December 30, 2022

डिजिटल क्रिएटर्स का बरस

बंदर दीवार पर कतार में बैठे हुए, इंस्टाग्रामर टिकटोकियों के करतब देख रहे थे। 

बंदर बहुत अधिक प्रभावित नहीं लग रहे थे। सारे फ्लिप और समरसॉल्ट और उनके रीटेक स्तरीय नहीं थे। अभी भी बंदर उनको अपनी कम्युनिटी में शामिल करने के प्रति आश्वस्त नहीं थे। 

हर जगह यही नज़ारा था। नवीन प्राचीन स्थल, मॉल्स, कबूतरों के दाने की जगह, खुली सड़क पर कोई न कोई कुछ क्रिएट कर रहा था। मोबाइल वालों के बीच कैमरा वाले भी काफी थे। इस बरस के बीतने से पहले संसार यू ट्यूबर और इंस्टाग्रामर हो चुका था। 

कल अपनी और आभा की एक तस्वीर फेसबुक पर शेयर की तो बचपन के सहपाठी अरुण आए और छेड़ भरा कमेंट कर गए कि अपनी उम्र के आधे से भी कम लग रहे हो। सुबह तक व्हाट्स एप पर जन्मदिन की बधाइयां आ गई। 

कल जन्मदिन नहीं था। वह सितम्बर महीने की पच्चीस तारीख को होता है। कल हम घर से निकले और जयपुर शहर को गए थे। प्लान था कि जो कोई बाहर का काम है आज कर लिया जाए। फिर कहीं बाहर नहीं जाएंगे। इसी सिलसिले में शॉपर्स स्टॉप का चक्कर काटा। वहीं मॉल में कुछ तस्वीरें ली थी।

मैं वीडियो बनाना चाहता हूं कि ये सबसे फास्ट माध्यम है। लेकिन हर बार डिजिटल क्रियेटर्स का खयाल आता है और मैं स्थगित कर देता हूं। 

ये बरस भी अच्छा गुज़रा है। ज़रा आंख खोलकर देखूं तो पाता हूं कि मैं उस पीढ़ी से हूं। जो पुराने और नए के बीच ठोकरों में है। न नई हो पा रही और न ही पुरानी।

December 28, 2022

क्षणभर का प्यार

बहुत सारा प्यार 
क्षणभर का प्यार होता है। 

सर्द रात में बेहद अजीब सपने के बीच हल्का जागता हूं। सोचता हूं कि ये सपना है। सपने में बहुत ठीक पढ़ी जा सकने वाली संख्या है। सपने में दिखने वाले चेहरे पक्के हैं। ये सोचते हुए एक करवट लेता हूं और नींद फिर आ जाती है। सपना जैसे नींद की प्रतीक्षा में ही था। वह फिर नए रंग और नई जगह ले जाता है। 

अस्पताल के गलियारों में कम भीड़ थी। हम रेगुलर चेकअप के लिए डॉक्टर की प्रतीक्षा में कुर्सी पर बैठे थे। कुछ अजीब नहीं था। सुबह के दस बजे थे। सपनों का संसार बहुत पीछे छूट चुका था। 

प्रतीक्षा से भरी जगह में उदासीन चुप्पी थी। केवल एक उत्साहित दंपत्ति थे। उनका उत्साह ये था कि वे सुबह पांच बजे गांव से बस पकड़ कर डॉक्टर को दिखाने सबसे पहले पहुंच गए थे। 

बड़े निजी अस्पतालों में पसरी रहने वाली कृत्रिम चुप्पी में वह जोड़ा अपनी अपने आप को शामिल नहीं कर पाया था। बाकी रोगी और उनके सहयोगी चुप बैठे हुए थे, वहीं वे डॉक्टर के आने की आशा में उचक कर देखते। अपना पहला नम्बर होने पर खुश होते। 

मैंने व्हाट्स एप देखा। देखने के साथ ही एक उदघोषणा सुनाई दी। 

कोड ब्लू एट टीएमटी 

मैं कहीं खोए हुए होने से बाहर आया। उदघोषणा जल्दी में तीन बार की गई। मुझे खयाल आया कि टीएमटी पर अपने हृदय की क्षमता जांच करवाते कोई कोलॉप्स हो गया है। 

मुझे नहीं मालूम कि असल में डाक्टरी भाषा में इसका ठीक मतलब क्या रहा होगा। किंतु मैं इतना ही सोच पाया कि वह जो कोई भी है, गिर चुका है।

उसके सीने में अजब मरोड़ उठी है। उसकी सांस रुक गई है। वह लगभग मृत्यु से साक्षात्कार की स्थिति में है। ये उसकी रूखसती का क्षण है। 

मुझे लगा कि उसने पूछा है। ये आपने मेरे लिए लिखा? मैं इसका जवाब जानता था। किंतु मैं पूछ रहा था। क्या? इसलिए कि किसी से प्रेम करना क्षणभर का ही होता है।

हम बहुत दूर कितने दूर तक चल सकते हैं 
इसलिए अच्छा है कि हम बहुत समय तक खुद को चुप रख सकें। 

November 4, 2022

कितने ही सबब

मिलें कि मिलकर क़रार खो जाए। ये जी जो लगा हुआ है, उचट जाए तो बेहतर है। खिड़की से बे सबब गली में, छत पर बैठे हुए क्षितिज तक हमें कुछ देखना न हो मगर देखते रहें।

कभी कोई सांस ऐसे आए, जैसे हम भूल गए थे खुद को, और अब फिर से खुद को याद आए। 

मिलकर होगा तो वही मगर हो तो भी कितना अच्छा। कि आख़िर कितना कम-कम सोचें, कितने अधिक चुप रहें। 

फिर से देखो परिंदे।

October 30, 2022

न हथाई, न राम राम

"पूअर कनेक्शन बहुत गड़बड़ करते हैं।"

मां ने कहा "कनेक्शन तो सई होणा ई चाइजे" 

"बस-कार में उल्टी होने का कारण सही कनेक्शन नहीं होना ही है।" 

मां ने अचरज से कहा "हवे!" 

मैंने उनको पढ़ी-सुनी जानकारी दी। "हमारी आंख जो देखती है, कान जो सुनते हैं, पेट जो निर्जलीकरण से बचना चाहता है। वे अपने संदेश दिमाग तक भेजते हैं। खराब कनेक्शन के कारण सूचनाएं गड़बड़ी पैदा करती है। और उल्टी पर उल्टी" 

मां ने कहा "रेल सही। रेल में टिकट कर दे" मां का टिकट कुछ दिन बाद का रिजर्व हो पाया। जयपुर पहुंचकर सुबह कार से घर आते समय मां सामान्य रही। 

उनको डर तो था मगर खुली हवा थी। सड़कें खाली होने के कारण तेज़ गति से सामने से आने वाली या पीछे से आगे निकलने वाली गाड़ियां नहीं थी। एक दिशा में चलने का आभास था। इसलिए भीड़ में होने वाला दिग्भ्रम नहीं बना। हम आराम से घर आ गए। मां को उल्टी नहीं आई।

मोशन सिकनेस से पीड़ित व्यक्ति जब कार, बस आदि से उतरता है तो उसे जो राहत मिलती है, उसका बयान नहीं किया जा सकता। 

मां को थोड़ा डर लिफ्ट का भी था लेकिन सात माले में समय नहीं लगता। घर का दरवाज़ा खुलते ही मां ने एक लम्बी सांस ली। "एक पुर लोंबी सा आई"

अगली सुबह तक सब सामान्य हो गया। मां मुग़ल ए आज़म के चिंतित शहंशाह अकबर की तरह अपने दोनों हाथ कमर पर बांधे हुए घर के तीन कमरों और हाल का जायजा ले रही थी। 

सुबह के नौ बज चुके थे। पोता आधा उल्टा लेटा हुआ था। मां ने उसे इस तरह देखा जैसे कोई सिपाही अकर्मण्य हो चुका है। किंतु इस बात पर प्यार आया कि सिपाही अपना ही है।

दूसरे कमरे में बिस्तर पर इधर-उधर बिखरी किताबों, औंधे पड़े मोबाइल, आधा नीचे लटक रहे गले वाले तकिए के बीच पोती सोई हुई थी। मां की भृकुटी तनी मगर मन ही मन माफ़ करते हुए, वे अपने कमरे की खिड़की की ओर चली गई। 

मिनट भर बाद वे कमरे से टहलती हुई हाल में आई। जीवन के प्रति गहन चिंतन, योजना और कार्यवाही के नितांत अभाव को महसूस किया। उन्होंने अकेले में पीछे हाथ बांधे चलते हुए पृथ्वीराज कपूर की तरह हम्म का हल्का मगर गहरा उच्चारण किया। 

बादशाह सलामत थोड़ी देर बाद आराम में आ गए। उन्होंने चिंताओं को दरकिनार किया। लंच करके सो गए। 

दो दिन ठीक बीते मगर फिर भी कार रूपी दैत्य प्रतीक्षा में था। मैंने कहा "मां। महेंदर रे घरे जाण सारू हाथी होवतो तो कैड़ी ठेयति?" 

मां ने दूरी और समय को यात्रा से विलग करते हुए कहा "अगे ऊंट माथे जावता ई हा। हमें हेंगों रे तकड़ हुई है" 

महेंद्र के यहां जाने की खुशी में मां ने कार को बरदाश्त किया। मिलकर वापस आते समय आधे रास्ते में तबियत खराब होने लगी। 

जेएलएन मार्ग पर मैंने कहा "एक मोड़ आते ही दिल्ली हाइवे फिर अपन घर समझो" 

हाइवे पर आते ही मां ने देखा ठेले वालों की कतार, पिंजरों में बंद मुर्गे, मछलियों की बिक्री के पोस्टर, सफाई वालों के मिनी ट्रक असहनीय दुर्गंध और दो तरफ लंबी दीवारें। उन्होंने पूछा "बो हाइवे कद आई" 

मैंने कहा "ये दिल्ली हाइवे ही है" 

इतना कहते ही मां ने अपना हाथ अंतिम चेतावनी की तरह उठाया और कहा रोक। मां को उल्टियां शुरू।

मोशन सिकनेस से बचने के लिए पेट में पर्याप्त पानी होने की सलाह चिकित्सक देते हैं किंतु उल्टी करने वाला पानी से डरता है कि पानी पिया तो और उल्टी आएगी। ये डर इस कष्ट को और बढ़ा देता है।

हिम्मत बंधा कर और लगभग हो हल्ला करके मां को गाड़ी में बिठाया। मां ने सीट पर बैठते ही कहा "मेरे छोरों ने फ़ोन कर'अन को, थोंरी मां ने जो लो" 

मां की भाई से बात करवाई ताकि मां का ध्यान कहीं और लगे। भाई ने फ़ोन पर वादा किया। "मां हमके दो घोड़ा लें हो रा। पछे आपों दो ई मेंदर कने हाल हों" 

अगले दिन जयपुर से उकताई मां ने बाड़मेर जाने की घोषणा कर दी। उनका कहना था कि फ्लैट कोई रहने की जगह है। चिड़ियाघर के पक्षियों की तरह बालकनियों के आगे लगी जाली से बाहर झांकते रहो। न कोई हथाई, न कोई राम राम।
 * * *

October 24, 2022

कौनसे अमीश

मिथक एक समझदार व्यक्ति हैं, इतिहास बचपना है।

प्रसिद्ध लेखक अमीश से एक बातचीत को इंडियन एक्सप्रेस ने छापा है। आज के अख़बार का एक पन्ना आइडिया एक्सचेंज के तहत इसी बातचीत का है। 

एक बहुत बिकने और पढ़े जाने वाले लेखक का साक्षात्कार जिसे 'न्यूज़ मेकर इन न्यूज़' रूम कहकर प्रकाशित किया है, एक ज़रूरी बात है। इसे पढ़ा जाना चाहिए ताकि आप समझ सकें कि लेखक एक प्रवक्ता नहीं होता है। लेखक जो सोचता और महसूस करता है, वह उसके रचनाकर्म से बहुत अलग भी हो सकता है। 

शिवा ट्रायोलॉजी से बात आरंभ करते हुए पूछा गया कि चुनौतियां क्या रही? 

इसके जवाब में अमीश ने कहा कि लेखक को अपने लेखन में विचार और दर्शन का समावेश करना चाहिए। भले ही पाठक आपसे सहमत हो या नहीं। मैं उनकी इस बात से सहमत होता हूं। ये इस समय का सत्य है कि विचार और दर्शन से अछूता लेखन हमारे आस-पास पसरा हुआ है। वास्तविकता ये है कि वही बिक भी रहा है।

एक प्रश्न के जवाब में कहते हैं कि अकीरा कुरुसोवा की राशोमोन। ये पढ़कर मैं सोचता हूं कि वे आगे कहेंगे रियोनुसुके अकुतागावा लेकिन एक लेखक दूसरे लेखक का नाम नहीं लेता। वह केवल फ़िल्मकार को याद करता है। रियोनुसूके अकुतागावा को जापान का प्रेमचंद कहा जाता है। तो समझ आता है कि अमीश साक्षात्कार में उस पाठक तबके को संबोधित कर रहे थे, जिसके लिए श्रेष्ठ साहित्य वह है, जिस पर सिनेमा रचा गया।

आप विवादों से कैसे दूर रहते हैं?

अमीश कहते हैं कि कलाकार खुद विवाद खड़े करते हैं। ये एक व्यापारिक या व्यावसायिक योजना होती है। लेकिन मैं जिनके बारे में लिखता हूं, उनकी पूजा करता हूं इसलिए मैं कोई विवाद खड़ा करके किताबें नहीं बेचना चाहता हूं। वे इसके पक्ष में बाहुबली फ़िल्म का उद्धरण देते हुए समझाना चाहते हैं कि नायक एक भक्त है और वह पूजा करता है, इसलिए एक शिवलिंग को उखाड़ना और झरने के नीचे रखना ठीक है। 

मुझे अमीश की किताबों के अनगिनत विज्ञापन याद आते हैं। कैंपेन भी स्मृति में सरकने लगते हैं। किताब बेचने का कोई भी माध्यम अछूता नहीं दिखता। साथ ही सोचता हूं कि वे कौन लेखक हैं, कितने हैं? जिन्होंने कोई विवाद खड़ा करके किताब बेच ली है। फिर सहसा मैं इस जवाब को इस तरह समझता हूं कि अमीश भारत की बात ही नहीं कर रहे। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लेखन के क्षेत्र की लघु प्रचलित प्रथा अथवा दुर्घटनाओं तक जा पहुंचे हैं।

एक प्रश्न पूछा गया है कि ए के रामानुजन का लेख तीन सौ रामायण पर विवाद रहा। इस कारण उसे दिल्ली विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटा दिया गया। इसके जवाब में अमीश कहते हैं कि वे इसके बारे में अधिक नहीं जानते किंतु रामायण के विविध पाठ हैं। 

मैं भी इसी पक्ष में लगभग खड़ा रहा हूं कि अधिसंख्य मिथकीय कथाएं कबीलों और आदिवासियों द्वारा रची गई हैं। कालांतर में उनका अधिग्रहण उच्च और भद्र कहे जाने वाले समाज ने कर लिया है। 

अनेक पाठ होने से ही एक समृद्ध रचना को समाज के सामने रखा जा सकता है। इन कथाओं के कथाकार अनेकानेक लोग रहे हैं। जिन्होंने रचना की कमियों और रचना पर उठने वाले प्रश्नों का सही हल खोजा और रचना को समृद्ध किया।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में एक प्रश्न का जवाब देते हुए अमीश ने कहा है कि भारत का पहला संविधान संशोधन इसे छीनता है, जबकि अमेरिका का पहला संशोधन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उपलब्ध कराता है। 

अमीश से मिथक और इतिहास के बारे पूछा गया। इसके जवाब में अमीश ने कहा कि इतिहास का दावा करने वाले उन बच्चों जैसे हैं, जो कहते हैं, मेरा सत्य ही सत्य है। जबकि मिथक एक समझदार व्यक्ति हैं। वे कहते हैं कि सत्य क्या है, ये कौन जान सकता है। ये इस बातचीत का शीर्षक भी है। शायद ये कोई विवादित बात नहीं है!

मगर ये कैसी बात है कि संविधान से अपेक्षा करने वाला लेखक इतिहास को बचपना कहता है और मिथक को सत्य। मैंने दो बार पढ़ा मगर मुझे ऐसा ही समझ आया। हालांकि आंग्ल मेरी भाषा नहीं है और मेरा हाथ इसमें बहुत तंग है, इसलिए संभव है कि अल्प भाषाई ज्ञान से मैंने लेखक के कहे का गलत अर्थ ग्रहण किया हो।

इस साक्षात्कार में और भी प्रश्न और उत्तर हैं। संभव है कि उनको पढ़कर आप अपने प्रिय लेखक के दर्शन और रचनाकर्म को थोड़ा सा जान सकें।

वस्तुतः मैंने ये सब इसलिए लिखा कि रचनाकार होने या होने की कामना में ऐसे साक्षात्कारों, मंचों और प्रचार से बचना चाहिए। ये आपको किताबें बेचने में तो मदद करते है किंतु एक संशय भी रचते हैं। 

आप किसी लिट फेस्ट में किसी बात से आहत होकर लेखक बन गए हैं तो ज़रूरी नहीं कि व्याख्याता भी बेहतर हैं। आप जिस दर्शन की पैरवी करते हैं, उसी के साथ खड़े भी रहिए। दिखिए कहीं और बिकिए कहीं से बचते रहिए। 

[प्रश्नोत्तर साभार इंडियन एक्सप्रेस दिनांक चौबीस अक्टूबर दो हज़ार बारह।]

September 1, 2022

उन्मुक्त प्रेम की चाहना



"ज़िंदगी की हर बात कितनी भी बेवजह हो, वह कविता से अधिक सुंदर होती है"

बातें बेवजह के साथ आगे बढ़ते हर कदम पर पाया कि बेवजह की इन सारी बातों की जड़ है उन्मुक्त प्रेम!
हालांकि अन्य छुटपुट भाव पत्तों की तरह अटके पड़े हैं।

'उसके नाम के पीछे छिपा लेता हूँ मैं अपना अकेलापन, कि इस दुनिया में कोई समझ नहीं सकता भरे पूरे घर में भी कोई हो सकता है अकेला' भरे पूरे घर में रहते हुए भी किसी से प्रेम करने की कभी कोई वजह नहीं बता सकता इसलिए प्रेम में पगी ये बातें बेवजह की ही हुई।

ढेर सारी ऐषणाओं से भरा प्रेम। अपने मन की उर्वर जमीन पर प्रेमिका के देहरुपी पेड़ से लिपटे बैठे रहना,
उसकी छाँव की ठंडक पाना, उसे अंक में भर उसके फूलों की महक को महसूस करना, चाहना बढ़ने पर फल तोड़ कर खा लेना ये उन्मुक्त कामनाएँ इस जमीन पर खरपतवारों की तरह जहाँ तहाँ ढिठाई से सिर उठाती रही हैं।

प्रेम में देह को नकार कर रुह रुह की यहाँ पुकार नहीं है। उसमें बिंधकर मन को छलनी करने का कोई भाव नहीं, ग्लानि नहीं। शैतान का चोला ओढ़ समाज की बँधी बँधाई लीक को तोड़ कविताओं के नायक द्वारा बेधड़क, बेलाग, बिंदास और बेहिचक तरीके से अपनी ऐषणाओं के उठते गुबार के अनुरूप प्रेम को करने और पाने की बेहद ईमानदार और बेख़ौफ़ अभिव्यक्ति ही इन कविताओं का सौंदर्य है। जिनमें चार चाँद लगाते हैं उन्हें व्यक्त करने के सर्वथा गहन अर्थ उधेड़ते रुपक और नये अर्थ खोलती सुघड़ भाषा।

'माॅनिटर लिज़ार्ड 
उठाती है सर रेत के बयाबान में 
जीभ से टटोलती है मौसम की नब्ज़
और खो जाती है धूसरे काँटों के बीच।
मन में कोई बात आती है
तुम्हारे बारे में और बुझ जाती है चुपचाप।
वीराना लौट आता है,अपने ठिकाने पर।'

बातें बेवजह पढ़ते हुए माइकल एंजेलो का डेविड फ्लोरेंस आँखों के सामने बार-बार आ खड़ा होता है।संगेमरमर का वो निर्वसन बुत, जिसके सामने खड़े होने पर वो नग्न देह नहीं रह जाती अपितु अपनी सूक्ष्म बारीकियों और अत्यंत सुघड़ता के साथ ढला संगेमरमर का एक अप्रतिम कलात्मक स्कल्पचर भर रह जाता है, जिसे देख जुगुप्सा नहीं उपजती न ही वासना का ज्वार। न हिकारत से आँखें टेढ़ी होती हैं, न रोष से रक्तिम, न ही शर्म से रास्ता बदलती है बल्कि एक सुगठित सौंदर्य अपनी संपूर्ण समग्रता में अपने में जकड़ लेता है। कुछ वैसे ही यहाँ भी कविताओं की भावाव्यक्ति अपनी निरावृत देह के साथ सामने आती है।

ज़िंदगी की मेज़ पर रखी कटोरी में कुछ ही बचे थे दाने उम्र के और अचानक किसी ने थपथपाई पीठ थोड़ा उधर सरको, मैं भी बैठूँ तुम्हारे पास।'और वो पूरा का पूरा सरक गया मानो इसी इंतज़ार में बैठा हुआ था।
गोया कोई शैतान सवार हुआ उस पर जो इंसान के भीतर दुबका रहता है। मौका मिलते ही घात लगाने को तैयार। वो शैतानियत जिसे हर आम इंसान बलपूर्वक नकारता रहता है, किंतु यहाँ उससे बच निकलने के कोई इंतजाम नहीं है, बस तनकर दिलेरी से उसकी आँख में आँख डालना ही अभीष्ट है।

'चाकू के लिए ब्रेड को ईजाद करना,सुंदर बिस्तर के लिए औरत को लाना, चूमने के लिए प्रेम करना ये शैतान की चाहनाएँ हैं, बताते हुए अपने को सही ठहरा शैतान का ये कहना कि किसी को चाहना और पत्तागोभी की तरह बंद पड़े रहना, ये एक मुर्दा आदमी की ख्वाहिश है।

ये भी कोई एक बार की बात नहीं है- 'एक ही धोखा खाता है बार-बार बेहया बेगैरत बेअक्ल,आख़िर इस दिल को क्या कहिए!' यूँ ही तो नहीं कहा जाता। समाज के नियमों से बंधा इंसान शैतान के पंजे में जकड़ा छटपटाता है 'काश मोहब्बत लोक गीतों सी अनगढ़ न होकर घरानों के बड़े ख़याल की बंदिशें होती, जिन्हें नियम से सीखा जा सकता।' लेकिन शैतान मन का इससे क्या वास्ता?वो कहता फिरता है 'लंबी उम्र में कुछ भी अच्छा नहीं होता ख़ूबसूरत होती है वो रात जो कहती हैं न जाओ अभी' 

कितने बदन कितने अवसर कितनी जगहें थीं।
शैतान को इनमें से कुछ याद नहीं 
सिवा इसके कि उसने कहा था सब पूछ कर करोगे?'

प्रेम का वो उन्माद जिसके साथ हर बार आमजन लुका छिपी खेलते हैं, वो बेवजह बात की तरह पीठ पर जोर से धौल मारती रहती है। 'लोग कहते थे कि ईमान पर चल, न सोच उस कुफ्र के बारे में, देख मरने के बाद भी कुछ तो साथ चलता है,'लेकिन वो कहाँ मानता है कि 'मैंने मगर बाखुशी खोल दिया उसका आख़िरी बटन' और कर लेता है मनमानी यह कहता हुआ कि 'मुझे जंगली खरगोशों से प्यार है कि उनको जब नहीं होना होता बाँहों में वे मचलते हैं भाग जाने को,जंगली खरगोश तुम्हारे जैसे हैं।'

प्रेम में आकंठ गारत शैतान को भी शायद ये याद न हो कि उसने किस-किस को ये कहा होगा कि वो तो हर बार प्रेम कर बैठता था 'मुझे बहुत सी लड़कियां बेइंतहा पसंद थी,आज उनके नाम की याद भर बाक़ी है।'

प्रेम के उबाल को अपनी तरह जी लेने के बाद पसरे ठंडेपन में ये भी उसने सोचा है कि 'लोगों ने बेवजह और बहुत सारा सोचा है ख़ूबसूरत औरतों के बारे में मगर उन्होंने कभी सुना नहीं गौर से कि ख़ूबसूरत औरतें लोकगीत का आगाज़ हैं और आगे के सारे मिसरे उनके ख़ूबसूरत दुःख।' ये जानते हुए भी कि 'पितामह ने खेतों में अन्न उगाया,पिताजी ने बोई अक्षरों की फसलें मगर शैतान पड़ा रहा प्रेमिका के प्यार में।' ऐसे कि अगर उसे मालूम होता,या उसे मालूम हो जाए या कभी न हो सके उसे मालूम।

शैतान को कोई फर्क नहीं पड़ता, वह बस खोया रहता है उसकी याद में' यह बुदबुदाता हुआ कि 'मुझे माफ़ कर दो इससे सरल रास्ता नहीं था तुम्हारे साथ होने का इसलिए तुमसे प्रेम कर बैठा।' 'उसने जकड़ लिया बाहुपाश में चूमा बेहतर उधेड़ दी बखिया उदासियों की फिर मुस्कुरा कर बोला-मैंने सुना है अवसर एक बार ही आता है!' उन्माद यही नहीं रुकता तो अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बेलाग लपेट सपाट सतर में कहता है 'हवस पर प्रेम का वर्क अच्छा नहीं होता इससे दोनों का लुत्फ़ मर जाता है'

प्रेम उसे पूरा का पूरा वांछनीय था प्रेमिका भी, उसे उसकी देह से कभी इंकार न था कि उसी के साथ ही तो वो उसके पास आती थी, तसव्वुर में भी। प्रेमिका लाख कहे 'जब तुम्हें ज़रूरत हो प्यार की तब याद करना मेरी बात कि प्रेम रुह से किया जाता है, देह नाशवान है। तब वो मन में सोचता कि 'क्या फोड़ लूँ ये रोती हुई आँखें, मगर कहता नहीं था' शैतान तो अंदर था बाहर तो वो इंसान के चोले में ही था आख़िर। 

जब पास नहीं होती थी प्रेमिका तब उसकी याद को प्रेम में पड़ा-पड़ा वो किन्हीं आयतों की तरह दोहराता रहता है कि 'वहाँ ज़रूर रखी होती है एक गहरी साँस,जहाँ रखा है तुम्हारे नाम का पहला अक्षर!' या 'आह कितनी उम्मीदें हैं एक तुम्हारे नाम में, तुम हो कहीं? जी चाहता है आख़िरी अच्छे आदमी से बात की जाए।' तब उस जगह पर हम उस प्रेमी को देख पाते हैं जहाँ पर होने को, वो अपनी जिद में लगातार नकारता रहता है। 

उसकी वो घुटी हुई आवाजें कि 'नहीं दिखाई देगा कोई अक्स आता हुआ दीवार के इस ओर, दुनिया से डरे हुए छुपकर हम करते रहेंगें इंतज़ार। हम बने ही इंतज़ार के लिए हैं।' 'जीवन की तमाम जटिलताओं में जो चुना जा सकता था आसानी से, वह था सिर्फ तुम्हारा नाम। बाद इसके आसान हो गया ये जीवन कि अब न मरना है न ही कोई जीना।' तब लगता है ये शैतान ही है या अपनी ऐन्द्रिक इच्छाओं के ज्वार को पूरी ऊर्जा से बह जाने देने वाला कोई अबूझ इंसान! कि ऐसी कोमल कामनाएँ तो शैतान मन की उपज नहीं हो सकती।

मानो जैसे सुन ली शैतान ने मन में उठी ये बात और लगा देने चुनौती 'और सोचो उसके बारे में, जिसके बारे में मैं बेवजह की बातें करता हूँ, और सोचो कहाँ से आती है इतनी हिम्मत अपना दिल दुखाने की!' हैरत में पड़े हम सोचते रहते हैं ये तमाम बातें जो उसने कहीं, होशोहवास में कहीं या वो कल्पनाओं में गोता लगाकर मोती की तरह निकाली गईं? ये सोच निरंतर एक छलावा बुनता है कि कब वो शैतान का चोला ओढ़ लेता है कब उसे उठा फेंकता है।  

'उदास ही सही मगर चुप बैठे हुए भेजते हैं कुछ कोसने ख़ुद को, तुम न रहो तो ज़रूरी नहीं कि न रहे कोई काम बाक़ी।' इस उलाहने के साथ अपने रंग में आते हुए कहना 'स्याह चादर के नीचे,नीम नशे में तन्हा बेक़रार, बेहिस और बेमज़ा, मैं निष्कासित करता हूँ तुमको आज की रात!' निराश प्रेमी की छवि में देवदास को तलाशते लोग यहाँ बेतरहा चौंक उठेंगें। कथ्य के ये धक्के,धकेलते हुए एक अलग दुनिया में ले जाते हैं।प्रेम के उबड़ खाबड़ रास्ते पर चलते इस राहगीर के लिए सुख 'मुसाफिर की दीवड़ी के पानी की तरह था जो उड़ता ही रहा,दुख मोजड़ी में लगे काँटों की तरह चुभते ही रहे।' 

विरह की आग में अंगार की तरह सुलगकर पूछना 'पता नहीं किसलिए आते हैं दिन, रात बनी है किसलिए,
काश एक तुम न हो तो सवाल भी न रहे' या कल रात तुम्हें शुभ रात कहने के बहुत बाद तक नींद नहीं आई। मैं सो सकता था अगर मैंने ईमान की किताबें पढ़ी होती, मुझे किसी कुफ्र का ख़याल आता मैं सोचता किसी सजा के बारे में और रद्द कर देता तुम्हें याद करना।' लेकिन इन बातों का नायक तो किसी और ही मिट्टी का बना है। 'छू नहीं सकते चूम नहीं सकते कुछ नहीं हो सकता हमारा, बस रुह के प्यार की बातें करते ख़ुद को बहलाते हुए हर रात ख़त्म हो जाता हूँ' उन्मादी आवेगों के अतिरेक से भरा, अपने उद्गारों से झंझोड़ता ये नायक अब तक कविताओं में कहाँ लुका हुआ था?
 
'क्या कुछ नहीं कर सकता स्वर्ग से निष्कासित शैतान! प्रेम में शैतान कितना शैतान बचा रहता है ये केवल शैतान की प्रेमिका के अधखुले होंठ जानते हैं।' इस सबमें एक दिन बीत जाता है तब सोने से पहले शैतान सोचता है यूँ तो कितनी ही बार कुछ याद नहीं आता, मगर कभी-कभी एक नाम कर जाता है कितना तन्हा।' उस क्षण शैतान के साथ चुपके से हम भी उस तन्हाई का हिस्सा हो जाते हैं।

'एक खाली बेंच देखकर उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया। इस बरस दुनिया वो नहीं रही। मैंने कहा अच्छा हुआ वह दुनिया हमारे मन की थी भी नहीं। ऐसी ही बेवजह की बातें सोचता हुआ मैं सो गया। असल बात बस इतनी सी थी कि उसने कल फिर कहा था इस ज़िंदगी में एक बार मुझसे ज़रूर मिलना।'

तब प्रत्युत्तर में कविताओं के नायक का कहना कि मैं तुमसे प्रेम करता हूँ।
मैं तुम तक नहीं आऊँगा।मैं तुमको आवाज़ नहीं दूँगा।मैं एक जुआरी हूँ,
जो तुम्हारी चाल का इंतज़ार करेगा।
तुम आगे होकर चलना।'

किताब का ये अंतिम कथ्य ठीक उसी तरह अवाक छोड़ देता है जैसे पहली नज़र पड़ते ही डेविड अपने समूचे सौष्ठव के साथ स्तब्ध कर देता है।
यही कुल जमा सार है।

बातें बेवजह पर इतनी बातें कर लेने के बाद क्या आगे उपसंहार कहने की कोई वजह बाक़ी रह जाती है?बाद बाक़ी तो मर्ज़ी है आपकी,
आख़िर मन है आपका!
#संझा


[रूपाली नागर संझा - ऑनलाइन डेटिंग अप्रॉक्स 25:35 (उपन्यास), इस पार मैं (कविता संग्रह), पंखों वाली लड़की की उड़ान, दिल की खिड़की में टंगा तुर्की (यात्रा वृतांत)]

July 30, 2022

तुम एक शुक्रिया रहना

माना के तुम साथ नहीं हो 
मेरे दिल के पास नहीं हो, मैंने ये माना
फिर भी आस लगी है दिल में

बादलों से भरी सुबह थी। मैं पुराने बस स्टैंड के कियोस्क के सिलसिले की एक दुकान के आगे बैठा हुआ था। अचानक गीत के ये बोल सुनाई दिए। मैंने अपनी नज़र मोबाइल से हटाई। झीने कपड़े का पजामा और कमीज पहने एक बुजुर्ग उलटे खड़े थे। उनके हाथ में मोबाइल था और ये गीत प्ले हो रहा था।

मैं मुस्कुराया। कवर वर्जन प्ले हो रहा था। ये बहुत छोटा सा पीस है। अभी दो मिनट में खत्म हो जाएगा। मैंने इसे मोबाइल पर सर्च किया। उल्फत से कहा "भाई सुबह-सुबह बाबा ने दिन भर का काम दे दिया है। अब इसे ही सुना जाएगा"

पास में चाय की थड़ी पर डूंगर जी किचन ऐप्रिन पहने चाय उबाल रहे थे। चाय की खुशबू भीगे मौसम में ठहर कर आगे बढ़ रही थी। हेमू अपने काम में खोए थे। रवि दूकान जमाने में लगा था मगर मैं नब्बे के दशक तक लौट चुका था। 

शाहिद कपूर एक कमसिन लड़के की तरह याद आए। एक झबरैला पिल्ला याद आया। एक बेखबर लड़की याद आई। जिसे मालूम न था कि एक लड़का अपनी गुल्लक तोड़ कर उधारी करके भी उसे सबसे सुंदर कपड़े भेंट करना चाहता है। 

डीजे नारायण थे न। वे जो आर्यन बैंड के लीड वोकलिस्ट थे। उन्होंने हाल ही में नौकरी छोड़ी। भारत सरकार के बड़े अधिकारी थे। लॉक डाउन में उनको याद आया कि नौकरी वोकरी ठीक है मगर अपने पैशन को नहीं छोड़ना चाहिए। 

मैं जानता हूं कि ज़िंदगी में सफलता हादसे का नाम होता है। एक बार जो हासिल हुआ, उसे किसी सूरत में दोहराया नहीं जा सकता। 

मैं यूट्यूब पर गीत सुन रहा हूं। उल्फत खोए हुए हैं। मैं समझता हूं कि कोई ज़रूरी बात है मगर सब ज़रूरी बातों का कोई क्या कर सकता है। समय आने पर ठीक होने या भूल जाने के सिवा ज़रूरी बातों का कुछ नहीं किया जा सकता।

सिगरेट का धुआं हल्का है। उमस भारी है। जैसे ज़िंदगी के प्लान हल्के होते हैं मगर उनका एग्जीक्यूशन बहुत भारी होता है। मैं कहता हूं "कितना सुरीला गाया है। दीवाना..." 

किसी रिश्ते में साल दो साल बात नहीं हो, तब मैं बहुत सोचने लगता हूं। चाहता हूं कि आगे होकर आवाज़ दे दूं। मैं जानता हूं एक उखड़ा हुआ जवाब आएगा मगर ये कितना रिलीविंग होगा कि मैं आवाज़ दे सका। मैंने उसे बता सका कि कुछ भी इकतरफा नहीं होता। 

बिना बसों वाले बस स्टैंड पर कारोबार अपनी गति में चलता रहा। मैंने उल्फत से कहा कि ज़रा अपने मोबाइल से इन बा की तस्वीर खींच दीजिए। 

ये यहां काम करते हैं मगर नौकर नहीं है। सुबह अपनी मर्जी से आते हैं। सामान बांधने में मदद करते हैं। कुछ भजन सुनाकर, कुछ हंसी करके ज़िंदगी को ठेंगा दिखाकर लौट जाते हैं। 

ज़िंदगी आपको कुछ भी दिखा सकती है। कुछ भी... आपकी कलगी के सब पंख कब झड़ जायेंगे, ये आप सोच भी नहीं सकते। इसलिए जिस किसी ने आपसे प्रेम किया हो, उसे प्रेम ज़रूर करना। 

बस यही सुख है। शुक्रिया।

June 3, 2022

माया

हेल्युसिनेशन तो माया ही है किंतु एकाधिक अनुभूतियाँ इस तरह गुम्फित होती है कि समझ नहीं आता ये माया, भ्रम, कोरी कल्पना, विभ्रम अथवा कुछ और है। 

बरसों पीछे का फेरा देने के बाद मन दिग्भ्रमित हो जाता है। याद में जो बातें थीं, उनसे अधिक लगभग बेहिसाब बातें फिर से पढ़ लेना एक तरह से ओवरलोड ही जाना था। आधी रात को नींद उचटती। डर लगता कि आह ये कहीं आधी रात तो नहीं। अब नींद न आई तो?

असल में नींद उन जगहों पर पहुंच जाने के स्वप्न से ही चटकती। वे जगहें, जो दशक भर पीछे छूट चुकी। उस समय का अब कोई साथी भी नहीं। वहां तक लौटा जा सकता है, न उस से बाहर आया जा सकता है। 

जीवन के अवसान के बारे में कुछ नहीं सोचता हूँ मगर चीज़ें इस तरह शक्ल लेती हैं कि उनमें उलझा खोया सिहरता रहता हूँ। ये भी बीत गया, वह भी चला गया और जाने कितना बचा है? सन्देह, भय और पीड़ा। बस इतना भर आधी नींद या अधखुली नींद में होता है।

कविता के रूप में कही बेवजह की बातों की तलाश में अतीत में इतना गहरा क्यों उतरा। मैंने एक किताब को शक्ल देने की दोबारा कोशिश क्यों की। ये सोचता हुआ सुबह से पहले के वक़्त में सो जाना चाहता हूँ। शहर की रात गर्म है। एसी की हवा उतनी ही फ़रेबी है जितना कि जिए जाने का यकीन। 

इस तरह के सदमे कितने गहरे होते हैं? ये लिखना मैंने अभी सीखा नहीं है। मैं किसी से कुछ कह देना चाहता हूँ। मैंने किसी से कुछ कह उसके लिए माफी मांग लेना चाहता हूँ। 

सबकुछ माया है मगर मैं बार बार कोशिश करता हूँ कि एक मुलाक़ात हो सके। बस एक। 

May 7, 2022

मिलेंगे किस से?

कि जहां हम खड़े हैं 
यहां से वे दिन, ज़रा से उस तरफ हैं
कि दो कदम पीछे चल सकें तो वहीं पहुंच जाएं।
* * * 

टीशर्ट की सलवट को ठीक करते हुए हमेशा दूसरे टी की याद आई। कि इस समय वह अलमारी में कहां रखा होगा। 

याद एक सहारे की छड़ी बनकर बहुत दूर तक ले जाती।

याद पुरानी होने में बहुत समय लगाती है। याद में सबकुछ थ्रीडी दिखता रहता है। मॉल के चमकदार फर्श में दो लोगों का अक्स। बेशर्मी से मुस्कुराते, तेज़ी से आगे बढ़ते, हथेलियों के बीच किसी बदतमीज बात को सलीके से छुपाए हुए एस्केलेटर से नीचे उतरते हुए भीड़ में गुम होते हुए।

बादल अचानक बरसने लगे। सड़क पर बिखरे पानी के पेच में फिर से दोनों की परछाई एक साथ दिखी। फिर मुस्कुराएं।

मगर याद में अकसर चेहरे पर ठहरी उलझन भी सामने आ खड़ी होती है। कि सारा साथ और सारा झगड़ा, ठीक करने को है या मिटा देने को है। कि ये या वो नहीं सब चाहिए। सब। 

शहर इतने पसरे क्यों होते हैं कि घने बादल क्षण भर में पीछे छूट जाते हैं। दो बहुत दूर के घरों पर खाली आकाश तना रहता है। उनके बीच के आकाश पर बादल छाए रहते हैं। 

कभी बारिश के मौसम में भी रात भर बरसात नहीं होती, अगले दिन क्लास लंबी होती है और शाम तक फुरसत नहीं होती।
* * *

कि दो कदम पीछे चल सकें 
तो वहीं पहुंच जाएं 
मगर मिलेंगे किस से?

May 3, 2022

अतीत कोई मर चुकी शै नहीं है

बहुत नई एक पुरानी बात 

इतना सा लिखकर ड्राफ़्ट में छोड़ दिया था। तीन साल पहले का अक्टूबर महीना था। मैं सोचने लगता हूँ कि क्या बात थी?  मुस्कुराता हूँ। बीत चुकी बात केवल दो काम की ही होती है। एक मुस्कुराने की दूजी सीख लेने की। 

सीखने की बात आते ही मैं मुस्कुराने लगता हूँ कि जीवन में जो काम दिल की खुशी के लिए किया हो, उनसे क्या सीखना। वे तो खुशी के लिए किए काम थे। जैसे जुआ करना, सट्टा लगाना, दोपहरें तम्बाकू के धुएं की छांव में बिता देना, शामें शराब से भर लेना और प्रेम कर बैठना। 

सब ग़लत काम बहुत सही होते हैं।

लू चल रही है। हर दो दिन बाद हीट स्ट्रोक गले लग जाता है। बदन हरारत से भर जाता है। तपिश मुसलसल बनी रहती है। नींद किसी अधबुझी लकड़ी सी लगी रहती है। रह रहकर नींद का झकोरा आता है। ऐसी नीम बेहोश नींद में बेवक़्त के सपने ऐसे आते हैं, जैसे तमाशा दिखाने वाला आधे तमाशे के बाद बात बदल देता है।

जागना नींद से अधिक भारी होता है। ऐसे बैठा रहता हूँ जैसे कुछ सोच रहा हूँ मगर असल में केवल चुप बैठा होता हूँ। एक अधपके पेड़ से अधिक चुप या उदासीन। क़स्बे की सड़कें, चाय की थड़ी, बालकनी से दिखती गली, छत से दिखता आसमान वहीं होंगे। वहीं रहें। 

मैं डायरी पढ़ने लगता हूँ तभी ये एक पंक्ति दिखती है। डायरी में और भी बहुत कुछ लिखा है। एक नया ड्राफ्ट है। इसमें शैतान की प्रेमिका की कविताएं हैं। शायद मैं इन कविताओं को एक फोल्डर में रखने के लिए यहां वहां से खोज रहा हूँ।

उलझे ख़यालों के बीच एक चिड़िया अपनी लंबी तान में किसी से कुछ कहती है। शायद मेरी तरह कोई बेवजह की बात। 
* * *

अतीत कोई ज़िंदा शै नहीं है 
न ही वह मरकर विदा हो चुका है।

वह पास खड़ा है, साथ चलता है
और खुद को बुनता जाता है।
* * *

ये डायरी का पन्ना भी इस क्षण अतीत बनता है। कि जितनी पुरानी वह एक पंक्ति मिली उतनी पुरानी तस्वीर भी। अतीत पक्का है। भविष्य केवल अनुमान भर है।

April 29, 2022

बता दो कि तुम हो।

शराबियों का नियम है 
कि झगड़ना है, हिंसक हो जाना है 
फिर एक दूजे पर गिर पड़ना है। 

प्रेमियों का हाल इनसे भी बुरा हैं। 

~रूमी 
[जलाल उल दीन मोहम्मद रूमी 1207 से 1273 तुर्की]

मेरा हाल इन दोनों से खराब रहता है कि मैं सोशल साइट्स पर एक मुकम्मल ऐंटीसोशल की तरह रहता हूँ। हर जगह हूँ और कहीं भी सोशल नहीं हूँ। 

मेरे फॉलोवर नहीं है। मेरे दोस्त हैं। चाहे वे फेसबुक पर हों, इंस्टा, ट्विटर, ब्लॉगर और भी कहीं हो। मैं उनके संदेशों का, अपनेपन का, प्रेम का जवाब नहीं दे पाता। 
अखरता ही होगा मगर क्या कीजे। 

कोई किताब मंगवाता है तो सूचित करता है। वह अपना प्रिय माध्यम चुनता है। मैं सब प्लेटफॉर्म्स से उकताए हुए रहता हूँ। दोस्तों और पाठकों के मैसेज देखकर बेहद प्रसन्न होता हूँ लेकिन समझ नहीं आता कि उनको जवाब में क्या कहूँ? 

इसलिए शुक्रिया हमेशा समझा जाए। 

बहुत बरस हुए। जाने कितने बरस। लिखने वालों के लिए मेरे भी गहरे सम्मोहन रहे हैं। वे अजीर्ण हैं। किसी आहट, किसी झांक, किसी धुएं की गंध, ऑटो के भीतर तक आती हवा की अनूठी महक, बेजान और रूखी सड़क पर सबसे अधिक आत्मीय यात्रा। माने कुछ भी भूल के हिस्से में नहीं जाता। 

सम्मोहन ठहरे रहते हैं। जैसे किसी ध्रुव पर बर्फ में कोई अहसास रख दिया है। ट्रैफिक सिग्नल की बत्तियां उदास खोई सी खड़ी रहती हैं लेकिन एक नरम दोशीज़ा छुअन मुसलसल बनी रहती है। किस बात की ख़ुशी जब बर्फ सी हवा हो, सूने रास्ते हो और पहुंचने के लिए कोई ठिकाना न हो। 

बस साथ होने की खुशी। 

जीवन इतना भर ही है कि महसूस करो और चुप रहो। अपनी रुचि को जियो, आनंद के अतिरेक तक पहुंचो मगर कुछ कहो मत। बस इतना सा बता दो कि तुम हो। 

मुझे कभी दो लोग शराबी और प्रेमी की तरह याद आते हैं। मैं देखता हूँ कि एक चश्मा प्रेम के नीचे दबकर बिगड़ गया है। 

सोशल एटिकेट्स जाने क्या हैं? मगर मेरे लिए इतना है कि अपना मन बता दो तो अच्छा है, नहीं बताओ तो सुख है। 

शुक्रिया।

April 15, 2022

तस्वीरों में दुःख

मनुष्य को निकट से देखोगे। उसके दुःख को समझने की कोशिश करोगे। उसकी आवाज़ बनोगे तो तुम सच्चे मनुष्य बन जाओगे। 

जीवन तो सबका गुज़रता ही है। 

सोनी ने इस वर्ष के लिए प्रोफेशनल फ़ोटोग्राफ़र ऑफ ईयर का पुरस्कार एडम फर्ग्युसन को दिया है।  
फ़ोटो खींचने की तकनीक में कमाल की प्रगति हुई है। लेंस और बॉडी गुणवत्ता से ऐसी तस्वीरें खींची जा सकने लगी हैं कि हम उन पर सहसा विश्वास नहीं कर सकते। 

इतने क़ीमती कैमरा एडम के पास नहीं थे। उनके पास साधारण कैमरा था। एक ट्राइपॉड और एक केबल। लेकिन महंगे कैमरा वाले फ़ोटोग्राफ़र्स से एक अतिरिक्त चीज़, उनके पास थी। मनुष्यता। 

एडम ने अमेरिका में प्रवेश करने की राह देख रहे शरणार्थियों के जीवन का डॉक्यूमेंटेशन किया था। उन्होंने ज़िंदा रहने के लिए शरण मांगने वाले लोगों के दुःख को, उनके असहाय जीवन को तस्वीरों में उतारा। 

अपने आस पास के जीवन को देखिए। उसकी तकलीफ़ों को लिखिए। हर प्राणी की मदद की सोच रखिये। मनुष्य बनने की ओर बढिए। 

[सूचना स्रोत - रेडिफ न्यूज़]

April 14, 2022

कट ही जाएगा सफ़र

कड़ी धूप के दिन है। मैं छाया में स्कूटर खड़ा किए हुए इंतज़ार कर रहा हूँ। एक बुजुर्ग का हाथ थामे हुए नौजवान मेरे पास से गुज़रता है। बुजुर्ग ऊंची कद काठी के हैं। उनके चेहरे पर न तो बेबसी है ना नाराज़गी। उनके साथ चल रहे नौजवान के हाथ में एक थैली है। एक डॉक्टरी जांच का कोई लिफ़ाफ़ा। 

बा ने पगरखी पहन रखी है मगर नौजवान रबर के स्लीपर पहने हुए है। अचानक उसके पैरों की जलन मेरी पगथलियों को झुलसा गई। 

बेपरवाह रेगिस्तान का जीवन चलता रहता है। 

मेरे फ़ोन में सुबह से मुस्तफ़ा ज़ैदी की कही ग़ज़ल, चले तो कट ही जायेगा सफ़र मुसर्रत नज़ीर की आवाज़ में प्ले हो रही है। मैं हैडफ़ोन उतारकर अपने डाकिया थैले में रख लेता हूँ। हेलमेट उतारते ही पसीना गर्दन को चूमता हुआ कमीज़ के कॉलर तक ढल जाता है। 

रेगिस्तान के लोग आग के फूल हैं। उनका जीवन धूप में खिलता है और उसी में कुम्हला जाता है।

April 9, 2022

रूठी रानी

उमादे उपन्यास क्यों पढ़ना चाहिए? 

रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध उमादे भटियानी के जीवन पर डॉक्टर फतेहसिंह भाटी का उपन्यास पाठकों के बीच है। डॉ भाटी ने इस ऐतिहासिक उपन्यास का शीर्षक उमादे रखा है। 

उमादे केवल रूठी रानी या भटियाणी माने भाटी घराने भर की नहीं है। वह एक सम्पूर्ण स्त्री है। पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था में रूठने की इकहरी छवि में स्मृत की जा रही स्त्री के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को पाठकों के समक्ष रखना इस रचना का उद्देश्य है। 

कथावस्तु-
पंद्रहवीं शताब्दी के पहले दशक से छठे दशक के मध्य की कहानी है। जैसलमेर राजघराने की राजकुमारी उमादे इसका केंद्रीय पात्र है। राव मालदेव के काल को राजपूताने का शौर्यकाल कहा जाता है। उमादे इन्हीं मालदेव की ब्याहता थी। ये उमादे के स्त्री स्वाभिमान, सम्मान और अधिकार की रक्षा की कहानी है। ये उपन्यास उमादे के जन्म से आरम्भ होकर राव मालदेव की मृत्यु पर सम्पन्न होता है। 

चरित्र चित्रण-
उमादे एक स्वाभिमानी स्त्री है। राव मालदेव अत्यधिक भोगविलास में निबद्ध रहने वाला वीर शासक है। भारमली दासी है किंतु असहाय परिस्थिति में भी अपनी राजकुंवरी के लिए अत्यधिक समर्पित है। 

भारमली, बाघा से प्रेम करती है किन्तु दासी होने के कारण किसी प्रकार की पहल नहीं करती। बाघा वीर योद्धा है। वह अपरिहार्य परिस्थिति में धैर्य और वचन से बंधा रहने वाला है। 

राव मालदेव की अन्य रानियां और महल की सेविकाएं अपने-अपने स्वार्थों से प्रेरित कुटिल चालों और षड्यंत्रों में डूबी रहने वाली हैं। 

कथोपकथन-
इस उपन्यास लेखन में यही सबसे कठिन कार्य रहा होगा, जिसे लेखक ने अपने कौशल से सम्भव कर दिखाया है। 

डॉ भाटी के पास इस रेगिस्तानी जीवन के व्यवहार, जीने की जुगत, चालाकियों, धोखों और प्रेम सहित हर कर्म और अनुभूति की भाषा है। वे किसी अनुवाद अथवा कयास पर निर्भर नहीं है। उनके पास प्रामाणिक भाषा है, जिसे उन्होंने खुद जीकर सीखा है। इसलिए पात्रों के संवाद इतने सुघड़ है कि कोई भी पाठक संदेह नहीं कर सकता। 

कथोपकथन में स्त्री मन के अनेक रूप लेखक के लिए चुनौती है। रानियों का पदानुक्रम है, दासियों की अनकही पीड़ा और लालच हैं। माने हर स्त्री के मन के अनुरूप संवाद रचना लेखक का अपरिमित धैर्य से लिखने का हुनर है। 

देशकाल-
कथानक में पाठक स्थान, भूगोल, प्रकृति, शहर-कोट रचना, महल विन्यास आदि व्यापक रूप में उपस्थित है। पाठक कथा पढ़ते समय घटना के साथ चलता है। लेखक एक पूरा वातावरण रचते हैं, जो कि अत्यन्त हृदय को बांधने वाला है। कुछ एक बार वातावरण की अप्रतिम रचना के कारण पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 

भाषा शैली-
ऐतिहासिक उपन्यास कहन की शैली प्रथम दृष्टि में उबाऊ समझी जाती है। लेकिन उमादे की शैली द्रुतगति से घट रहे इतिहास को साकार करती है। राजमहलों की कुटिल चालों, प्रेम की गहरी छवि, कामक्रीड़ा के श्लील चित्र और युद्धों का वीभत्स और हृदविदारक दृश्य पाठक सहज अनुभूत कर सकता है। 

भाषा सरस है। शैली में बातपोशी का हल्का पुट इसे और अधिक मीठा बना देता है। 

उद्देश्य-
एक स्त्री की इकहरी अल्पांश स्मृति को उसके सम्पूर्ण व्यक्तित्व के साथ उकेरना। ये प्रत्येक स्त्री के सम्मान और अधिकार के पक्ष में बोलना है। 

आप इस उपन्यास को मंगवाईये। पढ़िए। आपको इसमें वह दिखेगा, जो पुरुष दम्भ की झूठ की पताका के नीचे दबे सच को उद्घाटित करता है। जो स्त्रियों के अनगिनत दुखों का हरम हैं। वे दुःख  जो कभी-कभी तपकर इतने कड़े हो जाते हैं कि उनको छूने से कुछ भी जल सकता है। अहंकार भी। 

उपन्यास के प्रकाशक हैं भारतीय ज्ञानपीठ। 
* * *

तस्वीर उपन्यास लेखक डॉ फतेह सिंह भाटी की है।

April 7, 2022

चंद तस्वीरें बुतां

एक शेर को लेकर कुतूहल हुआ। मैंने उसके लिए कुछ खोजबीन की लेकिन नाकामी हाथ लगी। एक तो उर्दू का अलिफ बे नहीं आता। दूजा लिपि से पूरी तरह अनभिज्ञ, इसलिए दोनों शेर लिखकर पोस्ट कर दिए। 

कुछ उर्दूदाँ मेरी पोस्ट पढ़कर इधर आते तब तक डरे-डरे मन से रेख़्ता में झांका। उर्दू कविता को सहेजने और लोकप्रिय करने का काम करने वाली इस वेबसाइट का मानना है कि बज़्म अकबराबादी का कहा शेर इस तरह है- 

चंद तस्वीरे बुतां चंद हसीनों के ख़ुतूत 
बाद मरने के मेरे घर से ये सामां निकला। 

पर्शियन भाषा के एक उस्ताद ने लिखा है कि चंद तस्वीरें बुतां शेर एक प्रसिद्ध शायर के नाम मढ़ दिया गया है। उनका इशारा मिर्ज़ा ग़ालिब की ओर है, ऐसा मुझे लगता है। 

वे सज्जन एक बहस में कह रहे हैं कि बज़्म अकबराबादी के शेर को बदल कर ये शेर कहा गया है। उनका कहना है कि बज़्म अकबराबादी का शेर ये है- 

इक तस्वीर किसी शोख़ की और नामे चंद 
घर से आशिक़ के पस-ए-मर्ग यही सामां निकला। 

थोड़ी सी देर में एक दोस्त का मैसेज आ गया। उनका कहना है कि ये मिर्ज़ा साहब की भाषा और सलीका नहीं है। इसके साथ ही उन्होंने वह ग़ज़ल भी भेज दी, जिसमें इस शेर को शामिल समझा जाता है। 

शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला 
क़ैस तस्वीर के पर्दे में भी उर्यां निकला 

ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की या रब 
तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पर-अफ़्शाँ निकला 

बू-ए-गुल नाला-ए-दिल दूद-ए-चराग़-ए-महफ़िल 
जो तिरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला 

दिल-ए-हसरत-ज़दा था माइदा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द 
काम यारों का ब-क़दर-ए-लब-ओ-दंदाँ निकला 

थी नौ-आमूज़-ए-फ़ना हिम्मत-ए-दुश्वार-पसंद 
सख़्त मुश्किल है कि ये काम भी आसाँ निकला 

दिल में फिर गिर्ये ने इक शोर उठाया 'ग़ालिब' 
आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला 

कार-ख़ाने से जुनूँ के भी मैं उर्यां निकला 
मेरी क़िस्मत का न एक-आध गरेबाँ निकला 

साग़र-ए-जल्वा-ए-सरशार है हर ज़र्रा-ए-ख़ाक 
शौक़-ए-दीदार बला आइना-सामाँ निकला 

कुछ खटकता था मिरे सीने में लेकिन आख़िर 
जिस को दिल कहते थे सो तीर का पैकाँ निकला 

किस क़दर ख़ाक हुआ है दिल-ए-मजनूँ या रब 
नक़्श-ए-हर-ज़र्रा सुवैदा-ए-बयाबाँ निकला 

शोर-ए-रुसवाई-ए-दिल देख कि यक-नाला-ए-शौक़ 
लाख पर्दे में छुपा पर वही उर्यां निकला 

शोख़ी-ए-रंग-ए-हिना ख़ून-ए-वफ़ा से कब तक 
आख़िर ऐ अहद-शिकन तू भी पशेमाँ निकला 

जौहर-ईजाद-ए-ख़त-ए-सब्ज़ है ख़ुद-बीनी-ए-हुस्न 
जो न देखा था सो आईने में पिन्हाँ निकला 

मैं भी माज़ूर-ए-जुनूँ हूँ 'असद' ऐ ख़ाना-ख़राब 
पेशवा लेने मुझे घर से बयाबाँ निकला। 

बज़्म अकबराबादी के बारे बहुत कम जानकारी मिल पाती है। उन्होंने बहुत सारे मर्सिया लिखे हैं। उनको एक वेबसाइट ने पीडीएफ फॉर्मेट में अपलोड किया हुआ है। 

धन्यवाद।

March 21, 2022

बहुत निकट का भ्रम

जिसे हम बहुत क़रीब समझते हैं 
उसे तकनीक ने हम से दूर कर दिया है। 

कल शाम व्हाट्स एप के स्टोरी सेक्शन में गया। पचास साठ कॉन्टेक्ट्स की स्टोरी देखी। चार-पांच दोस्तों को रिएक्ट कर दिया। 

एक रिएक्ट से कितनी ही बातें सामने आ खड़ी हुई। एक का मालूम हुआ कि बीमारी ने इस तरह घेरा की मौत को महसूस कर लिया। एक उदासी की रेखा के पार हताशा से भरी हुई थी। एक मित्र की पार्टनर गहन स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्या से जूझ रही है। एक ने बताया कि सब ठीक है। इसके आगे कहा "बस चल रहा है" 

ये कौन लोग हैं, जिनके हाल से मैं अनजान था। ये रेडियो में वार्ता के लिए आने वाले, संगीत के कलाकार, मेलों में मिले पुस्तक प्रेमी, सफ़र में एक्सचेंज हुए फ़ोन नम्बर या ऐसी ही किसी लघुतम भेंट से परिचित। 

नहीं! ये दोस्त हैं। हमने बरसों एक दूजे को जाना-समझा, महसूस किया। हम मिले, साथ बैठे, गप लगाई। वक़्त बेवक़्त मैसेज किए, लंबे फ़ोन कॉल्स किए। अपने काम और परिवार के बारे में बातें की। बच्चों की चिंता और खुशी बांटी। हर बार उलाहने दिए कि मिले हुए कितना समय हो गया है। 

और फिर चुपचाप सब उजड़ गया। 

अचानक हम फेसबुक पोस्ट, व्हाट्स एप स्टोरी और इंस्टा की रील्स में कहीं खो गए। हमारे वे दिन, वे बातें, वे मेल्स, वे ब्लॉग और लिखने पढ़ने की तक़रीरें गायब हो गई। हम एक-दूजे के सुख-दुख से अनजान हो गए। 

कल स्टेटस देखने से मालूम हुआ कि विश्व गौरैया दिवस है। आज सुबह घर के आंगन में चिड़कलियों का उधम चल रहा था। ये हर सुबह शाम होता है। 

हमने कुछ मिट्टी से बने चिड़ियाघर लगाए थे। उनमें केवल दो में चिड़िया रहती हैं। बाकी खाली लटके रहते हैं। यानी चिड़ियों को वहां सुरक्षा का अभाव लगा। वे अपने लिए सही जगह चुनना जानती हैं। 

आंगन में बेरी का पेड़ है। मित्रों-परिवारजनों ने कई बार कहा, इसे कटवा दीजिये। बेरी शुभ नहीं होती। 

बेरी पर बेहिसाब बेर आते हैं। वे सब कच्चे ही रहते। उनको गिलहरियां कुतरती रहती हैं। चिड़ियाँ घोंसला बनाने को तिनके लाती हैं। वे बिखरते रहते। बेरी के नीचे हर रोज़ कचरा होता। वह पूरे आंगन में उड़ता रहता। 

एक रोज़ शिकरा आ गया था। वह छोटी चिड़ियाँ और कबूतर का शिकार करता है। वह बेरी के भीतर नहीं जा पाता। वह बहुत देर बेरी के बाहर बैठा रहा। चिड़ियाँ बेरी की भीतरी शाखाओं पर चुप बैठी रही। शिकरा उड़ गया। चिड़ियाँ फिर से फुदकने और चहचहाने लग गई। 

बेरी से कांटे झड़ते हैं मगर वह किसी के लिये सुरक्षा की जगह है। इसलिए नहीं काटी जा रही। ऐसा सौंदर्यबोध भी किस काम का जो उपयोगिता को समाप्त कर दे। 

बेरी के पास एक जामुन और एक आम खड़ा है। वे दोनों सीधे सरल हैं। उन पर फल आएंगे। लेकिन क्या सिर्फ जो दे उसी के लिए दुनिया में जगह बचेगी। बाकी सब को हटा दिया जाएगा? 

दोस्तो से बात करते रहो। तकनीक ने इनको चुप्पा और अकेला कर दिया है। 

मैंने इसे गंभीरता से महसूस किया है। सोशल साइट्स अति हैं। वे निरन्तर विषाक्त करती हैं। इसलिए मैंने सोशल साइट्स से खुद को समेट लिया है। फेसबुक का प्रोफ़ाइल बन्द कर दिया। व्हाट्स एप और इंस्टा को फ़ोन से हटा दिया। ताकि मैं दोस्तो और परिवार से बात कर सकूं। कॉल किए जा सकें। वह कहने-सुनने की जगह बन सके, जो हम प्रिय के साथ ही बांटना चाहते हैं। 

किसी को अचानक कॉल करना असहज हो सकता है मगर किसी एप पर देखने और आगे बढ़ते जाने की जगह कॉल करना अच्छी बात है।

March 20, 2022

कि सोचना खुद एक गुंजलक शै हो चुकी

और कितना लड़ना चाहिए। 

बरस भर में कई बार लड़ चुका हूँ। हालांकि ये लड़ाई किसी से कही जाए तो वह कहेगा धत्त! इसे भी भला कोई लड़ाई कह सकता है। 

त्वरित घटित होने वाली घटनाओं का एक दौर हुआ करता है। आह, ओह, आहा, सचमुच, यकीन कर लें, ये भी होना था, सोचा नहीं था। इस तरह सब कुछ इतना तीव्र घटता है कि आगे के सामान्य समय की चाल शिथिल और उदासीन जान पड़ती है। 

एक ठहरा हुआ खाली समय। 

मैं तम्बाकू के अधीन नहीं था। मेरा मन किन्ही झंझावतों से घिरा हुआ था। एक क्षण बाद लगता कि अगला काम करने से पहले सिगरेट फूंक ली जाए। मैं तन्हा खाली कमरे की ओर जाता। सिगरेट फूंकता। 

चारपाई से उठने से पहले सोचता कि एक और सिगरेट का धुआं खींच लिया जाए। अब तक का धुआं कम लग रहा है। दूसरी सिगरेट जलाता। अकसर ऐसा होता कि दूसरी सिगरेट के बाद मैं चारपाई पर आधा लेट जाता। खिड़की और दरवाज़े से दिखते अरावली के पहाड़ों के टुकड़े देखता। 

काम फिर भी शुरू नहीं होते। कैसे तो काम, जैसे नहा लो, कपड़े पहन लो, अपना थैला लो, पेन पेंसिल चेक करो। स्कूटर पर बैठो और दफ़्तर चले जाओ। नहाना स्थगित रहता। आगे के काम स्वतः रुके रहते। 

भूख लगती तो आधा घंटा उलझा रहता कि अगर कुछ खा लिया तो नहाया कैसे जायेगा। इसका हल होता कि चलो एक सिगरेट फूंक ली जाए। मैं फिर छत पर बने उसी कमरे में बैठा होता, जहां से अभी कुछ देर पहले नीचे आया था। 

यह एक स्थाई प्रक्रिया हो गई थी। इस के कारण सिगरेट से ऊब होने लगती थी। मुझे कई बार लगा कि "फाइन टोबेको" के कारण बार-बार सिगरेट फूंक रहा हूं। मैं सख़्त तम्बाकू वाली सिगरेट ले आया। दो सिगरेट फूंकने के बाद अजीब सा हाल हो जाता कि न सिगरेट भली लग रही है न कोई काम हो रहा।

रोज़ याद आता कि सिगरेट वजह नहीं। सिगरेट तो एक जरिया है, वजह से उपजी उलझन के दबाव को भूलने का या स्थगित करने का। तो क्या करें? वजह तलाशें। 

वजह मामूली सी मिली। एक हड़बड़ी भीतर घुस कर बैठ गई है। जीवन के तेज़ी से बीतने का उतावलापन घर कर गया है। घर से बाहर न जाने की इच्छा काई की तरह दिल पर जम गई है। कुछ लिखने-पढ़ने के प्रति ऊब सनातन सी हो गई है। 

तो क्या करें? चलो सिगरेट फूंकते हैं। 

मैं थक गया। ये एक कुचक्र था। धुआं मेरी सांस लेने की आसानी को बरबाद कर रहा था। जनवरी की एक सुबह मैं जल्दी से चार सीढियां चढ़ा। इसके बाद कुछ बोलना था। मैं बोलने के लिए संघर्ष करने लगा। पचास सैकेंड बोलना किसी महायुद्ध से कम न था। 

मुझे याद आया कि मैं सिगरेट ख़त्म हो जाने और रोल्ड सिगार का चूरा बनाता और उसको पाइप में भरता। फिर अफ्रीकी तम्बाकू का धुआं मेरे मुंह मे सैंकड़ों कांटे भर देता। मुझे लगता कि हर कहीं चुभन हो रही है। कसैलापन इतना बढ़ जाता कि मैं वाशबेसिन की ओर जाता। लेकिन थोड़ी देर भन्नाया हुआ दिमाग और चेहरे पर पड़े पानी के छींटे अच्छे लगते। 

मुझे अपनी चिंता हुई। अजानी उलझनें या जानी हुई उलझनों से मुंह फेर कर धुआं निगलते जाना, आत्मपीड़ा का पोषण करना था। किसी रोके जा सकने वाली प्रक्रिया को धुएं से ढकना। निरी मूर्खता थी। मैं इसी में जी रहा था। 

कुछ बरस तक लगातार ऐसा जीवन जीना कैसा होता है, मैं जानता हूं। 

दो सप्ताह पहले एक सुबह उठा तब मैंने याद किया कि दस बरस लगातार तम्बाकू फूंकने के बाद दस बरस के लिए मैं उस से दूर ही रहा। लेकिन तम्बाकू से प्यार था न। 

मुझे तम्बाकू के स्वाद से कोई समस्या नहीं थी। मुझे निकोटिन से मिलने वाले अस्थाई हाई से खुशी थी। लेकिन दो अलग चीज़ें मिलकर विषाक्त हो गई थी। एंजाइटी और निकोटिन अलग ही भले थे। 

अल्कोहल के साथ कभी ऐसा नहीं हुआ। मैं जब भी उदासी की पदचाप सुनता सबसे पहले अल्कोहल से दूर हो जाता। ये एक पुराना अनुभव था कि एल्कोहल को ड्रॉप करने से मैं एंजाइटी से जल्द बाहर आ सका था। 

उस सुबह मैं इन दो चीज़ों को अलग कर देना चाहता था। अवसाद अपने आप में एक नशा है। इसलिए इसके साथ कोई दूसरा नशा नहीं मिलाना चाहिए। 

मैं कहां उदासीन होता हूं। किस जगह आकर लगता है कि सम्बंध का किनारा आ गया है। कहां भूलना समझा जा सकता है। ये सब सोचने से परे रहता है। कि सोचना खुद एक गुंजलक शै हो चुकी है। 

कुछ भी साबुत नहीं बचा है मगर दाएं बाएं ठोकरें खाते हुए जीवन चलता रहता है। कभी-कभी सपना आता है। मैं तम्बाकू फूंक रहा हूँ और ऐसा करते हुए किसी प्रिय ने देख लिया है।

तस्वीर गुड़गांव में ली गई थी। जिसे गुरुग्राम लिखा कहा जाने लगा है।

January 11, 2022

अपने लिखे में ढल जाना

शाम ढ़लने के समय कोई छत से पुकारता है। मैं अजाने सीढियां चढ़ने लगता हूँ। छत पर कोई नहीं होता। पुकारने वाला शायद उस ओर बढ़ जाता है, जिधर सूरज डूब रहा होता है। 

पश्चिम में पहाड़ पर जादू बिखर रहा होता है। उपत्यका में रोशनियों के टिमटिमाने तक मैं डूबते हुए सूरज को देखता रहता हूँ। किसी सम्मोहन में या किसी के वशीभूत। 

अचानक मन शांत होने लगता है कि क्या करूँगा वहां जाकर जहां से लौटना ही होगा। मैं कभी सिगरेट सुलगाता हूँ कभी चुप बैठे सोचता हूँ कि अब तक कितनी बर्फ गिर चुकी होगी। 

एक कहानी कही थी 'एक अरसे से', कहीं मैं उस कहानी के नायक में तो नहीं ढल गया। मैं बदहवास सीढियां उतर कर उस किताब को खोजने लगता हूँ ताकि अपनी कही कहानी का अंत पढ़ सकूँ।

January 9, 2022

शायद प्रेम हाथी होता है

 हाथी एक भद्र व्यक्तित्व है।

~रुडयार्ड किपलिंग 

हाथी चला जा रहा था। सुबह साढ़े नौ बजे एफसीआई के सामने था। दोपहर दो बजे स्टेशन रोड पर था। उसके पिछले कूल्हों पर फूल उकेरे हुए थे। उसके पांव कीचड़ से सने थे। उसका एक दांत बेढब था। 

उसकी पीठ पर एक मामूली हौदा था। हाथी की बेबसी की शक्ल का हौदा। हौदे के गद्दी तो थी मगर उसकी पुश्त न थी। हौदे की गायब पुश्त की तरह हाथी की पुश्तें कहाँ छूट गई थी, ये जानना असंभव था। 

हाथी की चाल चलने की बात याद आई। मैंने ठहर कर देखा कि हाथी कैसे चल रहा है? उसकी मद्धम लय क्या कोई स्थायी चाल है? शायद नहीं। मैंने कहीं आवेशित या आक्रोशित हाथियों को भी देखा था। इसलिए ये कहना ठीक है कि हाथी की चाल मतवाली होती है लेकिन ये कोई स्थायी बात नहीं है। 

हाथी की याददाश्त के बारे में कहीं पढा था। वे बचपन की बात और रास्ते को बुढ़ापे तक नहीं भूलते। हाथी की दुर्लभ इच्छा के बारे में जाना कि वे अपने पूर्वजों की जगहों पर जाना चाहते हैं। वहां जाकर अक्सर गंभीर हो जाते हैं। वे उनके होने की स्मृति को बार-बार जी सकते हैं। यही अद्भुत है। 

मैंने दस बारह बरस की उम्र में पहली बार हाथी देखे थे। रेलवे स्कूल के रास्ते में एक मैदान में खड़े नीम के बड़े पेड़ के नीचे बैठे या लेटे हुए थे। वे गोबर के बड़े पिण्डारे जैसे दिख रहे थे। मुझे उनके पास जाने की उत्सुकता नहीं हुई। मैंने अपना बस्ता सम्भाला और घर की ओर बढ़ गया। 

इसके बाद आगे के जीवन में बार-बार ख़बरों में हाथी पढ़ने को मिले। वे उद्दात थे, उनमें आवेश था, वे मद से भरे थे, उनमें सहवास करने का पागलपन था। वे आदमियों को चींथ रहे थे। वे बेतहाशा भाग रहे थे। वे रास्ते में आई किसी भी चीज़ को ध्वस्त कर रहे थे। 


हाथी उतने ही भद्र रहे होंगे जितना कि प्रेम होता है। शायद प्रेम हाथी ही होता है। 

* * * 

आज दोपहर स्टेशन रोड बाड़मेर पर एक बंदी हाथी।

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर ...