पत्ता टूटा डाल से ले गयी पवन उड़ाय अबके बिछड़े नाहीं मिलें दूर पड़ेंगे जाय. ~ कबीर मन शिथिल, उदासीन, बदहवास, गुंजलक. महीनों उलझनों से घिरा. नासमझी से भरा. बीतते दिनों से बेपरवाह. ठहरी चीज़ों से अनजान. दीवार हुआ मन. आंधी का भंवर. सूखी नदी से उड़ती धूल सा मन. कितनी ही जड़ें उग आई होगी. कितनी ही शाखाएं उलझ पड़ीं थीं. क्या मन के भीतर आने के चोर रास्ते होते हैं? क्या कोई बेशक्ल चीज़ मन पर एक उदास छाया रच देती है. अक्सर समझ नहीं आता. क्या हम कभी इस सब को समझ सकते हैं? मगर समझें क्या? वो कहीं चुभता दिखे. वह गिरह कसती हुई सामने आये. वो साँस तड़प कर किसी का नाम ले. मगर कुछ नहीं मालूम होता. आज सुबह अचानक सबकुछ हल्का हो गया. सोचा कल की रात क्या गुज़रा था? क्या सुना-कहा था? क्या जीया था? इस खोज में कुछ भी बरामद नहीं होता. कोई शक्ल, कोई आवाज़, कोई छुअन याद नहीं आती. फिर ये क्या है कि बोझा गायब जान पड़ता है. मन खुली हवा में ठहरा हुआ. मन बेड़ियों से आज़ाद. मन अपने प्रवाह की लय में लौटता हुआ. बोगनवेलिया से अनगिनत पत्ते रोज़ झड़ते हैं. रोज़ कोई बुहार देता है. लेकिन किसी रोज़ मन उनको खोज लेता है. उस...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]