एक तिकोना कस्बा था. मोखी नंबर आठ से राय कॉलोनी के आखिरी छोर पर वन विभाग तक और इनके ठीक बीच में जोधपुर की तरफ नेहरू नगर में उगे हुए बबूलों के बीच बसा हुआ. मैं साल दो हज़ार में सूरतगढ से स्थानांतरित होकर वापस बाड़मेर आया. तब अमित खूब कृशकाय हो गया था. उसके पास कुछ सिगरेट और कुछ निश्चिन्तता भी थी. उसने कहा- "बंधू तुम लौट आये हो तो किसी शाम फिर से साथ में घूमेंगे." मैंने दो साल बाद बाड़मेर आने पर दिनों को घर में नींद लेने में बिताया और शामें रेडियो पर बोलते हुए. हमारे पास क्या नहीं था. पिताजी थे. कुछ गुरुजन थे. कुछ एक चाय की थड़ी थीं. वोलीबाल के मैदान थे. कुछ बेखयाली थी. जिस शाम रेडियो पर बोलने की ड्यूटी न होती वह शाम अक्सर शेख बंधुओं के सायबर कैफे के आगे बीत जाती थी. मैं और अमित जब मिलते तो वहाँ से चल देते. हम महावीर पार्क या नेहरू नगर में उबले अंडे बेचने वालों में से किसी एक जगह पर होते थे. हमारे जेब में वही हिप फ्लास्क होते. मुझसे वह कभी नहीं पूछता कि तुम क्या पियोगे? इसलिए कि वह बरसों से जानता था कि मेरी कोई पहली दूजी पसंद नहीं थी. ख़राब होना था चाहे जिस चीज़ से हो जाते. प्
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]