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Showing posts from July, 2020

इक सिहरन

सर्द रात में बेहद ठंडे लिहाफ के भीतर शैतान पूछता है, अब चूम लें? लिहाफ में कोई नहीं होता शैतान के सिवा। उसकी पीठ के पीछे खड़ी कमसिन लड़की शाम ढलने से पहले जा चुकी होती है। शैतान जिसे अपनी प्रेमिका नहीं कह पाता। शैतान मुस्कुराता है उसके होने के लिए, उसका होना ज़रूरी नहीं है। * * * कितने बदन कितने अवसर कितनी जगहें थीं। शैतान को कुछ याद नहीं सिवा इसके कि उसने कहा था सब पूछ कर करोगे? जबकि शैतान कुछ न करता था न प्यार, न इंतज़ार। * * * कितने ही झूठ बोले कितने ही बहाने बनाये कितना ही यकीन दिलाया। मगर शैतान को कोई असर न था कि वह जानता था सबकी अपनी एक ज़िन्दगी होती है। वो ज़िन्दगी जिसमें किसी के साथ सोना गुनाह गिना जाता है। * * * अगर शैतान उसे कह देता अगर शैतान उससे पूछ लेता कि प्रेम के बारे में क्या ख़याल है? इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता न वह कह पाती, न शैतान उसका नाम पुकार पाता। * * * शैतान ने कहा हवस पर प्रेम का वर्क अच्छा नहीं होता इससे दोनों का लुत्फ़ मर जाता है। * * * काश कि वह अभी तक सोई न हो काश कि वह सोच रही हो कि शैतान से कभी न कहूंगी कि प्यार है। * * * शैतान की प्रेमिका कोई वैद्य ही होगी इसलिए कि

कभी दूर तक साथ पैदल चलने

कुर्सी पर बैठे, आंगन में पैर फैलाये बेसबब आसमान देखते जाना। कभी बहुत महीनों बाद कहीं जाने का सोचना। किसी मुलाक़ात का ख़याल आना। कहीं होकर कहीं न होना सोचकर मन मुस्कुराते जाना। कहीं संजीदा शाम गुज़ार देने, कभी दूर तक साथ पैदल चलने और कभी अब तक का सबकुछ भूल जीने का ख़याल कितना अच्छा होता। रात देर तक जागना। सुबह अलसाये पड़े रहना। लेकिन कभी-कभी वक़्त इस तरह ठहर जाता है जैसे किसी पुरानी तस्वीर के सामने खड़े हो गए हैं।

जालीदार रोशनी के पास

आंखों के आगे एक स्याह पर्दा खिंच जाता। इसके क्षणभर बाद रोशनी की लकीरें उग आती। ऐसा होना बहुत जादुई था। आंखों को सबकुछ साफ दिखने लगे, उससे पहले मैं आंखें बंद कर लेता था। बंद आंखों में मुझे पत्थर पर नक्काशी से बनाई गई जाली से छनकर आती रोशनी दिखती थी। दरीचे के भीतर कोई बैठा दिखता था। उस स्याह परछाई पर जहां रोशनी गिरती वह देखकर लगता कि यहां कोई बैठा है। उसका होना ऐसा होता कि जैसे अंधेरे की अनेक पतली बीम बदन के पार निकल रही है। परछाई कोई ऐसा आदमी या औरत है, जिसके बदन में अनेक सुराख हैं। अगर उनमें से किसी भी एक सुराख से भीतर जाय जाए तो सम्भव है, वहां अनेक रास्ते हैं। मैं उसके क़रीब जाने को बढ़ता हूँ तो हर कदम पर उसका आकार बदलता जाता है। रोशनी में चमकते बदन में स्याही के सुराख अपनी जगह बदलने लगते हैं मगर उसे कुछ नहीं होता। वह परछाई स्तब्ध कर देने जितनी स्थिर रहती है। उसे इतना स्थिर जानकर मैं सहमने लगता हूँ। एक दीवार का सहारा लेकर खड़ा होता हूँ और सोचता हूँ कि उसके बदन को कौन जाहिर कर रहा है। स्याही या रोशनी? अगर केवल स्याही होती या केवल रोशनी होती तो क्या मैं उसे देख सकता था। शायद नहीं। इसलिए कि

भूलने का सबसे बढ़िया तरीका

मैं एक बेचैन आदमी था इसलिए एक अच्छा जुआरी था। जुआ में कोई जीतता नहीं था एक दिन सब हार जाते थे। हर बार हारकर मैं जुआरी, सोता था ये तय करके कि अब कभी कोई जुआ न करूँगा मैं जागते ही जुआरियों को ढूंढने लगता था। मुझे मेरा अंजाम मालूम था एक दिन चौपड़ के बाहर पड़ा होऊंगा घिसे हुए पासे की तरह फटे ताश के पत्ते की तरह। लेकिन जुआ ज़िन्दगी को भूलने का सबसे बढ़िया तरीका है यही सोचकर कभी कोई अफ़सोस न हुआ। * * *

किसी अनिच्छा की तरह

जैसे पानी में छपाक की आवाज़ से अक्सर डर जाता हूँ और फिर किसी को तैरते देखकर अविराम उसे देखता रहता हूँ। दोपहर को झड़ते धूप के फाहे फूल हुए जाते थे। ये ऐतबार करने की बात न थी मगर बात तो यही थी। हर बार अचम्भे के पास शब्द नहीं होते। केवल एक विस्मित दृष्टि होती है। कभी-कभी अचम्भे के बाद उड़ते पंछियों के शोर से आकाश भर उठता है। सूने मकान की तरह जीवन, समय को बीतते हुए देखता खड़ा रहता है। खिड़कियों और खुले आलों से हवा बिन बोले बहती रहती है, उसी तरह समय गुज़रता है। एक ठहराव किसी अनिच्छा की तरह स्थायी घर लेता है। जीवन की अलमारियों की दराज़ों से चाहना गुम हो चुकी होती है। कभी विस्मय का अंकुरण हो जाता है। इसलिए कि ठहरा हुआ कुछ भी नहीं होता लेकिन हमेशा लगता है कि सब कुछ ठहर गया है। एक ऊब है, जिसने स्थायी घर कर लिया है। रंग घुलते जा रहे हैं मगर नया रंग नहीं दिखता। दोपहर में कोई छींटा गिरता है तब महसूस होता है कि ठहरा हुआ कुछ न था। एक निश्चित गति से सब बदल रहा था। अवसाद, निराशा, हताशा की सघन स्याही छंट रही होती है मगर समझ नहीं आता। असल में जीवन एक शिकारी है। वो घात लगाए किसी आड़ में हमारा इंतज़ार करता है। अचा