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Showing posts from 2022

डिजिटल क्रिएटर्स का बरस

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बंदर दीवार पर कतार में बैठे हुए, इंस्टाग्रामर टिकटोकियों के करतब देख रहे थे।  बंदर बहुत अधिक प्रभावित नहीं लग रहे थे। सारे फ्लिप और समरसॉल्ट और उनके रीटेक स्तरीय नहीं थे। अभी भी बंदर उनको अपनी कम्युनिटी में शामिल करने के प्रति आश्वस्त नहीं थे।  हर जगह यही नज़ारा था। नवीन प्राचीन स्थल, मॉल्स, कबूतरों के दाने की जगह, खुली सड़क पर कोई न कोई कुछ क्रिएट कर रहा था। मोबाइल वालों के बीच कैमरा वाले भी काफी थे। इस बरस के बीतने से पहले संसार यू ट्यूबर और इंस्टाग्रामर हो चुका था।  कल अपनी और आभा की एक तस्वीर फेसबुक पर शेयर की तो बचपन के सहपाठी अरुण आए और छेड़ भरा कमेंट कर गए कि अपनी उम्र के आधे से भी कम लग रहे हो। सुबह तक व्हाट्स एप पर जन्मदिन की बधाइयां आ गई।  कल जन्मदिन नहीं था। वह सितम्बर महीने की पच्चीस तारीख को होता है। कल हम घर से निकले और जयपुर शहर को गए थे। प्लान था कि जो कोई बाहर का काम है आज कर लिया जाए। फिर कहीं बाहर नहीं जाएंगे। इसी सिलसिले में शॉपर्स स्टॉप का चक्कर काटा। वहीं मॉल में कुछ तस्वीरें ली थी। मैं वीडियो बनाना चाहता हूं कि ये सबसे फास्ट माध्यम है। लेकिन हर बार डिजिटल क्रियेट

क्षणभर का प्यार

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बहुत सारा प्यार  क्षणभर का प्यार होता है।  सर्द रात में बेहद अजीब सपने के बीच हल्का जागता हूं। सोचता हूं कि ये सपना है। सपने में बहुत ठीक पढ़ी जा सकने वाली संख्या है। सपने में दिखने वाले चेहरे पक्के हैं। ये सोचते हुए एक करवट लेता हूं और नींद फिर आ जाती है। सपना जैसे नींद की प्रतीक्षा में ही था। वह फिर नए रंग और नई जगह ले जाता है।  अस्पताल के गलियारों में कम भीड़ थी। हम रेगुलर चेकअप के लिए डॉक्टर की प्रतीक्षा में कुर्सी पर बैठे थे। कुछ अजीब नहीं था। सुबह के दस बजे थे। सपनों का संसार बहुत पीछे छूट चुका था।  प्रतीक्षा से भरी जगह में उदासीन चुप्पी थी। केवल एक उत्साहित दंपत्ति थे। उनका उत्साह ये था कि वे सुबह पांच बजे गांव से बस पकड़ कर डॉक्टर को दिखाने सबसे पहले पहुंच गए थे।  बड़े निजी अस्पतालों में पसरी रहने वाली कृत्रिम चुप्पी में वह जोड़ा अपनी अपने आप को शामिल नहीं कर पाया था। बाकी रोगी और उनके सहयोगी चुप बैठे हुए थे, वहीं वे डॉक्टर के आने की आशा में उचक कर देखते। अपना पहला नम्बर होने पर खुश होते।  मैंने व्हाट्स एप देखा। देखने के साथ ही एक उदघोषणा सुनाई दी।  कोड ब्लू एट टीए

कितने ही सबब

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मिलें कि मिलकर क़रार खो जाए। ये जी जो लगा हुआ है, उचट जाए तो बेहतर है। खिड़की से बे सबब गली में, छत पर बैठे हुए क्षितिज तक हमें कुछ देखना न हो मगर देखते रहें। कभी कोई सांस ऐसे आए, जैसे हम भूल गए थे खुद को, और अब फिर से खुद को याद आए।  मिलकर होगा तो वही मगर हो तो भी कितना अच्छा। कि आख़िर कितना कम-कम सोचें, कितने अधिक चुप रहें।  फिर से देखो परिंदे।

न हथाई, न राम राम

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"पूअर कनेक्शन बहुत गड़बड़ करते हैं।" मां ने कहा "कनेक्शन तो सई होणा ई चाइजे"  "बस-कार में उल्टी होने का कारण सही कनेक्शन नहीं होना ही है।"  मां ने अचरज से कहा "हवे!"  मैंने उनको पढ़ी-सुनी जानकारी दी। "हमारी आंख जो देखती है, कान जो सुनते हैं, पेट जो निर्जलीकरण से बचना चाहता है। वे अपने संदेश दिमाग तक भेजते हैं। खराब कनेक्शन के कारण सूचनाएं गड़बड़ी पैदा करती है। और उल्टी पर उल्टी"  मां ने कहा "रेल सही। रेल में टिकट कर दे" मां का टिकट कुछ दिन बाद का रिजर्व हो पाया। जयपुर पहुंचकर सुबह कार से घर आते समय मां सामान्य रही।  उनको डर तो था मगर खुली हवा थी। सड़कें खाली होने के कारण तेज़ गति से सामने से आने वाली या पीछे से आगे निकलने वाली गाड़ियां नहीं थी। एक दिशा में चलने का आभास था। इसलिए भीड़ में होने वाला दिग्भ्रम नहीं बना। हम आराम से घर आ गए। मां को उल्टी नहीं आई। मोशन सिकनेस से पीड़ित व्यक्ति जब कार, बस आदि से उतरता है तो उसे जो राहत मिलती है, उसका बयान नहीं किया जा सकता।  मां को थोड़ा डर लिफ्ट का भी था लेकिन सात माले में समय नहीं ल

कौनसे अमीश

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मिथक एक समझदार व्यक्ति हैं, इतिहास बचपना है। प्रसिद्ध लेखक अमीश से एक बातचीत को इंडियन एक्सप्रेस ने छापा है। आज के अख़बार का एक पन्ना आइडिया एक्सचेंज के तहत इसी बातचीत का है।  एक बहुत बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक का साक्षात्कार जिसे 'न्यूज़ मेकर इन न्यूज़' रूम कहकर प्रकाशित किया है, एक ज़रूरी बात है। इसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि आप समझ सकें कि लेखक एक प्रवक्ता नहीं होता है। लेखक जो सोचता और महसूस करता है, वह उसके रचनाकर्म से बहुत अलग भी हो सकता है।  शिवा ट्रायोलॉजी से बात आरंभ करते हुए पूछा गया कि चुनौतियां क्या रही?  इसके जवाब में अमीश ने कहा कि लेखक को अपने लेखन में विचार और दर्शन का समावेश करना चाहिए। भले ही पाठक आपसे सहमत हो या नहीं। मैं उनकी इस बात से सहमत होता हूं। ये इस समय का सत्य है कि विचार और दर्शन से अछूता लेखन हमारे आस-पास पसरा हुआ है। वास्तविकता ये है कि वही बिक भी रहा है। एक प्रश्न के जवाब में कहते हैं कि अकीरा कुरुसोवा की राशोमोन। ये पढ़कर मैं सोचता हूं कि वे आगे कहेंगे रियोनुसुके अकुतागावा लेकिन एक लेखक दूसरे लेखक का नाम नहीं लेता। वह केवल फ़िल्मकार को

उन्मुक्त प्रेम की चाहना

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"ज़िंदगी की हर बात कितनी भी बेवजह हो, वह कविता से अधिक सुंदर होती है" बातें बेवजह के साथ आगे बढ़ते हर कदम पर पाया कि बेवजह की इन सारी बातों की जड़ है उन्मुक्त प्रेम! हालांकि अन्य छुटपुट भाव पत्तों की तरह अटके पड़े हैं। 'उसके नाम के पीछे छिपा लेता हूँ मैं अपना अकेलापन, कि इस दुनिया में कोई समझ नहीं सकता भरे पूरे घर में भी कोई हो सकता है अकेला' भरे पूरे घर में रहते हुए भी किसी से प्रेम करने की कभी कोई वजह नहीं बता सकता इसलिए प्रेम में पगी ये बातें बेवजह की ही हुई। ढेर सारी ऐषणाओं से भरा प्रेम। अपने मन की उर्वर जमीन पर प्रेमिका के देहरुपी पेड़ से लिपटे बैठे रहना, उसकी छाँव की ठंडक पाना, उसे अंक में भर उसके फूलों की महक को महसूस करना, चाहना बढ़ने पर फल तोड़ कर खा लेना ये उन्मुक्त कामनाएँ इस जमीन पर खरपतवारों की तरह जहाँ तहाँ ढिठाई से सिर उठाती रही हैं। प्रेम में देह को नकार कर रुह रुह की यहाँ पुकार नहीं है। उसमें बिंधकर मन को छलनी करने का कोई भाव नहीं, ग्लानि नहीं। शैतान का चोला ओढ़ समाज की बँधी बँधाई लीक को तोड़ कविताओं के नायक द्वारा बेधड़क, बेलाग, बिंदास और

तुम एक शुक्रिया रहना

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माना के तुम साथ नहीं हो  मेरे दिल के पास नहीं हो, मैंने ये माना फिर भी आस लगी है दिल में बादलों से भरी सुबह थी। मैं पुराने बस स्टैंड के कियोस्क के सिलसिले की एक दुकान के आगे बैठा हुआ था। अचानक गीत के ये बोल सुनाई दिए। मैंने अपनी नज़र मोबाइल से हटाई। झीने कपड़े का पजामा और कमीज पहने एक बुजुर्ग उलटे खड़े थे। उनके हाथ में मोबाइल था और ये गीत प्ले हो रहा था। मैं मुस्कुराया। कवर वर्जन प्ले हो रहा था। ये बहुत छोटा सा पीस है। अभी दो मिनट में खत्म हो जाएगा। मैंने इसे मोबाइल पर सर्च किया। उल्फत से कहा "भाई सुबह-सुबह बाबा ने दिन भर का काम दे दिया है। अब इसे ही सुना जाएगा" पास में चाय की थड़ी पर डूंगर जी किचन ऐप्रिन पहने चाय उबाल रहे थे। चाय की खुशबू भीगे मौसम में ठहर कर आगे बढ़ रही थी। हेमू अपने काम में खोए थे। रवि दूकान जमाने में लगा था मगर मैं नब्बे के दशक तक लौट चुका था।  शाहिद कपूर एक कमसिन लड़के की तरह याद आए। एक झबरैला पिल्ला याद आया। एक बेखबर लड़की याद आई। जिसे मालूम न था कि एक लड़का अपनी गुल्लक तोड़ कर उधारी करके भी उसे सबसे सुंदर कपड़े भेंट करना चाहता है।  डीजे नारायण थे न। वे

माया

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हेल्युसिनेशन तो माया ही है किंतु एकाधिक अनुभूतियाँ इस तरह गुम्फित होती है कि समझ नहीं आता ये माया, भ्रम, कोरी कल्पना, विभ्रम अथवा कुछ और है।  बरसों पीछे का फेरा देने के बाद मन दिग्भ्रमित हो जाता है। याद में जो बातें थीं, उनसे अधिक लगभग बेहिसाब बातें फिर से पढ़ लेना एक तरह से ओवरलोड ही जाना था। आधी रात को नींद उचटती। डर लगता कि आह ये कहीं आधी रात तो नहीं। अब नींद न आई तो? असल में नींद उन जगहों पर पहुंच जाने के स्वप्न से ही चटकती। वे जगहें, जो दशक भर पीछे छूट चुकी। उस समय का अब कोई साथी भी नहीं। वहां तक लौटा जा सकता है, न उस से बाहर आया जा सकता है।  जीवन के अवसान के बारे में कुछ नहीं सोचता हूँ मगर चीज़ें इस तरह शक्ल लेती हैं कि उनमें उलझा खोया सिहरता रहता हूँ। ये भी बीत गया, वह भी चला गया और जाने कितना बचा है? सन्देह, भय और पीड़ा। बस इतना भर आधी नींद या अधखुली नींद में होता है। कविता के रूप में कही बेवजह की बातों की तलाश में अतीत में इतना गहरा क्यों उतरा। मैंने एक किताब को शक्ल देने की दोबारा कोशिश क्यों की। ये सोचता हुआ सुबह से पहले के वक़्त में सो जाना चाहता हूँ। शहर की रात गर्म है। एसी की

मिलेंगे किस से?

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कि जहां हम खड़े हैं  यहां से वे दिन, ज़रा से उस तरफ हैं कि दो कदम पीछे चल सकें तो वहीं पहुंच जाएं। * * *  टीशर्ट की सलवट को ठीक करते हुए हमेशा दूसरे टी की याद आई। कि इस समय वह अलमारी में कहां रखा होगा।  याद एक सहारे की छड़ी बनकर बहुत दूर तक ले जाती। याद पुरानी होने में बहुत समय लगाती है। याद में सबकुछ थ्रीडी दिखता रहता है। मॉल के चमकदार फर्श में दो लोगों का अक्स। बेशर्मी से मुस्कुराते, तेज़ी से आगे बढ़ते, हथेलियों के बीच किसी बदतमीज बात को सलीके से छुपाए हुए एस्केलेटर से नीचे उतरते हुए भीड़ में गुम होते हुए। बादल अचानक बरसने लगे। सड़क पर बिखरे पानी के पेच में फिर से दोनों की परछाई एक साथ दिखी। फिर मुस्कुराएं। मगर याद में अकसर चेहरे पर ठहरी उलझन भी सामने आ खड़ी होती है। कि सारा साथ और सारा झगड़ा, ठीक करने को है या मिटा देने को है। कि ये या वो नहीं सब चाहिए। सब।  शहर इतने पसरे क्यों होते हैं कि घने बादल क्षण भर में पीछे छूट जाते हैं। दो बहुत दूर के घरों पर खाली आकाश तना रहता है। उनके बीच के आकाश पर बादल छाए रहते हैं।  कभी बारिश के मौसम में भी रात भर बरसात नहीं होती, अगले दिन क्लास लंबी होती है और

अतीत कोई मर चुकी शै नहीं है

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बहुत नई एक पुरानी बात  इतना सा लिखकर ड्राफ़्ट में छोड़ दिया था। तीन साल पहले का अक्टूबर महीना था। मैं सोचने लगता हूँ कि क्या बात थी?  मुस्कुराता हूँ। बीत चुकी बात केवल दो काम की ही होती है। एक मुस्कुराने की दूजी सीख लेने की।  सीखने की बात आते ही मैं मुस्कुराने लगता हूँ कि जीवन में जो काम दिल की खुशी के लिए किया हो, उनसे क्या सीखना। वे तो खुशी के लिए किए काम थे। जैसे जुआ करना, सट्टा लगाना, दोपहरें तम्बाकू के धुएं की छांव में बिता देना, शामें शराब से भर लेना और प्रेम कर बैठना।  सब ग़लत काम बहुत सही होते हैं। लू चल रही है। हर दो दिन बाद हीट स्ट्रोक गले लग जाता है। बदन हरारत से भर जाता है। तपिश मुसलसल बनी रहती है। नींद किसी अधबुझी लकड़ी सी लगी रहती है। रह रहकर नींद का झकोरा आता है। ऐसी नीम बेहोश नींद में बेवक़्त के सपने ऐसे आते हैं, जैसे तमाशा दिखाने वाला आधे तमाशे के बाद बात बदल देता है। जागना नींद से अधिक भारी होता है। ऐसे बैठा रहता हूँ जैसे कुछ सोच रहा हूँ मगर असल में केवल चुप बैठा होता हूँ। एक अधपके पेड़ से अधिक चुप या उदासीन। क़स्बे की सड़कें, चाय की थड़ी, बालकनी से दिखती गली, छत से दिखता आसमा

बता दो कि तुम हो।

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शराबियों का नियम है  कि झगड़ना है, हिंसक हो जाना है  फिर एक दूजे पर गिर पड़ना है।  प्रेमियों का हाल इनसे भी बुरा हैं।  ~रूमी  [जलाल उल दीन मोहम्मद रूमी 1207 से 1273 तुर्की] मेरा हाल इन दोनों से खराब रहता है कि मैं सोशल साइट्स पर एक मुकम्मल ऐंटीसोशल की तरह रहता हूँ। हर जगह हूँ और कहीं भी सोशल नहीं हूँ।  मेरे फॉलोवर नहीं है। मेरे दोस्त हैं। चाहे वे फेसबुक पर हों, इंस्टा, ट्विटर, ब्लॉगर और भी कहीं हो। मैं उनके संदेशों का, अपनेपन का, प्रेम का जवाब नहीं दे पाता।  अखरता ही होगा मगर क्या कीजे।  कोई किताब मंगवाता है तो सूचित करता है। वह अपना प्रिय माध्यम चुनता है। मैं सब प्लेटफॉर्म्स से उकताए हुए रहता हूँ। दोस्तों और पाठकों के मैसेज देखकर बेहद प्रसन्न होता हूँ लेकिन समझ नहीं आता कि उनको जवाब में क्या कहूँ?  इसलिए शुक्रिया हमेशा समझा जाए।  बहुत बरस हुए। जाने कितने बरस। लिखने वालों के लिए मेरे भी गहरे सम्मोहन रहे हैं। वे अजीर्ण हैं। किसी आहट, किसी झांक, किसी धुएं की गंध, ऑटो के भीतर तक आती हवा की अनूठी महक, बेजान और रूखी सड़क पर सबसे अधिक आत्मीय यात्रा। माने कुछ भी भूल के हिस्से में नहीं जाता।  सम्

तस्वीरों में दुःख

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मनुष्य को निकट से देखोगे। उसके दुःख को समझने की कोशिश करोगे। उसकी आवाज़ बनोगे तो तुम सच्चे मनुष्य बन जाओगे।  जीवन तो सबका गुज़रता ही है।  सोनी ने इस वर्ष के लिए प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़र ऑफ ईयर का पुरस्कार एडम फर्ग्युसन को दिया है।   फ़ोटो खींचने की तकनीक में कमाल की प्रगति हुई है। लेंस और बॉडी गुणवत्ता से ऐसी तस्वीरें खींची जा सकने लगी हैं कि हम उन पर सहसा विश्वास नहीं कर सकते।  इतने क़ीमती कैमरा एडम के पास नहीं थे। उनके पास साधारण कैमरा था। एक ट्राइपॉड और एक केबल। लेकिन महंगे कैमरा वाले फ़ोटोग्राफ़र्स से एक अतिरिक्त चीज़, उनके पास थी। मनुष्यता।  एडम ने अमेरिका में प्रवेश करने की राह देख रहे शरणार्थियों के जीवन का डॉक्यूमेंटेशन किया था। उन्होंने ज़िंदा रहने के लिए शरण मांगने वाले लोगों के दुःख को, उनके असहाय जीवन को तस्वीरों में उतारा।  अपने आस पास के जीवन को देखिए। उसकी तकलीफ़ों को लिखिए। हर प्राणी की मदद की सोच रखिये। मनुष्य बनने की ओर बढिए।  [सूचना स्रोत - रेडिफ न्यूज़]

कट ही जाएगा सफ़र

कड़ी धूप के दिन है। मैं छाया में स्कूटर खड़ा किए हुए इंतज़ार कर रहा हूँ। एक बुजुर्ग का हाथ थामे हुए नौजवान मेरे पास से गुज़रता है। बुजुर्ग ऊंची कद काठी के हैं। उनके चेहरे पर न तो बेबसी है ना नाराज़गी। उनके साथ चल रहे नौजवान के हाथ में एक थैली है। एक डॉक्टरी जांच का कोई लिफ़ाफ़ा।  बा ने पगरखी पहन रखी है मगर नौजवान रबर के स्लीपर पहने हुए है। अचानक उसके पैरों की जलन मेरी पगथलियों को झुलसा गई।  बेपरवाह रेगिस्तान का जीवन चलता रहता है।  मेरे फ़ोन में सुबह से मुस्तफ़ा ज़ैदी की कही ग़ज़ल, चले तो कट ही जायेगा सफ़र मुसर्रत नज़ीर की आवाज़ में प्ले हो रही है। मैं हैडफ़ोन उतारकर अपने डाकिया थैले में रख लेता हूँ। हेलमेट उतारते ही पसीना गर्दन को चूमता हुआ कमीज़ के कॉलर तक ढल जाता है।  रेगिस्तान के लोग आग के फूल हैं। उनका जीवन धूप में खिलता है और उसी में कुम्हला जाता है।

रूठी रानी

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उमादे उपन्यास क्यों पढ़ना चाहिए?  रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध उमादे भटियानी के जीवन पर डॉक्टर फतेहसिंह भाटी का उपन्यास पाठकों के बीच है। डॉ भाटी ने इस ऐतिहासिक उपन्यास का शीर्षक उमादे रखा है।  उमादे केवल रूठी रानी या भटियाणी माने भाटी घराने भर की नहीं है। वह एक सम्पूर्ण स्त्री है। पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था में रूठने की इकहरी छवि में स्मृत की जा रही स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को पाठकों के समक्ष रखना इस रचना का उद्देश्य है।  कथावस्तु- पंद्रहवीं शताब्दी के पहले दशक से छठे दशक के मध्य की कहानी है। जैसलमेर राजघराने की राजकुमारी उमादे इसका केंद्रीय पात्र है। राव मालदेव के काल को राजपूताने का शौर्यकाल कहा जाता है। उमादे इन्हीं मालदेव की ब्याहता थी। ये उमादे के स्त्री स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार की रक्षा की कहानी है। ये उपन्यास उमादे के जन्म से आरम्भ होकर राव मालदेव की मृत्यु पर सम्पन्न होता है।  चरित्र चित्रण- उमादे एक स्वाभिमानी स्त्री है। राव मालदेव अत्यधिक भोगविलास में निबद्ध रहने वाला वीर शासक है। भारमली दासी है किंतु असहाय परिस्थिति में भी अपनी राजकुंवरी के लिए अत्यधिक समर्पित है। 

चंद तस्वीरें बुतां

एक शेर को लेकर कुतूहल हुआ। मैंने उसके लिए कुछ खोजबीन की लेकिन नाकामी हाथ लगी। एक तो उर्दू का अलिफ बे नहीं आता। दूजा लिपि से पूरी तरह अनभिज्ञ, इसलिए दोनों शेर लिखकर पोस्ट कर दिए।  कुछ उर्दूदाँ मेरी पोस्ट पढ़कर इधर आते तब तक डरे-डरे मन से रेख़्ता में झांका। उर्दू कविता को सहेजने और लोकप्रिय करने का काम करने वाली इस वेबसाइट का मानना है कि बज़्म अकबराबादी का कहा शेर इस तरह है-  चंद तस्वीरे बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत  बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला।  पर्शियन भाषा के एक उस्ताद ने लिखा है कि चंद तस्वीरें बुतां शेर एक प्रसिद्ध शायर के नाम मढ़ दिया गया है। उनका इशारा मिर्ज़ा ग़ालिब की ओर है, ऐसा मुझे लगता है।  वे सज्जन एक बहस में कह रहे हैं कि बज़्म अकबराबादी के शेर को बदल कर ये शेर कहा गया है। उनका कहना है कि बज़्म अकबराबादी का शेर ये है-  इक तस्वीर किसी शोख़ की और नामे चंद  घर से आशिक़ के पस-ए-मर्ग यही सामां निकला।  थोड़ी सी देर में एक दोस्त का मैसेज आ गया। उनका कहना है कि ये मिर्ज़ा साहब की भाषा और सलीका नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने वह ग़ज़ल भी भेज दी, जिसमें इस शेर को शामिल समझा जाता है।  शौक़ हर

बहुत निकट का भ्रम

जिसे हम बहुत क़रीब समझते हैं  उसे तकनीक ने हम से दूर कर दिया है।  कल शाम व्हाट्स एप के स्टोरी सेक्शन में गया। पचास साठ कॉन्टेक्ट्स की स्टोरी देखी। चार-पांच दोस्तों को रिएक्ट कर दिया।  एक रिएक्ट से कितनी ही बातें सामने आ खड़ी हुई। एक का मालूम हुआ कि बीमारी ने इस तरह घेरा की मौत को महसूस कर लिया। एक उदासी की रेखा के पार हताशा से भरी हुई थी। एक मित्र की पार्टनर गहन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या से जूझ रही है। एक ने बताया कि सब ठीक है। इसके आगे कहा "बस चल रहा है"  ये कौन लोग हैं, जिनके हाल से मैं अनजान था। ये रेडियो में वार्ता के लिए आने वाले, संगीत के कलाकार, मेलों में मिले पुस्तक प्रेमी, सफ़र में एक्सचेंज हुए फ़ोन नम्बर या ऐसी ही किसी लघुतम भेंट से परिचित।  नहीं! ये दोस्त हैं। हमने बरसों एक दूजे को जाना-समझा, महसूस किया। हम मिले, साथ बैठे, गप लगाई। वक़्त बेवक़्त मैसेज किए, लंबे फ़ोन कॉल्स किए। अपने काम और परिवार के बारे में बातें की। बच्चों की चिंता और खुशी बांटी। हर बार उलाहने दिए कि मिले हुए कितना समय हो गया है।  और फिर चुपचाप सब उजड़ गया।  अचानक हम फेसबुक पोस्ट, व्हाट्स एप स्टोरी और इंस

कि सोचना खुद एक गुंजलक शै हो चुकी

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और कितना लड़ना चाहिए।  बरस भर में कई बार लड़ चुका हूँ। हालांकि ये लड़ाई किसी से कही जाए तो वह कहेगा धत्त! इसे भी भला कोई लड़ाई कह सकता है।  त्वरित घटित होने वाली घटनाओं का एक दौर हुआ करता है। आह, ओह, आहा, सचमुच, यकीन कर लें, ये भी होना था, सोचा नहीं था। इस तरह सब कुछ इतना तीव्र घटता है कि आगे के सामान्य समय की चाल शिथिल और उदासीन जान पड़ती है।  एक ठहरा हुआ खाली समय।  मैं तम्बाकू के अधीन नहीं था। मेरा मन किन्ही झंझावतों से घिरा हुआ था। एक क्षण बाद लगता कि अगला काम करने से पहले सिगरेट फूंक ली जाए। मैं तन्हा खाली कमरे की ओर जाता। सिगरेट फूंकता।  चारपाई से उठने से पहले सोचता कि एक और सिगरेट का धुआं खींच लिया जाए। अब तक का धुआं कम लग रहा है। दूसरी सिगरेट जलाता। अकसर ऐसा होता कि दूसरी सिगरेट के बाद मैं चारपाई पर आधा लेट जाता। खिड़की और दरवाज़े से दिखते अरावली के पहाड़ों के टुकड़े देखता।  काम फिर भी शुरू नहीं होते। कैसे तो काम, जैसे नहा लो, कपड़े पहन लो, अपना थैला लो, पेन पेंसिल चेक करो। स्कूटर पर बैठो और दफ़्तर चले जाओ। नहाना स्थगित रहता। आगे के काम स्वतः रुके रहते।  भूख लगती तो आधा घंटा उलझ

अपने लिखे में ढल जाना

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शाम ढ़लने के समय कोई छत से पुकारता है। मैं अजाने सीढियां चढ़ने लगता हूँ। छत पर कोई नहीं होता। पुकारने वाला शायद उस ओर बढ़ जाता है, जिधर सूरज डूब रहा होता है।  पश्चिम में पहाड़ पर जादू बिखर रहा होता है। उपत्यका में रोशनियों के टिमटिमाने तक मैं डूबते हुए सूरज को देखता रहता हूँ। किसी सम्मोहन में या किसी के वशीभूत।  अचानक मन शांत होने लगता है कि क्या करूँगा वहां जाकर जहां से लौटना ही होगा। मैं कभी सिगरेट सुलगाता हूँ कभी चुप बैठे सोचता हूँ कि अब तक कितनी बर्फ गिर चुकी होगी।  एक कहानी कही थी 'एक अरसे से', कहीं मैं उस कहानी के नायक में तो नहीं ढल गया। मैं बदहवास सीढियां उतर कर उस किताब को खोजने लगता हूँ ताकि अपनी कही कहानी का अंत पढ़ सकूँ।

शायद प्रेम हाथी होता है

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 हाथी एक भद्र व्यक्तित्व है। ~रुडयार्ड किपलिंग  हाथी चला जा रहा था। सुबह साढ़े नौ बजे एफसीआई के सामने था। दोपहर दो बजे स्टेशन रोड पर था। उसके पिछले कूल्हों पर फूल उकेरे हुए थे। उसके पांव कीचड़ से सने थे। उसका एक दांत बेढब था।  उसकी पीठ पर एक मामूली हौदा था। हाथी की बेबसी की शक्ल का हौदा। हौदे के गद्दी तो थी मगर उसकी पुश्त न थी। हौदे की गायब पुश्त की तरह हाथी की पुश्तें कहाँ छूट गई थी, ये जानना असंभव था।  हाथी की चाल चलने की बात याद आई। मैंने ठहर कर देखा कि हाथी कैसे चल रहा है? उसकी मद्धम लय क्या कोई स्थायी चाल है? शायद नहीं। मैंने कहीं आवेशित या आक्रोशित हाथियों को भी देखा था। इसलिए ये कहना ठीक है कि हाथी की चाल मतवाली होती है लेकिन ये कोई स्थायी बात नहीं है।  हाथी की याददाश्त के बारे में कहीं पढा था। वे बचपन की बात और रास्ते को बुढ़ापे तक नहीं भूलते। हाथी की दुर्लभ इच्छा के बारे में जाना कि वे अपने पूर्वजों की जगहों पर जाना चाहते हैं। वहां जाकर अक्सर गंभीर हो जाते हैं। वे उनके होने की स्मृति को बार-बार जी सकते हैं। यही अद्भुत है।  मैंने दस बारह बरस की उम्र में पहली बार हाथी देखे थे। रेलव