गर्म दिनों की ख़ुशबू
चेहरा गहरा तांबई हो गया है। लू ने मोहब्बत करने में कोई कसर नहीं रखी। भर भर बाहों में दुलार किया।
कोई एकतरफा बात नहीं थी। गर्मी की खुशबू कमरों के भीतर तक आती। उकसाती रहती क्या भीगे फाहे बने सोफे में धंसे हो।
कोई बुलावा है भी कि नहीं, जायेंगे तो कहां, रुकेंगे तो किधर, देखेंगे तो क्या। मगर उकसा हुआ दिल नहीं संभलता।
मोड़ी हुई आस्तिनें, भीगी पीठ से चिपका कमीज, जींस पर उभरते गहरे पेच से बे ख़बर कस्बे के रास्तों पर। दुकानों के आगे ढके हुए छपरों के नीचे बैठे पीछे छुपे हुए। चाय वाले का इंतज़ार करते हुए। मोहब्बत आंखें मूंदे मुस्कुरा रही होती।
लू की थकान इस दुनिया की सबसे गहरी थकान होती है। लू बदन को सिर्फ सोखती ही नहीं, वह गहरी कसक से भी भर देती है। जैसे खुशी खुशी बहुत सताया हो और फिर अचेत अलसाए पड़े हों।
किसलिए इस तरह भागना था। किस देस पहुंचना था। किस से गले मिलना था। किसको कहना था कि इस ज़िंदगी के लाख शुक्रिया हैं। हमने इसे हर तरह बर्बाद किया मगर ये हमारा हाल देखकर हमीं पर मुस्कुराती रही।
थोड़ी सी बर्फ, कागज़ का गिलास, थोड़ा सा सोडा और नींबू। उठते हुए बुलबुले देखें तो वे पलकों की ओर उछल उछल कर आने लगते। अचानक याद करना कि दिल सुकून वाला मिला होता।
घर में बिस्तर पर पड़े होते। कुछ पानी के रंग उकेरते, कुछ नए लोगों के गीत सुनते। कुछ पुरानी तकलीफों पर मुस्कुराते।
अचानक पाता हूं कि एसी पर एक नन्हीं तितली बैठी है। शायद वह उड़ेगी या शायद एक स्मृति हो चुकी होगी।
दिखने में और होने में कितना सारा फर्क होता है। बंद कमरे में गर्मी दिखती नहीं मगर कूलर के पास छूटी झिर्री से आता है कोई झौंका। बेहद पतली लकीर जैसा झौंका।