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Showing posts from March, 2014

ताबीर है जिसकी हसरत ओ ग़म

एक तिकोना कस्बा था. मोखी नंबर आठ से राय कॉलोनी के आखिरी छोर पर वन विभाग तक और इनके ठीक बीच में जोधपुर की तरफ नेहरू नगर में उगे हुए बबूलों के बीच बसा हुआ. मैं साल दो हज़ार में सूरतगढ से स्थानांतरित होकर वापस बाड़मेर आया. तब अमित खूब कृशकाय हो गया था. उसके पास कुछ सिगरेट और कुछ निश्चिन्तता भी थी. उसने कहा- "बंधू तुम लौट आये हो तो किसी शाम फिर से साथ में घूमेंगे." मैंने दो साल बाद बाड़मेर आने पर दिनों को घर में नींद लेने में बिताया और शामें रेडियो पर बोलते हुए. हमारे पास क्या नहीं था. पिताजी थे. कुछ गुरुजन थे. कुछ एक चाय की थड़ी थीं. वोलीबाल के मैदान थे. कुछ बेखयाली थी. जिस शाम रेडियो पर बोलने की ड्यूटी न होती वह शाम अक्सर शेख बंधुओं के सायबर कैफे के आगे बीत जाती थी. मैं और अमित जब मिलते तो वहाँ से चल देते. हम महावीर पार्क या नेहरू नगर में उबले अंडे बेचने वालों में से किसी एक जगह पर होते थे. हमारे जेब में वही हिप फ्लास्क होते. मुझसे वह कभी नहीं पूछता कि तुम क्या पियोगे? इसलिए कि वह बरसों से जानता था कि मेरी कोई पहली दूजी पसंद नहीं थी. ख़राब होना था चाहे जिस चीज़ से हो जाते. प्

पपहिया प्यारा रे

क्या आपके पास बची है थोड़ी सी शराब, थोड़ा सा दिल में दुःख या थोड़ी सी ज़िंदगी? हाँ तो आओ सुनो प्रेम की बेमिसाल रचना. मैंने अब तक रेगिस्तान की उन्मुक्त गायकी के उस्ताद जिप्सी मांगणियार गायक गफ़ूर खां और साथियों की आवाज़ में कुछ लोकगीत आपके साथ बांटे हैं. आज दरबारी लंगा गायकी सुनिए. बड़नवा गाँव के गनी खां लंगा और साथियों की आवाज़. नायिका पपीहे का खूब शुक्रिया कह रही है कि उसने पीहू पीहू रटकर उसके प्रिय को कच्ची नींद से जगा दिया है. वह खुद उनको कभी न जगा पाती और रात जाने कैसे बीतती.  एक दोस्त के लिए, अमित की याद के लिए भी  सुण सोरठी थनों बीन्जों कहे तूँ म्होरी गली मत आवजो थोरीं रे पायल हमें बाजनी रे म्होरे ढोले रो अवलो सभाव म्हे तो बींजा जी आवसों रे ठमके धरसों पाँव थे तो बींजा जी जोवसो हमें तो धुधले मिलाव पपहिया प्यारा रे जस रो दिवलो महाराजा नो काची नींद जगाया नेड़ी नेड़ी रे करजो महाराजा चाकरी रे झांझड़ली सा बेगा घर आवो रे मिरगा नेणी रा ढोला रे जस रो दिवलो महाराजा ने काची नींद जगोया पपहिया प्यारा रे ऊंटों री असवारी रे महाराजा रे अरे घोड़लिया रो टल जोवे रे मिरगा नेणी रा ढोला

मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों.

क़ैद ए हयात ओ बंद ए ग़म असल में दोनों एक है  मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाए क्यों. अमित को लगता होगा कि ये शेर मिर्ज़ा असद उल्लाह खां ग़ालिब साहब ने शायद उसी के लिए लिख छोड़ा होगा कि शादी करना या ज़िंदगी भर ग़म उठाते जाने असल में दोनों एक ही चीज़ है, किसी भी आदमी को मौत से पहले ग़म से आज़ादी क्यों मिले. बोम्बे में अमित के पास महानगर अखबार की नौकरी थी. वह अपनी प्रिय बीट सिनेमा के लिए लिखने से हट कर साहित्यिक विधाओं पर भी लेख लिखने लगा था. उसने सम सामायिक विषयों पर कई गंभीर टिप्पणियां लिखने की ओर रुख किया था. कुछ समकालीन साहित्यिक पत्रिकाओं में अमित की लिखी हुई टिप्पणियां छप रही थी. वह स्क्रिप्ट लेखन के लिए सामग्री का अध्ययन कर रहा था. वह कितना कामयाब होता ये नहीं मालूम मगर वह अपनी पसंद का जीवन जीते हुए आधे सच्चे आधे बाकी ख्वाबों के साथ अंतिम साँस ले सकता था. साल इकानवे से लेकर छियानवे तक अपने सपनों के लिए भाग रहे नौजवान को अब एक न खत्म होने पतझड़ से गुज़रना था. जिस समझौते से उसने अपने लिए एक रास्ता चुना था वह वास्तव में गहराई की ओर जाती अँधेरी सुरंग निकली. अब इस कथा की कुछ

दो नाम है सिर्फ इस दुनिया में

मेरे घर में एक बड़ा दरवाज़ा था. उसके पिछले भाग पर एक श्वेत श्याम तस्वीर चिपकी हुई थी. उसमें मुस्कुराती हुई लड़की ज़ेबा बख्तियार थी. हिना फ़िल्म की नायिका. हमारे घर में फ़िल्में एक वर्जित विषय था. इस तरह किसी नायिका की तस्वीर का लगा होना अचरज की बात थी. घर के कई कोनों और आलों में रखी हुई तस्वीरें या तो पुरखों की होती या फिर क्रांतियों के जननायकों की. इन सबके बीच ज़ेबा एक अकेली लड़की थी, जो सदा मुस्कुराती रहती थी. ऐसा इसलिए था कि अमित ने बोम्बे जाते ही पहला काम यही शुरू किया कि वह फ़िल्म दफ्तरों के चक्कर काटने लगा. उसे तुरंत समझ आ गया था कि बिना किसी टैग के हर बार प्रवेश आसन नहीं होता. इसलिए उसने कई जगह काम खोजे. मराठी में प्रकाशित होने वाले अखबार महानगर के हिंदी संस्करण में उसे काम मिल गया था. उसने अपनी प्रिय बीट फ़िल्म को चुना. वह जब काम माँगने गया तब अपने साथ फ़िल्मी ज्ञान को लिखित में लेकर गया था. उसने कुछ फिल्मों की समीक्षाएं भी लिखी थीं. उसकी समझ को देखकर अखबार का प्रबंधन ने उस पर यकीन कर लिया था.  अब वह फ़िल्मों के प्रमोशन के कार्यक्रमों का हिस्सा हुआ करता. वहाँ सबको एक लिफाफा मिलता ही

खिले फूल शाखों पे नए

पनघट रोड बड़ा रूमानी सा लगता है. लेकिन हमारी पनघट रोड पर मोचियों, सुनारों, मणिहारों और अंत में एक भड़भूंजे की दूकान थी. इस पनघट रोड से होते हुए हम या तो गुरु जी आईदान सिंह जी के यहाँ जाते या संजय के घर. अमित से जान पहचान और दोस्ती के सिलसिले के आगे बढ़ने के दौरान मैं एक छात्र संगठन में काम कर रहा था. वहाँ पोस्टर और बेनर बनाना, कवितायेँ सुनना और खूब सारा लिटरेचर पढ़ना भर मेरे काम थे. स्कूल से आते ही मैं बस्ते को ऐसे जमा करता कि जैसे अब इसका काम अगले जन्म ही पड़ने वाला हो. मैं जो घर में तनहा बैठा हुआ उजले दिनों के सपने देखता था, ग्यारहवीं में आते आते बाहर की दुनिया का लड़का हो गया था. मेरे आस पास खूब सारे लड़के हुआ करते. हम सब अक्सर कोई मोर्चा निकालने की योजना बना रहे होते. अमित की दुनिया के लोग कोई और थे. उनमें मुझे संजय के सिवा कोई याद नहीं आता. संजय से मेरी असल मित्रता आकाशवाणी में एक साथ नौकरी करने के दौरान हुई लेकिन स्कूल के दिनों में अमित और संजय बड़े कहानीकार बन जाना चाहते थे. अमित की सायकिल राय कॉलोनी से निकलती तो फकीरों के कुएं के पास आते ही अपने आप बाएं मुड़ जाती थी. अक्सर साय

कि मैं और तूँ रह गए हम नहीं

श्री चिड़ीमार कथा के बाद मैं आपको अपने कस्बे के स्कूल का ज़रा सा मौसम दिखा देता हूँ. बाड़मेर का हाई स्कूल एक भव्य विद्यालय था. दो हज़ार से अधिक बच्चे पढ़ते थे. कक्षाओं के सेक्शन ए से पी तक पहुँच जाते थे. विद्यालय में किसी बच्चे को बिना सेक्शन की जानकारी के खोजना असंभव सा था. निजी शिक्षा ने हमारी आनंदमयी स्कूलों खत्म कर दिया है. निजी स्कूलों के नाम पर बाड़े बचे हैं. अब न हंसोड़ अध्यापक दीखते हैं न बिना डर वाले बच्चे. सबकुछ एक होड़ ने निगल लिया है. स्कूल दो पारियों में लगता था. स्कूल में आगे हॉकी का मैदान था. स्कूल के पीछे फ़ुटबाल का मैदान था. लेकिन पिछले मैदान में रेत अधिक होने के कारण लड़के हॉकी वाले मैदान में फुटबाल की प्रेक्टिस किया करते थे. मंच के बाएं प्रिंसिपल साहब का ऑफिस और उसके पास एडमिन के कमरे थे. दूजी तरफ गर्ल्स रूम था. उसके ठीक पास लाइब्रेरी का हॉल था. जहाँ कभी-कभी वाद-विवाद और भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित होती थी. स्कूल में कुछ अच्छे डिबेटर लडके थे. एक था राजेश जोशी दूजा अनिल कुमार सिंह. मैं भी लगभग हर डिबेट में होता था. हम तीनों स्कूल आते या न आते मगर वाद विवाद प्रतियोगिता में ज़

राय कॉलोनी का चिड़ीमार

मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब, उसी अत्तार के लड़के से दवा लेते हैं। इस शेर से जाना कि लौंडेबाज़ी भी कोई शै होती है. ऐसी ही जानकारियां होने के ख़याल से माँ-बाप डरते थे. मैं चूँकि सायकिल पर सवार हो चुका था. मेरे पांवों में पहिये थे. मेरे साथ मेरा दोस्त था. अमित. मैं राय कॉलोनी नहीं जाना चाहता था मगर मेरा नया महबूब वहीं था. उसके पास खास किस्म का सम्मोहन था. मेरा मन उसकी ओर खिंचता रहता था. मैं सायकिल चलाते हुए दोपहरें बिताना चाहता था. अमित से मिलने की एक खास वजह थी कि उसमें बातें दूर तक फेंकने का हुनर था. वह बात को इस तरह कहता जैसे बात को अंतिम सत्य से उसी ने लपेटा है. वह मेरा दुष्यंत कुमार था और वही दिनकर भी. लेकिन इस सब से बढ़कर वह सिनेमा का अद्भुत स्क्रिप्ट रायटर स्टीव मार्टिन और एडम मैके था. आखिर मैं राय कॉलोनी गया. उसी लंबी काली पतली सड़क पर चलते हुए विश्वकर्मा न्याती नोरे के लिए घेर कर रखी हुई जगह के थोड़ा आगे अमित ने मुझे इशारा करके बताया कि इस घर में कोई महान शख्स रहता है. उस घर से थोड़ी दूर आगे अमित किसी सूने पड़े हुए बाड़े के रास्ते मुझे अपने घर ले गया. ये वास्तव में अमि

नरक का प्रवेश द्वार

साल चौरासी के आस पास डाक बंगले से लेकर फकीरों के कुएं तक एक आठ फीट की पतली काली लकीर थी, जिसे राय कॉलोनी रोड कहा जाता था. इस रोड पर धूल उड़ती रहती थी. भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान से आए शरणार्थियों ने बड़े शहरों में पनाह ली. इसलिए कि वहाँ रोज़गार के अवसर ज्यादा थे. घर बसाने में एक ज़िंदगी बीत जाती है फिर नये सिरे से घर बसाने की तकलीफ वे लोग नहीं जान सकते जो पुरखों की ज़मीन पर रह रहे हों. इस विस्थापन में बहुत से परिवार बाड़मेर में ही रुक गए. उनके लिए या तो भागते जाने की थकावट राह का रोड़ा थी या उनके रिश्तेदार यहाँ थे. इन्हीं विस्थापितों के लिए उन्नीस सौ तिरेपन से पचपन के बीच कलक्टर रहे ऐ के राय ने आवासीय भूमि आवंटन के प्रयास किये थे. इस बसावट को राय कॉलोनी के नाम से जाना जाने लगा. आज ये बाड़मेर की व्यापारिक गतिविधियों की केन्द्रीय जगह है. कभी ढाणी बाज़ार और पीपली चौक बाड़मेर के अर्थ जगत के आधार थे. उसी धूल भरी पतली रोड पर मेरे नये दोस्त भीखू का घर था. साल अट्टहतर के आस पास किसान छात्रावास में पापा के वार्डन रहने के दौरान राय कॉलोनी तक धूल भरे धोरों को पार करके पहुंचा जा सकता था. वे रेत

ट्यूशन की नदी के इस और उस पार

बाड़मेर रेलवे स्टेशन से बाहर निकले ही गाँधी जी स्टेशन रोड की ओर जाते हुए दीखते हैं. लेकिन वे कहीं नहीं जाते चुप खड़े रहते हैं. उनके चरणों के आस पास बने हुए सर्कल में धरनार्थी बैठे रहते हैं. बाईं तरफ की सड़क चौहटन की ओर जाती है लेकिन दायीं तरफ जाने वाली सड़क पर रेलवे की ज़मीन पर नेहरू युवा केंद्र खड़ा रहता और उसके ठीक पास एक सराय. यहीं भेलीराम की चाय की थड़ी. आगे गली में मुड़ जाओ तो हाई स्कूल. उन दिनों स्कूल के अध्यापकों को भी भेलीराम की चाय खूब प्रिय थी. जब कभी स्कूल के टी क्लब में चाय बनाने वाला अनुपस्थित होता या फिर शिक्षकों को कुछ ऐसी बातें करनी होती, जो विद्यालय प्रबंधन से किसी तरह जुड़ी हुई हों तब अध्यापक चाय पीने भेलीराम के यहाँ पहुँच जाते थे. ये बहुत ख़तरे की बात थी. मैं वहाँ ढाबे पर रोज़ हो नहीं सकता था. वहां पर दो रास्ते थे. एक स्कूल की तरफ से दूजा रेलवे स्टेशन की ओर से. दो रास्ते होने से दुश्मनों को जान बख्शने का अवसर मिलता था. मास्टर लोग जिस तरफ से आते लडके दूजी तरफ से निकल जाते. स्कूल में मास्टरों का जितना दबदबा था स्कूल के बाहर उनको इतनी ही आशंकाएं भी रहती थी. इसलिए दोनों पक्ष एक

पहली मुलाकात का यादगार स्थल

कक्षा नौवीं जी कई बार केमस्ट्री लैब के पास वाले कमरे में लगती थी. कई बार उस कमरे की ठीक विपरीत दिशा में बने हुए थियेटर जैसे बड़े कमरे में लगती थी. लैब के पास वाला कमरा रेल के डिब्बे जैसा था. जिसमें पीछे वाली बेंच पर बैठने वाले बच्चे बिना टिकट यात्रियों की तरह छुप जाते थे. अक्सर विज्ञान पढाने वाले मास्टर पहले दो महीनों में अपने ट्यूशन के लिए छात्र छात्राओं का शिकार कर चुकने के बाद इस बात से उदासीन हो जाते थे कि पीछे की बेंच पर कौन बच्चे हैं और वे क्या गुल खिलाते हैं. मैं पीछे की बेंच पर होता और वहाँ से हर रोज़ मुझे बरामद कर लिया जाता. जो भी माड़साब, जिनका पीरियड होता वह याद से पूछते- "अरे शेरजी वाला किशोर कहाँ गया." पिताजी उसी स्कूल के इतिहास में अध्यापक थे और उनसे प्रेम के कारण उनके सहकर्मी मेरे भविष्य को लेकर चिंतित रहते थे. मैं इस प्रेम के कारण अँधेरे से रौशनी में आ जाता और भारत की इस जेल शिक्षा को मन ही मन खूब गालियाँ देता था. मेरी लास्ट वाली बेंच का छिन जाना कुछ ऐसा होता जैसे कि अभी स्वर्ग के द्वार पर थे और यमदूतों ने हांक कर नरक में ला पटका हो. आगे वाली बेंच पर आन

जो अपने आप से रूठा रहे

समय की गति सापेक्ष है. हम अगर आकाशगंगा में एक निश्चित गति से कर सकें घूर्णन तो हमारी उम्र हज़ारों साल हो सकती है. ऐसा करने के बाद लौट कर आयें और न पहचान सकें किसी एक अपने की आँखें तो ये बचाई हुई उम्र किस काम की? हम अगर इसी पल स्वेच्छा से मर जाएँ और हज़ारों बरसों तक कोई हमें कोसता रहे तो ये चुवान किस काम का? तो क्या हम न अपने लिए जीयें और न अपने लिए मरे? अमित सुनो. आज से बारह साल पहले तुम कैसी कहानियां लिखते थे. ये तस्वीर एक ऐसी निशानी है जिसमें तुम्हारे हाथ से लिखा हुआ दुनिया का एक सबसे प्रिय संबोधन है. मेरी बेटी अपनी नर्सरी की किताब लिए हुए बैठी है. तुमने ही कहा था कि ये कहानी जहाँ छपेगी उसके साथ मुझे मानू की तस्वीर चाहिए. तुम्हारा प्रेम जो बेलिबास था उसे सब पागलपन समझते थे. मैं जितना जनता हूँ तुम्हे वह सब लिखने से एक किताब बन जायेगी. मैं इन दिनों दफ्तर के काम में व्यस्त हूँ फिर चुनाव है और उसके बाद वक्त होगा एक उपन्यास का. लेकिन फिर भी मैं ज़रूर लिखूंगा हमारे बचपन और अधेड़ होने की ओर बढते दिनों को. मैंने चाहा कि तुम्हारी आवाज़ इंटरनेट पर तब तक बची रहे जब तक मैं हूँ मुफ्त का ब

जहाँ हम कभी पहुँच न सके

अमित मैं रो नहीं रहा. इसलिए कि ये दिन तुमने ही चुना था. मैं हूँ बाड़मेर के हाई स्कूल से लेकर मुम्बई विश्व विद्यालय के हिंदी विभाग तक, मैं हूँ रेगिस्तान की आवारा पगडंडियों पर, तुम और रहते तो मैं मिलवाता तुमको उन लोगों से जो मेरे लिखे के प्यार में पड़ गए. इस वक्त सिर्फ तुम्हारी कवितायेँ उनमें से सिर्फ आठ मिनट यहाँ... कुछ दोस्तों को रुलाने के लिए.

घोड़े की आँखों में आंसू

रिचर्ड वाग्मेज का एक उपन्यास है इन्डियन होर्स. एक शराबी के पुनर्वास केंद्र के होस्टल में बीते बचपन की सरल दिखने वाली जटिल स्मृतियों के पहरे में आगे बढ़ता हुआ. लगभग मृत्यु से जीवन की तलाश की ओर बढ़ता हुआ कथानक. ऐसे ही नो मेंस लेंड में एक घोड़ा. जो घोड़ा महाद्वीपों के पार चला आया था. बेच दिए जाने के बाद एक युद्ध का हिस्सा बनाता है और आख़िरकार सूंघता है अपनी ज़मीन को. मिशेल मोर्पुर्गो के नोवेल वार होर्स का घोड़ा. आह ! कितना कठिन है ये जीवन. हज़ार त्रासदियों से भरा हुआ. हज़ार लोगिंग्नेस से गुज़रता हुआ. ऐसे ही जाने क्यों एलेक्स एडम्स एक इस तरह की फंतासी बुनते हैं जिसमें मनुष्य, मनुष्य से अलग किसी जीव या वस्तु के कायांतरण की ओर बढ़ता जाता है. यह नोवेल एक समानांतर डर बुनता है. तीस साल की नायिका इसी भय से गुज़रती है. इस उपन्यास का शीर्षक है, व्हाईट होर्स. ये बिम्ब इसलिए कि सफ़ेद घोड़े हमारी जीवन इच्छा के प्रतीक हैं और जंगली घोड़े हमारी सहवास कामना के. और घोड़े पालने वाले किसी काऊ बॉय की सबसे सुन्दर कहानी हम पढते हैं कोर्मेक मैककार्थी के आल प्रेटी होर्सेस में. घोड़े हमारे आदिम सपनों के वाहक हैं. हम खुद घोड़े ह

कुछ सबक पड़ोसी से भी लेने चाहिए

इधर चुनाव की घोषणा हुई और असंख्य लोगों को अपने मंसूबे साकार होने का वक्त करीब आता हुआ दिखने लगा. मैंने अखबार में देखा कि हमारे यहाँ चुनाव कब होने को है? हम सब लोकतंत्र में खूब आस्था रखते हैं इसलिए बड़े सब्र के साथ अच्छी बुरी सरकारों को काम करने देते हैं. इसका सबसे बड़ा उदहारण ये है कि विगत पांच सालों में देश के सबसे बड़े कथित घोटाले उजागर होते गए और जनता चुप देखती रही. सबसे बड़ा विपक्षी दल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार अपूर्व मौन साध कर प्रतीक्षारत बना रहा. सरकारें खुद के कर्मों से जनता का विश्वास खोती रहे तब भी विपक्ष से आशा की जाती है कि वह देश को गर्त में जाने से बचने के लिए जनता की आवाज़ बने. मगर कई बार टूट रहा छींका हमें भला लगता है और हम इस बात की परवाह नहीं करते कि कि छींके में रखा हुआ सामान भी टूट बिखर जायेगा. क्या हम उसी को चाटने के लिए बने हैं. हमारी मर्यादाएं इतनी भर है कि देखिये सत्ता का फिसला हुआ पहिया खुद हमारे पाले में चला आ रहा है. हम मौन को निराधार समझें तो ये हमारा बचपना होगा. ये वास्तव में मरणासन्न देह के करीब बैठे हुए कोवे की प्रतीक्षा है. जो चाहता है आँख के

रेगिस्तान से किताबों के मेले तक

रेगिस्तान का ये हिस्सा जहाँ मैं रहता हूँ दिल्ली से बहुत दूर है. हालाँकि कई और जगहें इससे भी दोगुनी दूरी पर हैं. हम सब फिर भी किसी न किसी बहाने दिल्ली शहर पहुँच ही जाते हैं. यात्राओं को लेकर मेरे भीतर का यात्री हमेशा उनके स्थगित और निरस्त होने की दुआएं करता रहता है. मन होता ही नहीं कहीं जाया जाये. इसी रेत में उगता और डूबता हुआ सूरज, चाँद की ठंडी रौशनी, मौसमों कि गरम ठण्डी हवाएं इस तरह पसंद है कि इससे आगे कहीं जाना सुहाता नहीं. बावजूद इसके जाना ही होता है. कभी सरकारी काम से, नहीं तो फिर अपनी ज़रूरत के काम निकल आते हैं. इस बार मैं विश्व पुस्तक मेला में भाग लेने के लिए जा रहा था. रेल के डिब्बे में साइड बर्थ पर बैठे हुए मैंने देखा कि मेरे सामने वाली दो शायिकाओं पर बैठे हुए सज्जन किताबें पढ़ तरहे हैं. एक के पास प्रेमचंद का कथा संग्रह था और दूसरे वाले चैन मार्केटिंग या जल्दी पैसा कैसे बनाये जैसी कोई किताब लिए हुए थे. खिड़की के पास बैठी महिला एक मासिक पत्रिका पढ़ रही थी. वह दृश्य इतना सुन्दर था कि मैं अभिभूत हो गया. मैंने अपनी खुशी के हक़ में दुआ की इस बार पुस्तक मेले की यात्रा अच्छी रहेगी. रेलग