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Showing posts from March, 2018

बतुलियों का देस

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एक ठहरी हुई सांस  बेचैन निग़ाह में उदासी घोलती है. बारिश नहीं थी मगर थी कि एक आवाज़ ने बुनी बारिश. एक सूखी रात का ये पहला पहर था. बंद आँखों में कहीं दूर हिलते हुए होठ खिले थे कि कोई संगीतकार, साजिंदों को अपनी छड़ी से प्रवाहित कर रहा था. लड़का उसे कहना चाहता था कि सांस लेने में कठिनाई है मगर वह चुप रहा. उसने चाहा कि लड़की बोलती रहे. लड़की की आवाज़ दवा थी. जब वह बोलते हुए ठहर जाती तो ठहर के बाद प्रतिध्वनि गूंजती. चुप्पी में लगता कि बारिश रुक गयी है? लड़का पूछता- "तुम हो?" दूजी तरफ से जवाब आता. तीन बार दिया गया जवाब. जैसे हाँ हाँ हाँ या ना ना ना. वह जवाब लड़के को बाहर की ओर खींच ले जाता. बाहर बारिश नहीं हो रही होती. लड़का हैरत से भरकर फिर से आवाज़ को खोजने लगता. लड़की की आवाज़ में बारिशें बुनने का हुनर था. लड़की ने कहा- "तुम चुप क्यों रहते हो?" लड़के ने अपने आप को ये कहने से रोक लिया कि तुम्हारी आवाज़ को सुनते हुए बारिश सुनाई पड़ती है. मन एक सूखा रेगिस्तान है इसलिए अनवरत भीगते जाना चाहता है. लड़की की आवाज़ फिर से आई- "क्या हम पहले कहीं मिले थे? अगर नह

फेसबुक बनाम बिबलियोफोबिया

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फेसबुक आपकी कई बीमारियों को सार्वजनिक कर रही है। आपके सामने एक किताब रखी है। आप उसके पांच सौ पन्ने देखकर सोचते हैं इतनी बड़ी किताब कौन पढ़ेगा। आपके सामने एक बीस पन्नों की कहानी है और आप उसे पढ़ने की अनिच्छा पाते हैं। आपके सामने अख़बार में छपा एक लेख है और आप सोचते हैं कि लोग लंबे लेख क्यों लिखते हैं। अब कोई बीस पंक्तियों की बात भी आप नज़र अंदाज़ करते हैं। आप अक्सर चाहते हैं कि ब्लॉगर पर फेसबुक पर एक दो पंक्ति की बात ही लिखी जानी चाहिए। अगर ये बात सच है तो आप बीमार हैं। आपकी बीमारी को मनोविज्ञान की भाषा में बिबलियोफोबिया कहा जाता है। फेसबुक हमारी पढ़ने की आदत को ख़त्म कर रही है। मुझे भी इस बात से सहमति होती रही है। मैं भी अनेक बार अपने कहानी संग्रह का काम पूरा न होने के लिए फेसबुक को कोस चुका हूँ। मैंने फेसबुक को बंद किया और कहानियों पर काम करना चाहा। मैं लैपटॉप खोलता, वर्ड पैड में झांकता रहता। कभी नींद आती, कभी उठकर बाहर चला जाता। लेकिन काम न हुआ। मेरी फेसबुक एक दो दिन नहीं नशे की लत छूटने की प्राथमिक सीमा यानी तीन महीने बंद रही। काम उसके बाद भी न बना। ऐसा क्या हो गया है? मैं

डेटा चोरी से रची गयी दुनिया

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कुछ मित्रों ने पूछा है कि फेसबुक से लिए डेटा का कोई कैसे और क्या उपयोग कर सकता है. मेरी प्रवचन करने की बुरी आदत है. प्रवचन की दुर्घटना के बाद सोचता हूँ कि कम शब्दों में बात कहना सीखना चाहिए. इसलिए आज कोशिश करता हूँ. डेटा से पसंद, व्यवहार और मत का अनुमान निश्चित कर व्यक्तित्व का विश्लेषण किया जाता है. इसके पश्चात् जिसका डेटा है उसे केंद्र में रखकर योजना बनाना. इसके लिए तकनीकी शब्द है मैक्रोटार्गेटिंग. सरल शब्दों में इसका अभिप्राय है कि इस विश्लेषण के आधार पर एक ऐसा संदेश तैयार करना जो कि निश्चित व्यक्ति अथवा समूह को प्रभावित कर सके. व्यक्ति की पसंद का काल्पनिक भविष्य रच सके. एक निश्चित व्यक्ति जब अपनी पसंद और व्यक्तित्व के अनुरूप बातें किसी उत्पाद, विचार या राजनितिक लक्ष्य से सुनता है तो वह अजाने ही उसका एक सक्रिय सम्प्रेषक अथवा कार्यकर्त्ता बन जाता है. उदाहरण के लिए एक नगर निगम के चुनाव हैं. एक विशेष स्थान से लोग दूजे विशेष स्थान तक कैब से यात्रा अधिक करते हैं. उस स्थान पर मेट्रो जैसी अत्याधुनिक सुविधाएँ चलाने की बात फैला दी जाये. आप अपनी लोकेशन अपडेट करते हैं. इससे पता चलत

चाकू को ही ज़िन्दगी न बना लें

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यूजर्स की डेटा चोरी जैसी ख़बरों से हमको क्या फर्क पड़ता है? हम तो फेसबुक और व्हाट्स एप के विडिओ चैट में नंगे भी हो जाते हैं. डेटा हमारा आधार वालों के पास पड़ा ही है और लोग उसे चुरा ही रहे हैं. इसलिए ऐसी बेकार की ख़बरों से क्या सर लगाना. लेकिन फिर भी अपने लिए टाइम निकालो. छोटा भाई पुलिस में अधिकारी है. उसने सायबर क्राइम और लॉ की पढाई भी की हुई है. मुझे भाई ने कहा कि आपके इस नए फोन में एक एप डाउनलोड कर लो. व्हाट्स एप. एप के खुलते ही भाई ने मुझे इसके फ़ीचर समझाए. मुझे बड़ा अच्छा एप लगा लेकिन मैं जिनसे बात करना चाहता था उनमें से बहुत कम के पास एंड्राइड फोन थे. यहाँ तक कि आभा भी बेसिक मोबाइल ही उपयोग में ले रही थी. इसलिए उत्साह फीका पड़ गया. फिर मैंने सोचा कि चलो कोई बात नहीं भाई-भाई फोन पर कभी खेला करेंगे. लेकिन दो साल के भीतर ही ऐसे बहुत कम दोस्त और परिचित बचे जिनके पास व्हाट्स एप चलाने लायक न फोन था. कल व्हाट्स एप के संस्थापक सदस्य ब्रायन एक्शन ने अपने ट्विटर फोलोवर्स से कहा है कि फेसबुक को डिलीट करने का समय आ गया है. इसे डिलीट कर दिया जाये. ब्रायन एक्शन ने जॉन काम के साथ व्हा

तुममें ऐसा था ही क्या

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कि तुमको अपने पास बचाने की खातिर एक पूरी उम्र गंवा डाली. दोपहर के ढलते ही काम हाथ से छूटने लगते. मन छत की ओर भागने लगता. वहां क्या होता? छत खाली पड़ी रहती. आसमान में कुछ देर पंछी उड़ते हुए कहीं लौटते दीखते. डूबते सूरज की रोशनी से क्षितिज पर नया सा रंग आता और किसी लकीर की तरह फैल जाता. शाम का साया घना हो रहा होता. दीवार से बनती परछाई शाम की रंगत से अधिक घनी होती जाती. रोशनी बुझ ने लगती. चीज़ें अंधेरे में गुम होने को बढ़ जाती. छत पर खड़े हुए कभी-कभी अतीत की याद आती थी. ख़ुशी से किलकते बच्चे की तरह भाग-भाग कर वहीँ जाने को बेताब मन. सारे काम एक मुलाक़ात को बनाने के आस-पास चलते. दस दिन बीत जायेंगे न तब हम मिलेंगे. इस तरह दस दिन किसी अंधी पोटली में जा गिरते. उन दस दिनों में जीना नहीं होता था. प्रतीक्षा होती थी. प्रतीक्षा का ही रोमांच होता था. आस-पास के लोग क्या करते थे दीखता न था. मन उनके बारे में सब भूल जाता. कुछ रोज़ की मुलाकात के लिए महीनों खो दिए. साथ रह लेंगे ये सोचकर सोचा कि ज़िन्दगी आसान हो जाएगी. साथ रहेंगे. प्रेम से देखेंगे. पास बैठेंगे. सब कुछ एक साथ करेंगे. कितना अच्छा न? अक्स

और लिखा कीजिये

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मेरे दो तीन कहानी संग्रह आये तो फेसबुक के इनबॉक्स में कहानी लिखने की चाहना रखने वाले आने लगे. चार साल पहले एक कॉलेज का लड़का आया. उसने कुछ कहानियां भेजी. मैंने उसे कहा कि आप लिखते रहिये. जब आपके पास सम्पादित करने लायक कुछ बन जाये तब किसी को अपनी पाण्डुलिपि दिखाना. दूजी बात कि दो हज़ार शब्द पढ़कर आपको कोई कुछ नहीं कह सकता है. आप चालीस-पचास हज़ार शब्द की पाण्डुलिपि देंगे और किसी मित्र के पास समय हुआ तो वह पढ़कर आपको बताएगा कि क्या बना है? उस लड़के ने मेरा फ़ोन नम्बर मांग लिया. मैंने दे दिया. वह फ़ोन पर बहुत सी बातें करना चाहता था. मैंने दो-तीन बार उससे बात की. वह पूछता- "सर कैसा लिखा है." मैं कहता- "अच्छा लिखा है और लिखा कीजिये." मेरे पास इतना समय न था कि मैं लगातार बातें कर सकता. मैंने एक बार उसे समझाया कि ज़्यादा समय नहीं होता है. उसने समझा नहीं. मैंने दो-तीन बार उसका फोन नहीं उठाया. ऐसा करने पर मेरा प्यारा कहानीकार अचानक अच्छा आलोचक बन गया और उसने मेरे कहानी संग्रह की समीक्षा लिख दी. क्या लिखा होगा? आप समझ सकते हैं. मैंने उसे इग्नोर किया. फिर वह गुस्से में अनफ्रेंड

बेमन क्या बात कहूँ?

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क्या मेरे पास कोई बात सुनने का मन बचा है  क्या मेरे पास कहने के लिए कोई बात बची है? क्या मैं सेलफ़ोन का चमकता स्क्रीन देखता रह सकता हूँ. क्या मैं समय पर दफ़्तर पहुँच सकता हूँ. क्या मैं इसी बिस्तर पर देर तक चुप लेटा हुआ महसूस कर सकता हूँ कि थकान बहुत बढ़ गयी है. क्या मैं तय कर सकता हूँ कि इस थकान के कारण आगे के सब काम स्थगित कर दूँ. मैं कितने दिन ऑफिस जाऊँगा? मैं कितने दिन लोगों को सुन सकूंगा. मैं कब तक अपने बारे में क्या बातें बता सकूंगा. पॉकेट में रखे फ़ोन में रिंग बजने लगती है. मैं स्कूटर चलाते हुए सोचता हूँ कि जेब में रखे फ़ोन पर किसका नाम चमक रहा होगा. इस समय कौन फ़ोन करता है. मैं कुछ नाम याद करता हूँ. हर नाम की याद के साथ बहुत सी बातें याद आती हैं. मैंने उससे आख़िरी बार क्या बात की थी? हमने कब से बात नहीं की. रेलवे ओवर ब्रिज पर बाईं तरफ मुड़ते हुए देखता हूँ कि लोग गलत तरीके से दायें मुड़ जाने को इंतज़ार में खड़े हैं. मैं अहिंसा चौराहे का चक्कर काट कर फिर उन्हीं लोगों के रास्ते बढ़ जाता हूँ. अस्पताल, विवेकानंद, टाउन हॉल, डाक बंगला, कलेक्ट्रेट, बाड़मेर क्लब, पीएचईडी, पुलिस लाइन,

प्रेम की निर्मल नदी का नायक

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दुनिया में एक बहुत छोटा सा तबका है जो तोड़फोड़ और हत्याओं में लगा रहता है। बाकी सब तो घर बनाने, बच्चों को लाड़ लड़ाने और प्रेम से जीवन बिताने के प्रयास में जीते हैं। जिस तरह जड़ें अक्सर नहीं दिखाई देती उसी तरह जोड़ने वाले भी कम दिखते हैं जबकि जोड़ने वालों के उलट तोड़ने वाले अक्सर अधिक दिखते हैं। मंदिरों-मस्जिदों, मूर्तियों और कलाकृतियों को तोड़ने वाले लोगों के बारे में कभी प्रचार न करो। उनके प्रति दया और उपेक्षा मिश्रित दृष्टि रखते हुए, इस गंदगी से आगे बढ़ जाओ। हत्यारे और विनाशक भीतर से बेहद कायर हुआ करते हैं। इन छोटे टुच्चे लोगों की क्या बात करते हो? क्या उस आदमी को भूल गए हो जो अभी दस बारह साल पहले ही मरा। वही कर्नल पॉल टिब्बेट्स। जिसने हिरोशिमा पर एटम बम गिराया था। कर्नल पॉल जब अमेरिका लौटा तो उसका स्वागत एक महानायक की तरह किया गया था। घृणा से भरे अमेरिकी जापान में मासूमों के संहार का जश्न मना रहे थे। ये अमरीकी ट्विन टॉवर ध्वस्त होने पर डर के कारण मनोरोगी हो गए थे। इनकी नींद उड़ गई। ये अपने देश मे रह रहे सिखों, मुसलमानों और अन्य धर्मावलम्बियों पर अकारण हमले करने लग गए थ

किसी और के बारे में

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धुएं से बनते बेतरतीब रास्तों पर चलते हुए भटक कर नज़र दीवार की ओर जाती थी। कभी उसके आस-पास रहते हुए भी उसकी याद आ जाती थी। कभी छाया भरे अनजान रास्ते पर मन अकेले चल पड़ता। कभी रेत के जंगल में क्षितिज पर कोई लाल रंग डूबता हुआ गाढ़ा हो जाता। इस कभी-कभी से मन सदा डरता रहा। बेचैनी को मिटाने का कोई इरेजर न बनाया जा सका। बस अक्सर यही चाहना रही कि तुम इत्ते करीब रहो कि हम एक दूजे को देख भी न सकें। इंस्टाग्राम के फेरे में वी के एकाउंट में ये बेवजह की बात मिली.