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Showing posts from January, 2018

बातें करने का स्वप्न

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बीते कल की शाम से कोई सपना देख रहा हूँ। सपने में बातें किये जा रहा हूँ। एक बार बात रुकती है तो फिर चल पड़ती है। बेरी के सूखे पत्ते बेचने वाली टाल वाले बा कहते थे कि तीसरा फल पककर गिरता है। मेरे ख़यालों में पेड़ पर मिमझर उतरती है। उनसे फूल बनते हैं। फूलों से फल। वे बेहिसाब हैं। उनमें तीसरा फल कौनसा है? सही जवाब न मिलने पर रेलवे फ़ाटक की ढलान से दूर आ जाता हूँ।  फिर से आहट होती है और सपना आरम्भ हो जाता है। इस बात के लिए कि हमने बात यहीं छोड़ी थी, अब फिर शुरू होती है। सपना लगातार चलता है। जाने पहचाने लोगों के रेखाचित्र खींचते हुए। भूली हुई पहचान को फिर से गढ़ते हुए सपना अचानक रुक जाता है।  सुबह पौने छः बजे लिफ्ट के ग्राउंड फ्लोर पर आते ही बिल्ली इंतज़ार करती मिलती है। मैं और बेटी मुस्कुराते हैं। मैं पूछता हूँ दिल्ली जाओगी? बिल्ली भाग जाती है। बिल्ली को किसी और से वास्ता रहा होगा। हम गाड़ी स्टार्ट करके गांधीनगर रेलवे स्टेशन की ओर चल देते हैं। स्टेशन के बाहर पार्किंग की लंबी कतार थी। मानु स्टेशन को गयी और मैं गाड़ी पार्क करने पीछे लौटा। दीवार पर बैठी एक और बिल्ली ने जम्हाई ली। उसने जाने

तुम्हारे होते हुए भी तुम्हारा न होना

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मैंने जब किसी से सुना 'लव यू' तब मुड़कर उसकी जामातलाशी नहीं ली. मैं मुस्कुराया कि अभी उसमें ज़िन्दगी बाक़ी है. उसके आस-पास के लोग ख़ुश रहते होंगे. मैंने जब कभी कोई सस्ता फ़िकरा सुना तो दुखी हुआ कि उस व्यक्ति को कितने दुःख और कुंठाएं घेरे हुए हैं. वह जहाँ होता होगा, उसके आस-पास सब कैसा होता होगा? हालाँकि मेरी खामी ये ठहरी कि मैं लव यू कहने वालों को भूल गया और नफ़रत वालों को भुला न सका. कुछ एक असहज टिप्पणियाँ नई दिल्ली नाम के तंगहाल शहर की भीड़ भरी गलियों से. एक फ़रवरी का महीना इतना ठंडा न था कि बंद कमरे में रजाई ओढ़कर दो लोग सो सकें. इसलिए रजाई पांवों पर पड़ी थी. तकिये पुश्त से टिके थे. हमारी पीठ उनका सहारा लिए थी. एक तरफ कार्नर वाला स्टूल रखा था दूजी तरह कॉफ़ी टेबल थी. दोनों पर लम्बी गिलासें रखीं थीं. दोनों में हंड्रेड पाइपर्स नाम वाली व्हिस्की के साथ पानी मिला हुआ था. स्टार टीवी के सिनेमा चैनल पर बर्फ़ से भरा भूभाग था. स्क्रीन के कोने में एक लड़की स्नो-शूज में नज़रें गड़ाए बैठी थी. उसके जैकेट का कॉलर जब भी हिलता वह नज़रें उठाकर देखती लेकिन दृश्य में आता हुआ कोई नहीं दीखता

ख़ुशी की गोली

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उसने आमंत्रण भरी एक मतवाली करवट ली. उसकी पीठ से थोड़ा नीचे कूल्हे पर हाथ रखते ही डर की लहर दौड़ पड़ी. आंगन पर अधलेटे हुए दिखा कि टेबल के ऊपर से शीशे के उस तरफ चार-पाँच लोग किसी काम में लगे हैं. उनमें से दो आदमी कमर के ऊपर नंगे थे. उन दो बिना बनियान वाले लोगों में से एक उस पार के कमरे के ठीक बीच में खड़ा था. जबकि दूजा दाईं तरफ के दरवाज़े की ओर जा रहा था.  उनको देखते ही इस तरफ देखा तो मालूम हुआ कि दोनों ने कपड़े न पहन रखे थे. एक दूजे के बदन से सटे हुए उत्तेजना की फिसलन पर थे. अचानक देख लिए जाने का, पकड़े जाने का भय पसर गया. इसी भय में कपड़े तलाश किये. वे जाने कहाँ गुम थे. हड़बड़ी में खड़े होकर दरवाज़े की ओर लपककर हत्थी पकड़ कर खींची और बाहर आ गया.  उस दरवाज़े से बाहर आने ने बेहद हल्का कर दिया था मगर उसी पल दस एक आदमी आये. जिस कमरे से भागा था, वापस उसी कमरे खड़े पाया. नया काम होने लगा. वे लोग कालीन उखाड़ रहे थे. उनसे कहा- "इस कालीन को पूरा ही उखाड़ दो." उन्होंने कबूतरी कालीन उखाड़ा तो नीचे एक गहरे हरे रंग का कालीन चिपका हुआ दिखने लगा.  ऐसा लगा कि गहरे हरे रंग वाला कालीन ही सबसे पह

ओ शैदाई !

शैदा का अर्थ है जो किसी के प्रेम में डूबा हो. सोचता हूँ कि मैं किसका शैदाई हूँ. सतरंगी तितलियों, बेदाग़ स्याह कुत्तों, चिट्टी बिल्लियों, भूरे तोतों, कलदुमी कबूतरों, गोरी गायों, चिकने गधों, ऊंचे घोड़ों, कसुम्बल ऊँटों से भरे इस संसार में कोई ऐसा न था, जिसके लिए जागना-सोना किया. पढने-लिखने में कोई तलब इस तरह की न थी जिसके बारे में बरसों या महीनों सोचा हो कि ऐसा हो सका तो वैसा करेंगे. रास्ता कोई ऐसा याद नहीं पड़ता जिस पर चलने के लिए बेक़रार रहा. मंज़िल भी कोई ऐसी न थी जहाँ पहुँच जाने लिए टूट कर चाहता रहा हूँ. हाँ कभी-कभी जहाँ जाना चाहा वह मेरे नाना का घर था. मेरे नाना के घर में बहुत सारी बिल्लियाँ थीं. उनके पास एक चिलम थी. एक ज़र्दा रखने की तिकोनी पोटली थी. चिलम को उल्टा करते तो एक काला पत्थर उसके मुंह से बाहर गिरता था. नाना उसे दो-तीन बार आँगन पर पटकते, अँगुलियों से सहलाते और वापस चिलम के मुंह में रख देते थे. उस चिलम की गंध नाना के कपड़ों से आया करती थी. नाना और चिलम की गंध एक ही थी. मुझे लगता था कि नाना चिलम के शैदाई हैं. नाना ने किसी रोज़ चिलम को किनारे रख दिया. उनकी बंडी की अ