्यापक होना भुला दे.

आपको याद ही होगा कि एक महिला पुलिस अधिकारी पर विधानसभा द्वारा गठित एक समिति के सदस्यों के साथ अभद्रता किये जाने पर विधानसभा द्वारा सख्त कार्रवाही की गयी थी. आज ही सुबह अखबार में पढता हूँ कि नाबालिग बालिका के यौन शोषण के आरोप में जोधपुर सेन्ट्रल जेल में बंद प्रवचनकर्ता के समर्थन में आयोजित जेल भरो आन्दोलन के सिलसिले में आयोजित एक सम्मलेन में दो विधायक उपस्थित रहते हैं. इनमें से एक विधायक उसी समिति की मुखिया रही हैं जिसने गांधीनगर महिला पुलिस थाने का औचक निरीक्षण करने के समय महिला पुलिस इन्स्पेक्टर पर बदसलूकी का आरोप लगाया था. आगे चलकर इस विशेष समिति के साथ अभद्रता के कारण इन्स्पेक्टर को कठोर कारावास की सज़ा सुनाई गयी. वह एक महिला पुलिस अधिकारी है. निरीक्षण समिति की मुखिया एक महिला विधायक है. कथित रूप से सताई हुई एक नाबालिग बालिका है. मैं उलझन में पड़ जाता हूँ कि ये कैसा तंत्र है. आप कभी सोच सकते हैं कि महिला अधिकारों के लिए इतना सख्त निर्णय लेकर एक महिला को दण्डित करने वाले तंत्र के ज़रुरी लोग, एक आरोपी को न्यायालय के निर्णय से पहले बेदाग बता रहा है. जनता के चुने हुए ये विधायक उसके समर्थन में आयोजित जेल भरो आंदोलन में शिरकत करते है. मैं उदास हूँ कि हम जिस नैतिकता का दम भरते हैं उसका कहीं पता ठिकाना नहीं है.

बीता साल महिला अधिकारों, उनकी सुरक्षा की चिंता और हुकूक के लिए लड़ाई का खास साल था. हम अपराधों के साये से इस कदर घिर गए हैं कि अपने ही देश में अपनी ही आधी आबादी को रात को घरों से बाहर न निकलने की सलाह देते हैं. हम उनको याद दिलाते हैं कि वे अपराधियों के निशाने पर हैं. हम उनको कहते हैं कि वे जिस समाज का ज़रुरी हिस्सा है उसी में सबसे अधिक असुरक्षित हैं. हद तो ये है कि हम बालिकाओं को इस दुनिया में आने से पहले ही क़त्ल कर दे रहे हैं. इसे रोकने के लिए जागरूकता के अभियान चलते हैं. आखिर पुरुष क्यों इस कदर दुश्मनी पर उतर आये हैं कि उनके निशाने पर हर उम्र की महिलाएं हैं. हमारे भीतर ऐसे कुसंस्कार किसने रोपे हैं. सामाजिक ढांचे में सहशिक्षा के प्रति किसी आशंका या फिर महिलाओं के लिए विशेष शिक्षा के लिए खास संस्थानों की आधारशिला रखते तो हैं मगर आगे हमारी नीयत क्यों बदल जाती है. हम क्यों महिला शिक्षक नहीं नियुक्त नहीं करते. क्यों हम छात्राओं से उनके मंच को छीन कर खुद उस पर सवार हो जाने को नहीं रोकना चाहते. हम क्यों जानबूझ कर एक शहर, कस्बे और गाँव की महिलाओं को महत्त्व न देकर उनको कमतर साबित करते जाने से खुश रहते हैं. पंचायत से लेकर विधानसभा तक में महिलाओं के लिए आरक्षण की तरफदारी के क्या ऐसे ही परिणाम चाहिए कि चुनी हुई प्रतिनिधि, महिला और महिला में भेद करे. एक का विरोध और दूसरे का समर्थन करें. ये सचमुच चिंता का विषय है. रुढिवादी होने से ढोंगी होना और ज्यादा बुरा है. रूढियां हमें बंद समाज से मिलती हैं और ढोंग को हम अपने स्वार्थ और लालच के लिए ओढते हैं. पुरुषों ने महिलाओं को किसी जींस की तरह ही इस्तेमान करना चाहा है. लेकिन अगर ये सच है तो क्या ये सच और बुरा नहीं कहलायेगा कि महिला ही महिला की सबसे बड़ी दुश्मन है. हम आदमी और औरतें जिस तरह मिलकर औरतों को मिटाने पर तुले हैं इसी मौजू पर नामालूम शायर का एक मुनासिब शेर है. "बाद मेरे कोई मुझसा ना मिलेगा तुमको/ ख़ाक में किसको मिलाते हो ये क्या करते हो."

January 14, 2014

मुखौटे

मेरा बारह साल का बेटा मुझे एक फिल्म की कहानी सुनाता है. उसके चेहरे पर सिर्फ कल्पना, हास्य और आनंद का बोध दिखाई देता है. ये एक अमेरिकन फंतासी - हास्य सिनेमा है जिसका शीर्षक है द मास्क. डार्क होरेस की कोमिक सीरीज पर बनी इस फिल्म के बारे में, मैं जब पहली बार सुन रहा होता हूँ तो अपनी उम्र के हिसाब से चिंतित होता जाता हूँ. इसलिए कि कई बार हम समझदार होने की प्रक्रिया में सरल सुखों को जटिल सम्प्रेषण में ढाल देते हैं. मुझे समझदार होना ही चाहिए कि किसी मुखौटे की कहानी देखकर मेरा बेटा क्या प्रतिक्रिया कर रहा है, इससे ये मालूम हो कि उसके कच्चे मन पर इस सिनेमा ने क्या असर डाला है. कई बार मुझे किसी लड़ाकू विमान की आवाज़ घर के किसी कोने से आती हुई सुनाई देती है और उसके समानांतर कोई दूसरा टोही विमान अपने तन्त्र से रोबोट भाषा में संदेशे भेज रहा होता है. इस तरह एक काल्पनिक युद्ध घर के ड्राइंग रूम या हमारे बेड रूम के कोने में चल रहा होता है. ऐसे युद्ध और वर्च्युअल फाइट्स को हमारे नन्हे मुन्ने घरों में रचते रहते हैं. घर में बच्चों की आवाज़ आती रहे, वे बिना किसी वास्तविक खतरे के खेलते रहें तो हम खूब निश्चिन्त रहते हैं. बच्चों की इस तन्हाई से कभी अचानक मैं उदास होने लगता हूँ. सोचता हूँ कि शक्तिशाली ‘हाक’ के द्वारा संचालित रक्षा प्रक्रिया और युद्ध ने बेडरूम के कोने से किस चीज़ को विस्थापित किया है. सबसे पहले मुझे संगीत का खयाल आता है. हमारे घरों से संगीत को बेदखल कर दिया गया है. काल्पनिक युद्ध ने वास्तविक आनंददायी और आत्मा को शीतल शांत करने वाले संगीत को हमारे बच्चों से छीन लिया है. दूसरी जो चीज़ बेदखल हुई वह है कविता. घरों में जहाँ कहीं चर बच्चे मिल जाते उनके खेलों से कविता के स्वर आया करते थे. वे तुकबन्दियाँ इतनी मधुर और प्रिय होती थीं कि बड़े भी मन में गुनगुना रहे होते. कई बार मैंने देखा कि बच्चों की माएं और बुआ भी अपने काम छोड़ कर बच्चों के खेल में शामिल हो जातीं. लेकिन अब घरों के कोनों से नायक कहता है, अधिक शक्ति के साथ अधिक जिम्मेदारियां आती हैं. बचपन उसी जिम्मेदारी के बोझ तले दब गया है.

द मास्क फिल्म का नायक और खलनायक दोनों वैसे ही पात्र हैं जैसे कि हम अब तक की फिल्मो में देखते आये हैं. शोषण, अपराध, कानून विरोधी काम और अपनी मर्ज़ी से सारी दुनिया को काबू में करने की भावना से भरे हुए और नायक इसी दुनिया को बचा लेने के लिए अपना पूरा दम लगाये हुए. इस फिल्म का मुखौटा जादुई है. वह जिसके पास होता है उसे अपने काबू में कर लेता है. उसे अपने हित में संचालित करने लगता है. वैसे मुखौटा रंगमंच का अभिन्न अंग है लेकिन कई बार कहते हैं कि किसी खास तरह की भूमिकाएं करते हुए अदाकार में उसी तरह की प्रवृतियाँ घर कर जाती हैं. मेरा ध्यान उन मुखौटों की ओर जाता है जिन्हें भारतीय राजनीति में पिछले कुछ एक सालों में किसी हथियार की तरह उपयोग में लाया जा रहा है. राजनीति में किसी उन्माद और लक्ष्य प्राप्ति के लिए युवाओं को जो मुखौटे पहनाये जा रहे हैं, उनका परिणाम अभी आना शेष है कि इस मुखौटाधारी और अक्ल निकाल ली गयी कौम का अंजाम क्या होगा. मुखौटा पहनते ही हम अपने असल दयालु, आत्मीय, कोमल और निर्मल भाव से दूर हो जाते हैं. हमने जो मुखौटा धारण किया है, वह मुखौटा हमें उसके जैसा होने के लिए ही उकसाता है. वह एक नकली आवरण या चेहरा हमारे संस्कारों को रोंद देता है. किसी साधू का मुखौटा पहनते ही जिस तरह दया और करुणा हमारे मन में बहने लगती हैं, उसी तरह राक्षस का मुखौटा पहनने पर भी राक्षसी प्रवृतियाँ हमारे भीतर की ओर संचारित होगी. आदिम काल से मनुष्य अपने लोक आयोजनों में स्वांग धरता आया है. इसके लिए वह पशु पक्षियों के रंग रूप रचता है. वह पंछियों के पंखों से या जानवरों की खाल ओढ़ कर उनकी आदतों और व्यव्हार को प्रदर्शित करता है. ये सीखने की प्रक्रिया है. इससे नन्हे बच्चे सीखते हैं कि शेर या मांसाहारी जानवर किस तरह शिकार करते हैं. अबोध मन को ये सूचित किया जाता है कि हमको इन जानवरों से बचना चाहिए. इसी तरह पंछियों के पंखों से ढके हुए कलाकार उनके साथ सहजीवन का संदेशा देता हैं. ये मुखौटे पहनने वाले कलाकार आयोजन के बहुत देर बाद तक वैसी ही हरकतें करते रहते हैं. उनकी चाल में वही शिकारीपन बना रहता है. उनके बोलने का ढंग भी उतना ही सख्त रहता है. इस तरह किसी मुखौटे के प्रभाव से बाहर आने में वक्त लगता है.

हम इसे आसानी से समझ सकते हैं कि हमारे चेहरे की असली पहचान को चुरा लेने वाले ये मुखौटे कितने प्रभावी हैं और इनके परिणाम कैसे हो सकते हैं. हालाँकि रामलीला में राम की भूमिका करने वाला राम और वानर की भूमिका करने वाला वानर नहीं हो जाता मगर ये भी सत्य है कि वे कलाकार उन भूमिकाओं के असर में रहते हैं. उनके में मन उसी तरह के रसों का संचरण होता है, जिनको वे ओढते हैं. मेरा बेटा निर्दोष रूप से एक मुखौटे के आस पास रची कोमिक कथा में कुछ एक हास्य दृश्यों को याद करके खुश होता है. उसके लिए मुखौटा एक मनोरंजन है. मैं पूछता हूँ कि अगर वह मुखौटा आपके चेहरे पर कब्ज़ा कर ले और आपको उसी की मर्ज़ी से काम करना पड़े. आपको कोई उम्मीद भी न हो कि उससे कोई छुड़ा पायेगा तब कैसा लगेगा. वह उदास हो जाता है. मैं उसकी उदासी को बढ़ाना नहीं चाहता हूँ. इसलिए कहता हूँ कि यह एक अभिनय है. वह कहता है हाँ ये एक अभिनय है. इसके आगे मैं मुखौटों के प्रभाव के बारे में, वे सब बातें बेटे को कहता हूँ जो मैंने अब तक कहीं हैं. क्या आपको दाग फिल्म का वो गीत याद है- जब भी जी चाहे नयी दुनिया बसा लेते हैं लोग, एक चेहरे पर कई चेहरे लगा लेते हैं लोग.

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर ...