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Showing posts from October, 2018

उसके होने का भ्रम रहे

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किसी को जानो तो  बस इतना ही जानना  कि कोई और भी दिखे तो उसके होने का भ्रम होता रहे। उस गांव में दूर तक खेत फैले थे। उनके बीच कुछ रास्ते थे। कुछ सड़कें थीं। कुछ ऊंची इमारतें थीं। मौसम बिछड़ जाने का था। मौसम ने फूलों वाली प्रिंट के हल्के कुर्ते पर पतला स्वेटर डाल रखा था। मैं एक ही ख़याल से भरा हुआ मौसम की हथेली में अपनी हथेली रखे हुए चलता रहा। हमारे पास रास्ते पर कितनी दूर जाना है? ये सवाल नहीं था। हमारे पास सवाल था कि अब कितना समय बचा है। इस बचे समय में जितनी दूर चला जा सके, चलो। अचानक नहीं वरन धीरे-धीरे समय समाप्त हुआ। जैसे अजगर की कुंडली में फंसे जीव का दिल धड़कना बन्द करता है। इन्हीं दिनों की तन्हाई में व्हाट्स एप के कॉन्टेक्ट्स देखने लगा। एक गोरा दिखा। अंगुली ने उसकी डीपी को छुआ। बड़ी होकर भी तस्वीर एक अजाने गोरे की ही रही। मैं शिथिल हतप्रभ सोचने लगा कि मैं कब इस आदमी से मिला। क्योंकर इसका नम्बर सेव किया। फिर याद आया कि उसने अपना नम्बर बदल लिया है। आज सुबह इंस्टा से कॉन्टेक्ट्स सिंक्रोनाइज किये तो एक गोरी दिखी। इस बार सोचना न पड़ा। मैं मुस्कुरा

हर कोने तक रोशनी

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सड़क किनारे के बुझे लैम्पपोस्ट पर नज़र गयी तो लगा कि अभी वो सो गया होगा। जाने कितने ही दिनों की थकान उसे जगाए हुए है। अगला लैंपपोस्ट देखते ही ख़याल आया कि जाग ही रहा होगा कि जब ज़िन्दगी में रिश्तों के धागे ज़रा उलझे हों तो वे फंदे हो जाते हैं। वे सुलझ जाएं तो सुलझाने में जली अंगुलियां भूलने नहीं देती कि ऐसा था। फिर दूर तक लैम्पपोस्ट नहीं थे। इस खालीपन से सिहरकर अंगुलियां आपस में कस गईं। ऐसा तो नहीं न कि उसके होने का केवल भ्रम था। वह नहीं है। मौसम से अक्टूबर की शीतलता गुम हो जाती है। हवा की मुसलसल छुअन के बाद भी बेचैनी बढ़ती जाती है। अचानक चाहता हूँ कि रोशनी की कतारें जगमगा उठें। सड़क पर दूर तक रोशनी फैली हो और बीते दिनों की सब तस्वीरें, बातें और लिखावट सामने आ खड़ी हों। सन्नाटा कुछ नहीं बोलता मगर सन्न सन्न की आवाज़ का ओसिलेटर ऑन हो जाता है। अनवरत। रात स्याह स्याह बीत जाती है। सुबह कमरे की सब खिड़कियां खोलकर बैठे होने पर रोशनी महरम बन जाती है। हर कोने तक रोशनी। बहुत सारे रंग खिलने लगते हैं। उतने रंग जो पैरहन में बसे हुए थे। अचानक सोचता हूँ हमारी कितनी छोटी सी चाहना होती है म

अगर मैं यहां नहीं हूँ तो

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सायबान के नीचे खड़ी गाड़ी में बैठा हुआ था। गाड़ी की चाबी अंगुलियों के बीच उलझी थी। जैसे कहीं जाना न था। या मैं जो इस गाड़ी में बैठा था असल में यहां न होकर कहीं और जा चुका था। जब मैं लौटकर आया तो देखा कि मेरी कोहनियां स्टीरिंग का सहारा लिए थी। मेरी आंखें बन्द थी। मैंने एक सांस ली। ये उस माहौल की ख़ुशबू का पता करना था, जहां से मैं लौटा था। धीरे से आँखे खोलते हुए मैंने सुना कि उसने कहा- "तुम जो चाहो, वही" मुझे वो रास्ता याद है। ऑफिस से घर आते समय गाड़ी अपने आप चलती है। वह सारे मोड़, स्पीडब्रेकर और रास्ते की रुकावटों को पहचानती है। मैं केवल गाड़ी में होता हूँ। अक्सर नहीं भी होता। कल जब हैंडब्रेक लगाया तो समझ आया कि घर आ चुका है। दरवाज़ा खोलने से पहले फिर उसी तरह गाड़ी में बैठा रहा, जैसे सायबान के नीचे खड़ी गाड़ी में बैठा था। हवा में थोड़ी ठंडक है। शॉवर को देखते हुए हाथ को प्लग की ओर बढ़ा देता हूँ। रात का कौनसा पहर है? क्या कोई सोचता होगा कि मैं इस समय क्यों नहा रहा हूँ। इधर उधर रखी छोटी शीशियों से सुगंधित तरल हथेली में लिए हुए भीगा खड़ा होता हूँ। पानी मद्धम बह

मगर मुझे मेरा लगता नहीं

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एक शाम उसने मेरा कुर्ता पहन लिया। आनंद में, छेड़ के लिए या शायद प्रेम में आकंठ डूब जाने पर उसे कुर्ता पहनने की सूझी होगी। हो सकता है, उसने ये सब सोचा ही न हो। बेसबब उसकी अंगुलियों ने छूकर देखा। उसकी बाहों ने पहन लिया। उसके सीने पर जब लिनेन की छुअन आई होगी तो उसने क्षण भर आँखें बंद कर सोचा होगा ये मैं हूँ या वो मैं हो गयी हूँ। मन हो तो ही छुअन अच्छी लगती है कपड़े हों कि वो ख़ुद हो। मेरे साथ कभी ऐसा न हुआ कि मैं अपने लिए जो कपड़े लाया, वे मुझे अपने न लगे हों। लेकिन पिछले बरस एक नीला आसमानी चेक वाला कमीज खरीदा था। उसे पहनते ही लगा कि ये मेरा नहीं है। ये किसी और के लिए बना है। मैंने ख़ुद को देखा तो पाया कि मैं कोई और हूँ कमीज कोई और है। उस कमीज़ में कुछ तस्वीरें ली। उन तसवीरों को मैं देखता और ध्यान हटा लेता। लेकिन फिर वापस देखता। इस तरह हर बार मुझे लगता कि ये मेरी तस्वीर नहीं है। इसे फ़ोटोशोप किया गया है। ये चेहरा किसी और व्यक्ति का है और कमीज़ किसी और का। एक रोज़ उसने कहा कि आप हाफ़ स्लीव्ज क्यों नहीं पहनते? मैंने बहुत पीछे के सालों तक सोचा। क्या मैं कभी आधी बाहो

वो भी जाने कहाँ?

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पहले दिल इज़राइल था। गलती तो गलती, न की हुई गलती को भी माफ नहीं करता था। फिर थोड़ा यूरोप हुआ, थोड़ा जर्मनी। अपने घावों को देखता और दूजों के दुख समझ कर दिल में जगह देने लगा। इसके बाद दिल इंडिया हो गया। जो आ गया उसी को अपना लिया। अपने आप को पुराने और असली नागरिक कहने वाले हड़तालें करने लगे मगर राम राज्य आए बिना दिल का राम राज्य चलता रहा। कुछ मालूम न था कि दिल में कौन रहता है। दिल ने अपने संविधान में लिखा "सब आधार निरधार है, चार दिन की जिंदगी है सबकी कटने दो" एक रोज़ बहुत दूर आकाशगंगा के पार व्योम मंडलों के बेड़े से कोई आया उसने कहा "दूरियाँ भूगोल की बात है। दिल की बात नहीं है" दिल रेगिस्तान ने कहा "तुम सर्द मौसम में आते तो भूल जाते कि कहाँ आए हो। मैं तुमको यहीं बाहों में छुपाकर रख लेता। उसने पूछा- "क्या सर्द मौसम में आना पक्का कर लूँ?" दिल होठों में बुझा सिगार दबाये क्यूबा के एक नौजवान डॉक्टर की मोटरसाइकिल पर सवार हो गया। जैसे वह उसे लेने जाता हो। इस वक़्त मैं कहा हूँ और वो भी जाने कहाँ? कुछ मालूम नहीं। वो जिसने कहा था आपके लिए लिखने को दिल हो आया है।

तुम अभी थोड़ी देर पहले यहीं थे

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हरे, पथरीले पहाड़ी या मैदानी रास्तों पर चलते हुए मैं उन रास्तों को पहचान लेता हूँ, जहां से तुम गुज़रे थे। पदचिन्ह ही अकेली चीज़ नहीं होती जिससे किसी के गुज़रने का पता मिलता हो। ख़ुशबू को भी हवा अक्सर उड़ा ले जाती है। पेड़ों के तनों पर खुरचे गए नाम और निशान भी बेढ़ब हो जाते हैं। इन सब के बिना, बिना कुछ देखे मुझे अचानक लगता है कि तुम यहां से गुज़रे थे। तुम पूछोगे कैसे तो मैं उलझन में घिर जाऊंगा कि क्या कहूँ कैसे मालूम होता है? मगर होता है। कभी ये भी लगता है कि तुम अभी थोड़ी देर पहले यहीं थे। मैं ठहरकर तुम्हारे होने को महसूस करने लगता हूँ।

चिड़िया - इतना काफी है।

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माँ का अचानक ध्यान गया। "भा भा। कित्ता फूटरा है। ओंरे मो तो बायरो आण री जिग्या ई है।" माँ मिट्टी से बने चिड़ियाघर देख रही थी। जब लोहे का जाल बनवाया तब यही सोचा था कि इस पर फूलों और छाया वाली लताएँ पसर जाएंगी। उनकी छांव में परिंदे बैठ सकेंगे। हम उनके लिए घोंसले बनाने की जगह भी बना देंगे। मैंने प्लाई के टुकड़ों से चिड़ियाघर बनाने का सोचा था। एक दोपहर ख़याल आया कि मिट्टी के चिड़ियाघर अच्छे रहेंगे। सड़क किनारे बैठे कुम्भकार को कुछ आमदनी होगी। जिसने मिट्टी सानी, गूंथी और चाक पर चिड़ियाघर बनाया, उस तक भी एक दो रुपया पहुंचेगा। सम्भव है कि वह सोच ले कि कुम्भकारी का हुनर बचाये रखा जाए। इसलिए मैं मिट्टी के चिड़ियाघर ले आया। आज इन चिड़ियाघरों में कलरव है। जिस दिन इन चिड़ियाघरों को टांगा था उस दिन आभा ने मानु को इनकी तस्वीर भेजी तो उसने पूछा- "मम्मा क्या इनमें चिड़ियां घोंसला बनाएंगी?" आभा ने कहा- "ये फ्लैट्स फर्स्ट कम फर्स्ट सर्व बेसिस पर अलोटेड हैं। रहना है तो आओ, नहीं रहना तो दाना चुगो और मौज करो" माँ ने इन घोंसलों को गहरे मन से देखा। "तें तो हैंग पुण्

कोई यायावर अचानक पास आ बैठा

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दो टहनियां हवा के साथ आपस में एक दूजे से लिपटी। चर्र की हल्की आवाज़ आई। जैसे सावन के मौसम में भीगी चारपाई पर कोई आकर बैठ गया। जैसे किसी ने आधी रात चुपके से उढके हुए दरवाज़े को खोला। "क्या सचमुच अब किसी के दबे पांव चलने की आवाज़ आएगी?" मेरे इतना सोचने भर से अंधेरे में रूमान झरने लगा। सहसा कंधे पर छुअन जगी। आह! ये पेड़ से झड़ी दो सूखी पत्तियां थीं। जितना मेरा कासा सूखा था, जितनी मेरे मुंह में प्यास थी, जितना किसी का होना, न होने में बदल गया था। ठीक वैसा था सूखी पत्तियों का स्पर्श। डब-डब की चार-छह आवाज़ों से मैंने कासे में गीलापन उड़ेल दिया। जैसे कोई यायावर अचानक पास आ बैठा है और मैं उसके चोर दांत देख रहा हूँ।

चूरमें रा गटका

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ननिहाल में देग चढ़े, कड़ाह चढ़े। सारणों के घर डोगीयाल, बिनियाल, डूडी, लेगा, जाखड़ सब आये। राजपूत, रेबारी, कुम्हार, मेघवाल, ढाढ़ी और नाई भी आये। सबने चाय की बटकी खाली की। चक्की नुक्ती खाई। बुझी हुई बीड़ी को देखा। गीली मूंछों को पोंछा। अंगूछे को बगल दबाया। मामा के घर से मुझे मौसा ने साफा बंधाया। मैंने भरपेट साग-रोटी खाई और नानी को कहा- "नानी तू इस चरके में ही ज़्यादा मीठी लगती हो" उस लोक में नानी के मेंढे-भेड़ें बराबर मिल गए होंगे वरना अब तक वह बगल में थैली दबाए, पगरखी पहने स्वर्ग लोक से रूठकर आ चुकी होती। यहां लौटते ही गालियों के धमके उठ रहे होते "आक दूँ ओंरे, डीकरा काले-पिरुं सैढा भोंगे हा। आज चूरमें रा गटका करे हैं।" एक वही तो दोस्त थी। जिसके सामने मैं संजीदा नहीं रहता था। मैं ऑफिस से घर लौटते ही आवाज़ देता। "माँ जीवता हो?" नानी कहती "लैर है" इस पर मैं कहता- "जीवता हो तो झोली कराओ" सुबह शाम हम दोनों खुले आंगन में बैठे बटकी भरके चाय पीते। सब दुःख चिंताएं मिट जाती थी। मेरे पिताजी मृत्युभोज के कड़े विरोधी थे। उन्होने हमेशा कहा कि ये

ख़ैर हो।

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मैं सब मित्रों को कहता हूँ  इनबॉक्स में लपर-चपर मत करो।  लेकिन समझता कौन है? मैंने मित्रों को फेसबुक मैसेंजर में काफी हताश किया है लेकिन उनको इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि वाल पर बहादुरी का प्रदर्शन करें। इसका काफी अच्छा परिणाम मिला। दो तीन बरस से अनिश्चितकाल के लिए सुकून है। अब व्हाट्स एप पर आचार संहिता लागू करनी पड़ेगी। मैं दस साल से फेसबुक पर होने के बावजूद फेसबुक को कम जानता हूँ। इसलिए आज ही मालूम हुआ कि चेतन भगत का फेसबुक पेज भी है। इसे लाखों लोगों ने लाइक किया है। इस पेज की अधिकतर पोस्ट्स पर सौ डेढ़ सौ और कुछ पर तीन चार सौ लाइक है। वे पोस्ट जिन पर हज़ार से अधिक लाइक हैं उनको अवश्य ही प्रमोट किया गया होगा। फेसबुक की आय का पहले नम्बर का बड़ा स्रोत अभी अज्ञात है। दूजे नम्बर पर विज्ञापन है और तीसरे नम्बर लाइक और कमेंट का प्रमोशन है। क्या लाखों लोग चेतन भगत का पेज लाइक करके सो गए? केवल दो तीन सौ जागते रहे। ये बात जचती नहीं है। इसका अर्थ है कि लाइक पैड हैं या फेसबुक पेज की विड्थ को खत्म करके रखता है। विड्थ वाला मामला फेसबुक के बस की बात है सिर्फ वायरल होने के स

उपेक्षित और प्रताड़ित - दुख

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जिंदगी यूं भी झाड़ू चीज़ है। इससे आप किसी के दुखों को बुहार सकते हैं। इसे आप तिनका-तिनका करके गंवा भी सकते हैं। एक रोज़ आपके हाथ में टुंडीया रह जाएगा। जिसे या तो 'मोरा' करके जला दिया जाएगा या फिर कूड़े में दफन कर दिया जाएगा। दो बरस पहले नानी लू लगा बैठी। भरी गर्मी के दिन थे। माँ और मौसी ने उनको अस्पताल दिखाया। दवा दिलाई। मैं घर आया तब वे चारपाई पर लेटी हुई थी। मैंने उनकी कलाई पकड़ी और छूकर देखा कि कितना ताप है। नानी ने आँख खोल दी। मैंने इशारा किया क्या हाल नानी? नानी ने कहा- "पड़या हों" मैंने कहा- "पड़या रो। पण जाण री हर मत करियो" नानी के पास इस दुनिया से कूच करने के जुड़े सभी सवालों का एक पक्का जवाब होता। "मने आगे ठौड़ कित बेटा" नानी से दवा, खाने-पानी का पूछ कर मैं रसोई में गया। अपने लिए खाने की प्लेट बनाई और नानी की चारपाई के पास कुर्सी लगाकर बैठ गया। "नोनी एक मूरियो लो?" नानी ने सर हिलाते हुए ना कहा- "तेरे सीरो कराऊँ। मूरिए हूँ काला के होई?" नानी ने मुझे कहा कि मैं चली जाऊँगी और मेरे पीछे तुझे हलुआ खाने को मिलेगा। मैंने नानी