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Showing posts from April, 2018

टला हुआ निर्णय.

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टाटा स्काई वाले बार-बार फोन कर रहे हैं. नाम पूछते हैं फिर पूछते हैं क्या आपसे बात करने का ये सही समय है? मैं कहता हूँ नाम सही है और बात करने का सही समय रात नौ बजे के आस-पास होता है. इतना सुनते हुए उधर क्षणांश को चुप्पी छा जाती है. मैं बोल पड़ता हूँ- "फिर भी बताएं क्या कहना चाहते हैं?" एग्जीक्यूटिव कहता है- "आपका लॉन्ग ड्यूरेशन पैक ड्यू हो गया है. क्या आप इसे कंटिन्यु करेंगे?" मैं कहता हूँ- "भाई नहीं करना"  "क्यों?"  "महंगा बहुत है."  "सर कोई दूसरा देख लीजिये."  "नहीं भाई बड़े पैक लेकर देखे बारह हज़ार में भी सब चैनल पर रिपीट टेलीकास्ट होता रहता है." "सर आप क्या देखना चाहते हैं"  "बीबीसी अर्थ देख रहा था दो महीने में ही उनके प्रोग्रेम खत्म हो गए. अब वही रिपीट"  "सर कंटिन्यु करेंगे?" "नहीं पैसे ज़्यादा हैं और चैनल बोर हैं" "सर प्लान तो ये ही हैं"  "भाई बहुत सारे चैनल बहुत कम पैसों में दिखाओगे तो बोलो" मेरे इतना कहते ही दुष्यंत मेरी तरफ

पोटाश बम

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उसकी निकर की जेब में कुछ रखा था. "कंचे है?" ऐसा पूछते ही बोला- "नहीं. उधर चलते हैं." दोनों लुढ़कती सायकिल पर इस तरह सवार हुए जैसे कड़ी में पाँव फंसाकर घोड़े की जीन पर बैठ रहे हो. ढलान में सायकिल घने बबूलों के पार आबादी से दूर तक जाती थी. सीढियों से घिरे मैदान में पसरी हुई धूप में कोई परिंदा भी नहीं दिखता था. दोनों वहां आकर सीमेंट के चबूतरे जैसे मंच के पास खड़े हो गए. उसने अपनी जेब से दो छोटी गोलियां निकाली. एक को हाथ से थोड़ा सा सहलाया और फिर ज़मीन पर मारा. छोटा धमाका हुआ लेकिन खाली मैदान में उसकी आवाज़ गूंजने लगी. परिंदे जाने कहाँ छिपे बैठे थे कि अचानक रेत के मैदान पर छायाएं तैरने लगीं. आकाश में बहुत सारे परिंदे उड़ रहे थे. उसने कहा- "तुम फोड़ो" कपड़े की बेहद छोटी कंचे जितनी गेंद में कुछ बंधा हुआ था. उसे सीमेंट के फर्श पर पटका तो फिर वही धमाका हुआ. "ये तुमने बनाया है?" "हाँ" "कैसे?" "पोटाश से"  "वो क्या होता है?" "बारूद"  "बारूद तो बहुत बड़ी चीज़ होनी चाहिए जो सब कुछ उड़

कांच के टुकड़ों की खेती

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एक सहकर्मी थे. उन्होंने रेडियो कॉलोनी में आवंटित मकान के पीछे खाली छूटी हुई ज़मीन पर फल और सब्ज़ी के लिए क्यारियां बना ली थीं. प्रेमपूर्वक देखभाल करते. रेगिस्तान में पानी की कमी के बावजूद अपनी क्यारियों के लिए जितना संभव होता उतना पानी उपयोग में ले लेते. कभी-कभी कॉलोनी के पड़ोसी कहते कि गर्मी के दिन आ गए हैं अब पानी की सप्लाई कम आती है. आप कम पानी का प्रयोग किया करें. इसके जवाब में वे लड़ने लगते. लोगों ने कहना छोड़ दिया. बाड़ी फलती रही. सात-आठ दिन बाद शहर के साथ आकाशवाणी को पानी की सप्लाई मिलती तो सबसे पहले उनकी बाड़ी का नल खुलता. चिंतित और परेशान कॉलोनी के रहवासी कुढ़ते रहते कि अगली बार जाने कब पानी आये. एक दिन उनका स्थानांतरण हो गया. वे अपने पैतृक घर के पास जा रहे थे. प्रसन्न थे. उन्होंने ट्यूब लाईट के डंडे और फ्यूज हो चुके बल्ब तोड़े और बारीक टुकड़े किये. खिडकियों के टूटे हुए शीशों को इकठ्ठा किया. उनके छोटे टुकड़े बनाये. अपनी बाड़ी से एक एक पौधा उखाड़ा. मिट्टी खोदी और उसमें कांच के टुकड़े मिला दिया. इसके बाद उनके चेहरे संतोष से भर गए. उन्होंने हल्के मन से विदा ली. जब हम जा रहे हैं त

उलझन

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"सर आपके हाथ मे शायद पूँछ आई है?" केसी केएसएम - "लेकिन ये खोखली और बेजान लग रही है।" "संभव है किसी कलावादी की पूँछ है" केसी केएसएम - "हो सकता है कला मर्मज्ञ की हो।" "देखिए इस पूँछ में कुछ कौवों और चिड़ियों के पंख भी हैं" केएसएम केसी- "ये कोई जड़ों से जुड़ा कलावादी होगा" केएसएम - "आपको क्यों नहीं लगता कि ये जड़ों से जुड़ा कला मर्मज्ञ है?" "कलावादी जहाँ भी जाता है वहाँ की कला को छीनकर अपनी पूँछ में लगा लेता है" केसी "सर ज़्यादा साफ फर्क समझ नहीं आ रहा" केएसएम केसी- "देखिए कलावादी हर जगह उपस्थित रहता है लेकिन वह कला के किस क्षेत्र का प्रतिनिधि है ये समझा नहीं जा सकता" केएसीएम- "सम्भव है कि ये मर्मज्ञ है।" केसी- "देखिए मर्मज्ञ वो है जो अपने क्षेत्र विशेष के कलाकारों का शोषण करे और अन्य मंचों पर उन्ही के कसीदे पढ़े।" केएसीएम- "जैसे?" केसी- "जैसे ही परिवार के सम्मान की बात हो स्वयं का सम्मान करवा लें, बड़े शहर में कोठी बनाकर रहे मगर पुश्तैनी ज़मीन से अपन

एक रूमानी चीज़

अतीत बुझी हुई, मिटी हुई या गुज़री हुई बात नहीं है। वह हमारे साथ चलता है ठीक हमारे पीछे। आज सुबह स्वप्न में पिताजी को देखा। उनके साथ हमेशा दो दोस्त होते थे। स्वप्न में भी थे। उनसे बाइक स्टार्ट नहीं हो रही थी। मैं दूसरी कोशिश में उसे स्टार्ट कर देता हूँ। जैसे प्रेयसियां अतीत हुई, जैसे पिताजी अतीत हुए ठीक उसी तरह आँख खुलते ही स्वप्न अतीत हो गया। अगर मैं अतीत के दरिया में छोटी डोंगी लेकर उतर सकूँ तो मिल सकता हूँ बेहद हसीन लोगों से। देख सकता हूँ उनकी प्यार भरी आंखें। महसूस कर सकता हूँ कच्ची बाहों के घेरे। होठों पर उतार सकता हूँ गुलाबी सितारे। अपने कंधों को पा सकता हूँ मादक गन्ध से भरा हुआ। अतीत भी एक रूमानी चीज़ है। * * *

चौथा धंधा - अयोध्या प्रसाद गौड़

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नंगे आदमी के गले में टाई  नंगी औरत के पैरों में जूते। आँख फाड़कर देखते हैं बच्चे और मर जाता है उनका बचपन। भयावह हो गए हैं समाचार पत्रों के ई-एडिशन और डिजिटल एडिशन। अख़बार का प्रिंट जिन ख़बरों को प्रस्तुत करता है, वे ख़बरें वेब पोर्टल पर ख़ास महत्व नहीं रखती। वेब पर महत्व रखने वाली ख़बरें प्रिंट में कम ही दिखती हैं। मुझे इससे ये समझ आता है कि हमारे पास टैब या फोन है तो इससे निजता बनती है। इसी निजी स्पेस को सेक्स, कुंठा, शोषण और हत्या से भरा जा सकता है। लेकिन यही सब प्रिंट में नहीं रखा जा सकता क्योंकि छपा हुआ अख़बार या रिसाला परिवार के बीच रखा रहता है। अर्थात व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य को उसकी निजता में घुस कर नष्ट किया जाए और बाहर शालीन और सुसंस्कृत होने के दिखावे को बनाया रखा जाए। क्या हिचक होनी चाहिए ये कहने में कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा अब चौथा धँधा हो गया है। अयोध्या प्रसाद गौड़ की किताब का शीर्षक है चौथा धँधा। ये शीर्षक उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ के उद्बोधन से लिया है। साल नब्बे इक्यानवें में जोधपुर में कॉफ़ी हाउस से थोड़ा आगे हाई कोर्ट रोड पर पोरवाल सदन

हो रही छिन झिंग छिनिंग झिंग

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चादर की सलवटों के नीचे  थोड़ी सी रात बची रह गयी थी.  इसी तरह अधेड़ आदमी की उम्र की सलवटों में  कहीं-कहीं थोड़ा सा लड़का बचा हुआ था. अधेड़ उम्र की गरदन में बेहिसाब दर्द था. उम्र की सलवटों में बचे हुए लड़के ने इसकी परवाह नहीं की. सुबह पांच बजे का जगा, दीवार का सहारा लिए एक चौकी पर बैठा हुआ अधेड़ निरीह नहीं लग रहा था. वह एक गलत खोल में ठूँसे हुए अकड़े और बेढब बिछावन की तरह दिख रहा था. दर्द की लहर उठती तो उसकी आँखें मुंद जाती. वह अपनी गरदन पर अँगुलियों को सख्ती से घुमाता हुआ अनुमान लगता कि कोई गाँठ है क्या? फिर सोचता कि अगर गांठों वाली बीमारी हुई तो और कितने दिन ज़िन्दा रहेगा? उतनी ही अधेड़ औरत चाय के दो प्याले चौकी के बराबर रखकर बैठ जाती है. "चाय के साथ कुछ लेंगे?" आदमी चाय की ओर देख नहीं सकता. वह गरदन के दर्द से हार रहा होता है. जैसे कि गरदन के दर्द ने उसे चित्त कर दिया है मगर अभी तक खेल से बाहर होने का फैसला नहीं सुनाया है. वह सामने की खिड़की की ओर देखा हुआ कहता है- "नहीं कुछ नहीं चाहिए" "हाँ कभी कभी मेरे साथ भी ऐसा होता है कि पहली चाय के साथ बिस्कि

तुम कुछ नहीं हो.

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हिंदी अब असफल और धोखेबाज़ प्रेमियों की भाषा बन गयी है. बिलकुल मीठी. कहना कुछ करना कुछ. इसलिए हिंदी नेताओं की प्रिय भाषा है. काला पगोडा, कहानी पढ़ते हुए मैं रुक गया. मैंने स्वदेश दीपक की ओर देखा. वे कुछ लिख रहे थे. मुझे लगा कि वे लिख नहीं रहे हैं कुछ बना रहे हैं. क्या? पन्नी और तम्बाकू से एक सिगरेट. मैं एकटक उनको देखने लगता हूँ. इसलिए कि वे क्षणांश को मेरी ओर देखें. ताकि मैं उनको इशारा कर सकूं कि आप इस सिगरेट का कोई कश मेरे लिए भी रखना. अचानक मेरा ध्यान भटका. जैसे स्वदेश दीपक ने कोई जादू किया. वे सिगरेट लेकर खिड़की के रास्ते बाहर चले गए. सिगरेट के धुएं की गंध खिड़की के आस पास होनी चाहिए थी मगर वह मेरे करीब ही कहीं थी. मैंने अपनी अँगुलियों को सूंघा. उनमें तम्बाकू की गंध थी. मैंने बहुत दिन से सिगरेट को छुआ तक नहीं था. क्या स्वदेश दीपक धुआँ बनकर शब्दों में छुप गये हैं? इसी उधेड़बुन में किताब को पलटा तो पाया कि कवर के पीछे बैठे स्वदेश दीपक सिगरेट सुलगाने वाले ही हैं. लेकिन इस तस्वीर के सिवा वे जा चुके थे. मैंने आवाज़ दी- "स्वदेश दीपक सर रुकिए. सुनिए तो... क्या सचमुच भाषा क