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Showing posts from April, 2020

खिड़की में बंधी चीज़ें

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विंड चाइम, गले की घण्टी, घुँघरू बंधे धागे, रिबन में गुंथी चिड़ियों जैसा जो कुछ घर लाता हूँ, उसे खिड़की पर टांग देता हूँ। बहुत बरसों से ऐसा करते रहने के कारण खिड़की पर इतनी चीजें टँग गयी हैं कि वे रोशनी को ढकने वाला पर्दा बन चुकी हैं। हवा चलने पर उनकी मिली जुली आवाज़ बहुत अलग होती है। अक्सर विंड चाइम की ट्यूब से घुँघरू टकरा जाते। इसी तरह पीतल की बड़ी घण्टी जो भेड़ों के गले में बांधी जाती है, उससे विंड चाइम की ट्यूब टकरा जाती है। एक विशेष टंकार कमरे में गूंजती। ऐसे स्वर जिनको मैंने पहले कभी नहीं सुना होता है। इनको सुनते हुए मैं सोचता कि किस से क्या टकराया होगा तब ये आवाज़ आई होगी। ऐसा सोचते हुए मुझे नींद आ जाती है। नींद में अक्सर एक ही सपना आता है। खिड़की में बंधी रहने वाली सब चीज़ें हवा में तैर रही हैं। मैं उनको पकड़ कर वापस बांध देना चाहता हूँ। खिड़की के उस ओर कभी-कभी एक चिड़िया आकर बैठ जाती है। वह बहुत देर तक बैठी रहती है। मुझे लगता है वह खिड़की में बंधी चीज़ों का बेढब संगीत सुनने आती है। इतना सोचते ही मुझे दुःख होता है कि चिड़िया का इतना उदास होना कितनी ख़राब बात है।

कोई कठिन काम, जैसे ज़िन्दगी

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कोई लड़ाकू विमान चुपचाप मेरे पास से गुज़र जाता है। उसके गुज़र जाने के बाद का सन्नाटा सुनाई देता है। एक गहरी बेचैनी से भरने लगता हूँ। मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ। समय ख़त्म होता जा रहा है। ये ख़याल आते ही कोई काम करते, कहीं चलते, कहीं बैठे हुए बेचैन हो जाता हूँ। जो काम कर रहा होता हूँ, उसे उसी पल छोड़ देना चाहता हूँ। उस लम्हे किसी की आवाज़ सुनाई पड़ना, किसी काम में लगे रहने का ख़याल आना परेशान कर देता है। उस लम्हे मैं ब्लैंक हो जाना चाहता हूँ। इतना खाली कि जैसे कहीं कुछ नहीं है। मैं भी नहीं हूँ। इसी घबराहट में अक्सर बाहर खुले आकाश के नीचे आ जाता हूँ। मैं देखने लगता हूँ कि बोगेनवेलिया पर नीम की छाया गिर रही है। मैं यही देखने के लिए आता हूँ। कुछ देर चुप खड़ा उसे देखता रहता हूँ। बोगेनवेलिया नीम के लिए क्या करता है? कुछ भी तो नहीं। लेकिन कड़ी धूप की इन दोपहरों में उस पर नीम की छाया गिर रही है। मैं ये देखकर शायद ख़ुद को सांत्वना दे रहा होता हूँ। तुम जो इतना प्यार करते हो। तुम नीम की छांव हो, मैं बोगेनवेलिया हूँ। मैं इस देखने में पाता हूँ कि मेरे बदन पर खिले फूल झड़ रहे हैं। वे

पता नहीं कैसे।

पेंसिल बेख़याली में एक अक्षर लिखकर रुक गयी। मैं उस अक्षर को देखते हुए सोचने लगा कि ये क्यों लिखा है। इस अक्षर से किसी का नाम बनता है, या फिर कोई काम, कोई चाहना या फिर कोई बेहद पुराना सम्मोहन? मैं देर तक अपनी ड्राइंग डायरी को देखता रहा। मुझे याद आया कि मैं एक औंधी लेटी हुई किताब पढ़ती लड़की के पैरों का चित्र बनाना चाहता था। लेकिन वह तस्वीर वहां नहीं थी। जैसे उकताए हुए लोग बार-बार सर या दाढ़ी खुजाते हैं, वैसे मैं लिखने लगता हूँ। कुछ भी लिखना। बस लिखना। अभी देखे परिंदे के बारे में, हवा के साथ झरती सूखी पत्तियों के बारे में, छत्ते के पास रह रहकर उड़ती पहरेदार मधुमक्खियों के बारे में या सड़क पर पसरी धूप के बारे में या कुछ भी। मुझे हर आधी पौनी भरी डायरी में ऐसी बेतरतीब लिखावट मिलती रहती है। मैंने उनको ऐसे ही लिखा था। जैसे सिस्मोमीटर हर आहट के साथ कुछ लिखता है, वैसे ही मेरी अंगुलियों में फंसी पेंसिल काँपती रहती है। सूखी पत्तियां, मधुमक्खियां, सूनी सड़कें, परिंदे, कोई ठहरा हुआ दृश्य, कुछ भी देखना प्रिय है। जो ठहरा हुआ है, उसमें देखने को बहुत सा होता है। जो सजीव है वह तो अनगिनत

वैसा दिखता होगा प्रेम

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एक बार मैं प्रेम के बारे में सोचने लगा। कि प्रेम कैसा दिखता होगा। माने शक्ल सूरत नहीं। उसकी उपस्थिति कैसी होगी। सुंदर और प्रिय नहीं वरन वह है ये कैसे कह जा सकता है। मुझे याद आया कि प्यास की गहराई अद्भुत होती है। वह जब हमको बांहों में भर लेती है तब आसानी से मरने नहीं देती। पहले पहल तलब होती है। उसके बाद बेचैनी। फिर सूखे होंठ कांपने लगते हैं। आवाज़ खो जाती है। इसके बाद नीम बेहोशी आने लगती है। अंततः प्यास जीत जाती है। ऐसी प्यास को जो बुझा सके, वैसा ही तो दिखता होगा प्रेम। इसलिए मैंने लिखा कि पानी से भरे हुए चड़स जैसा दिखता है प्रेम। हर हिलकोरे के साथ ज़रा सा हिलता हुआ। हर आहट पर चौंकता हुआ। * * * तस्वीर - कुछ बरस पहले की एक दोपहर - छोटा भाई महेंद्र आराम करते हुये।

पीलेपन पर बची स्याही

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वर्षों पश्चात पुराने पन्ने की तरह किसी आले में पड़ा होऊंगा। जैसे पुराने काग़ज़ों को इधर-उधर सहेजते हुए मुझे पिता मिल जाते हैं। पीलेपन पर बची स्याही से वे भरे पूरे पहचाने जाते हैं। मेरा हृदय उस समय व्याकुल होता है अथवा विकल, ये समझ पाना कठिन होता है। मैं कुछ क्षण अविचल खड़ा रहता हूँ। हृदय का स्पंदन शिथिल होने लगता है। ऐसा अनुभूत करता हूँ कि पिता का हाथ न छूटना चाहिए था। वे आगे चलते रहते और मैं आधा कदम पीछे उनका हाथ थामे चलता रहता। जब भी मैंने उनको आगे चलते हुए पाया है, उस समय मैं एक नन्हे खरगोश की तरह पीछे कुलाचें भरता हुआ चलता रहा हूँ। ये सोचे बिना की आगे क्या संकट है, जीवन कितना बहुमूल्य है और हम इस जगत में क्या कर रहे हैं। इतनी निश्चिंतता का मूल्य पिता के बाद समझ आता है। * * * रेगिस्तान है। पवन के संग अतीत उड़कर नहीं आता। लेकिन स्मृतियाँ आती हैं। घर वही है किन्तु इसके भीतर एक विस्मृत घर रहता है। जो अचानक सामने आ खड़ा होता है। * * *  दुष्यंत के बचपन की तस्वीर

पत्तों के चरमराने की आवाज़

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नीम के सूखे पत्ते बढ़ते जा रहे हैं। हेजिंग में मधुमक्खियों ने छत्ता बना रखा है, उसे डेजर्ट लिजार्ड गोह छेड़ती रहती है। उनकी भिनभिनाहट को दफ़्तर के आगे से निकली गाड़ी का सायरन दबा देता है। गाड़ी के गुज़रते ही छप छप के साथ पत्तों के चरमराने की आवाज़ आती है। मैं धूप में पड़ी लोहे की बेंच से उठकर स्टूडियो के भीतर आ जाता हूँ। यहाँ चुप्पी है। न मादक, न जानलेवा, न दिलफ़रेब। बस रूम टोन जैसी चुप्पी। क्या वह मुझे सुनाई देती है? शायद नहीं।

कोई तो हल होगा

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मेरे सामने एक सड़क थी। उस पर लोग बेतरतीब चले जा रहे थे। मैं चाहता था कि लोग ऐसे बेवजह चलते न जाएं। असल में वे जहां पहुंचना चाहते हैं, वहां जाकर भी वे काम न करेंगे, जिसके लिए जा रहे हैं। जैसे कोई प्रार्थनाघर जा रहा है तो वह व्यक्ति यहीं प्रार्थना कर सकता है। सड़क के किसी कोने पर खड़ा हो जाये। बैठ जाये। जैसे उसे अपने को भूलने में आसानी हो और प्रार्थना में असुविधा न हो। वह मन से शांत हो सके। अचानक मैंने सोचा कि सब प्रार्थनाएं नहीं करते। कुछ लोग किताबें भी पढ़ते हैं। मुझे इसमें भी कुछ ग़लत न लगा कि कोई व्यक्ति सड़क किनारे बैठकर किताब पढ़ रहा है। एक औरत थी। उसके साथ दो नन्हे बच्चे थे। वह उनका हाथ थामे हुए जा रही थी। वह अपने दो बच्चों को सड़क पर नहीं सुला सकती थी। मगर मैं सोचने लगा कि कोई तो हल होगा? अचानक मैं मुस्कुराने लगा कि सड़क पर तुम्हारा हाथ थामकर चलने की गरज में क्या कुछ सोचे जा रहा हूँ। मुझे ये सब सोचना बंद करके तुमसे पूछना चाहिए कि क्या मैं तुम्हारी हथेली अपनी हथेली में लेकर चलूँ? लेकिन मैंने नहीं पूछा। एक तुम्हारी हथेली को थामने के लिए मैं क्या क्या बदल जाने क

विषाणु से बड़ी नफ़रतें

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एक था ढेला और एक था पत्ता। जाने कहाँ चले गए। अब तो दोस्ती की कहानियां गुम हो चुकी। अब ऑफिस में होना उतना अलग नहीं लगता। तीन लोग बार-बार दिखते हैं। एई सर और सुरेश जी टकराते रहते। आज फिर इशारों से बात हुई। आप चेंज ओवर ले लेंगे? मैंने भी शीशे के पार से इशारा किया। हाँ। इसके बाद प्ले लिस्ट पर नज़र डाली। अपनी स्क्रिप्ट देखने लगा। जीवाणु और विषाणु। विषाणुओं का इतिहास। सदियों का इतिहास होगा मगर जो मालू म है वह है कि विषाणु पिछले दो सौ साल से हर दस साल में लाखों जान खा जाते हैं। हम कितना जल्दी सब भूल जाते हैं और कितने जल्दी फिर डर जाते हैं। मैं गाना सुनने लगता हूँ। मैंने उनसे कल कहा था, तुमसे हुआ मुझे प्यार तो बोले चल झूठी... रिंकी खन्ना याद आती। उसके बहाने कुछ याद आने की पदचाप सुनाई देने लगती है तो उसे भूलने के लिए स्क्रिप्ट कीओर देखता हूँ। हैजा, हैजा, हैजा ज़ोर से बोलने लगता हूँ। महामारी तो भूगोल विशेष पर फैली बीमारी को कहते हैं। जो बीमारी देशों की सीमाएं लांघ जाए वह विश्वमारी है। पेंडेमिक। दूसरे विश्वयुद्ध में भी महामारी का बड़ा इतिहास है। औद्योगीकरण के समय क्षय का भया

सड़कें सूनी है

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कागज़ का कोई कप भूले से सड़क पर दिखाई देता है। रेलवे ट्रेक खाली पड़ा है। फाटक का चौकीदार नहीं है। फाटक बंद करने वाली गुमटी पर ताला लगा हुआ है। पुलिस वाले कियोस्क के बाहर और भीतर मास्क लगाए खड़े हुए हैं। हाट बाजार जैसी सब्ज़ी की दुकानों की कतार सजी है। लोग मास्क लगाए हुए सब्ज़ी खरीद रहे हैं। फल ठेले वाले ठेले पर बनाई छाया के नीचे मुँह ढके बैठे हुए हैं। स्टेशन रोड जाने वाले रास्ते पर बेरिकेड्स लगाए हुए हैं। जूते गांठने वाले मोची गायब है। उनकी जगहें खाली पड़ी हुई है। कोई गाड़ी सड़क पर आती है तो पुलिस वाले नज़रें उठाकर देखते हैं। सड़कों पर फैला रहने वाला पानी नहीं है। कलेक्टर बंगले के आगे बहने वाला सदाबहार प्रवाह सूख चुका है। जल विभाग का ओवरफ्लो एक पुरानी बात हो गया है। कुछ दिन पुरानी बात। मैं धीमे कार को आकाशवाणी की ओर बढ़ने देता हूँ। पुलिस लाइन के आगे कुछ एक किराणा की दुकानों पर ऊँघे लोग खड़े हैं। जेल तक आते ही बासी भोजन की सड़ाँध से दो चार होना चाहता हूँ मगर वह गन्ध नहीं मिलती। गोबर एक लगभग विलुप्त हो चुकी बात हो गयी है। सड़कों पर बैठे रहने वाले आवारा पशु गायब हैं। उनका इस तरह

विदूषक चिकित्सक।

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आपने सुन ही रखा होगा। ऐसे निष्णात विदूषक जिनका कार्य चिकित्सालयों में जाकर रोगियों को हँसाना है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उनके इस कार्य से रोगी का मन प्रसन्न होता है। रोगी में आशाओं का संचार बढ़ता है। कुछ देशों में ऐसे पेशेवर अलग से नहीं होते हैं। उन देशों में हर व्यक्ति विदूषक चिकित्सक होता है। वह चाहे मंत्री है, वकील है, कॉलेज का प्रोफ़ेसर है, असल का चिकित्सक है, दुकान वाला है, मिस्त्री है, हम्माल है या इसी तरह कुछ भी है। मगर वह विदूषक चिकित्सक है। पूरा देश युद्ध और आपदाओं में चुटकुले बनाता है। अक्ल के हवाई जहाज दुनिया को जानने की दौड़ में नष्ट होते रहते। मूर्ख की नाव अज्ञान की गंगा में सुख के मीठे हिलकोरे खाती हुई बहती है। साधु-साधु। * * * पेंटिंग विजेंदर शर्मा की है।