ये ठीक बात है कि मैं हिंदी पढ़ना चाहता था. मैंने साहित्य में स्नातक किया. मेरे मन में लेखक होने के प्रति गहरा चाव था. इस सबके बावजूद मैंने कभी लेखन को गंभीरता से नहीं लिया था. मैं अपनी आरामपसंद ज़िंदगी का ही दीवाना रहा. मैंने कम सुविधाओं में अपने मन का पोषण किया. जो मिला वह पढ़ लिया. मजदूरों के साथ रेलियां कीं. छात्रों के साथ हड़तालें की. तेईस बरस की उम्र से रेडियो में नौकरी करने लगा. नौकरी करते, शराब पीते, खूबसूरत ख्वाब देखते और घर बनाते हुए बीतता गया. फिर अचानक लिखना शुरू हुआ. आंधी का कोई बीज था और फूट पड़ा. बूँद में समाया हुआ दरिया था बह निकला. हाथ से फिसल कर वक्त की अँधेरी सतह के नीचे गिरे हुए अक्षर थे, अपने आप उगने लगे. सब कुछ अचानक, दफ़अतन, सडनली. नौजवान होने के जो दिन थे, वे शहरों में घूमते, दोस्तों से कवितायेँ सुनते, सिगरेट के धुंए भरे कमरे और छतों पर शामें बिताते, गाँव के स्कूलों के बच्चों से बातें करते और किसानों से उनके अनुभव सुनते हुए बीते थे मगर जो कहानियां लिखीं वे सब नाकाम मोहब्बत की कहानियां निकली. अक्सर भाग जाता था. चुप्पी की गहरी छायाओं में खो...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]