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अलविदा 2023

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ये बरस बीत गया है। असंख्य परिवारों के लिए ये बरस कभी नहीं बीतेगा। ये सियाह छाया बनकर उनके जीते जी साथ चलता रहेगा। आज नव वर्ष की पूर्व संध्या पर उल्लास होगा, रोशनियां होगी, बधाइयां होगी हर कोई ये भूल जाएगा कि इस दुनिया में दो युद्ध चल रहे हैं। इन युद्धों में दुनिया के पांच छह लाख लोग मारे जा चुके हैं।  युद्ध के बारे में हीरोडोटस ने कहा कि शांति में पुत्र पिता का अंतिम संस्कार करते हैं और युद्ध में पिता पुत्रों का। इस बरस हमने मांओं, पिताओं और चाचा मौसियों की गोद में नन्हे बच्चों को पार्थिव देह देखी। ऐसे भी बच्चे देखे कि जिनका इस दुनिया में कोई नहीं बचा। वे अस्पताल में चिकित्सकों के सामने खून से सने हुए भय से कांप रहे थे।  जीवन जितना भयावह दिखा, उतनी भयावह तस्वीर कोई आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कभी नहीं बना सकेगा। दुख, पीड़ा और भय से भरी तस्वीर केवल मनुष्य ही नफ़रत से रच सका है। नई दुनिया, नई तकनीक और नए भुलावों में जीने का समय है।  तकनीक मनुष्यता की उतनी ही मित्र हो सकती थी, जितनी की वह शत्रु बनी बैठी है। आकाश का सैन्यीकरण हो रहा है। जबकि इस बरस भूकंपों से दुनिया कांपती रही। कोई तकनीक काम नह

अलाव की रौशनी में

मुझे तुम्हारी हंसी पसन्द है  हंसी किसे पसन्द नहीं होती।  तुम में हर वो बात है  कि मैं पानी की तरह तुम पर गिरूं  और भाप की तरह उड़ जाऊं।  मगर हम एक शोरगर के बनाये  आसमानी फूल हैं  बारूद एक बार सुलगेगा और बुझ जाएगा।  इत्ती सी बात है। --- रेगिस्तान की पगडंडियों पर बहके बहके चलते हुए औचक तेज़ भागने लगे। शहरों को चीर कर गुज़रती रेलगाड़ी में सवार होकर दूर से दूर होते गए।  अजनबी रास्तों पर नई हथेली थामे, कभी बातों बातों में किसी पुरानी बात पर संजीदा होते। फिर से किसी के करीब नहीं होंगे का खुद याद दिलाते हुए अचानक मुस्कराने लगते। कि तुमसे नहीं मिले होते तो ये बातें किस से सुनते। इसलिए फिर फिर नए लोगों से मिलना।  फिर से दावत पर बुलाना मोहब्बत को और सटकर चलना। ठण्डी रात में अलाव जलाकर बैठना। देखना कि आग की लपटों की रौशनी में वह कितना सुंदर दिखता है।  शोरगर, तुम्हारा मन है। उसे बुझने मत देना। हर बार नए रंग का बनना और नए तरीके से बिखरना।  शुक्रिया।

कुछ देर कुछ न सोचें

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शरद पूर्णिमा आने को है। उसके साथ हेमंत ऋतु आएगी। सुबह का समय है। मैं खुले आंगन में बैठा हूं। बाखल में पुष्पों की सुवास है। दक्षिणी हवा के संग मादकता बिखर रही है। बहुत शांति है। गली में भी जाने किस कारण शोर का कारखाना बंद है।  अचानक याद आता है कि अपना स्वास्थ्य अच्छा हो तो सब भला लगता है। महीने भर से कफ और खांसी से कठिनाई खड़ी कर रखी थी। दिन रात एक से हो गए थे। थकान भरा बदन लिए कुछ काम करो कुछ सांस लो। जिस हाल में सोना उसी में जाग जाना। अजीब चक्र बन गया था। आज स्वास्थ्य भला लग रहा। अक्टूबर जब बीतने को होगा हल्की गुलाबी ठंड प्रारंभ हो जाएगी। अगले दो महीने में शिशिर ऋतु का आगमन होगा। तब ठंड होगी। गर्म कपड़े होंगे। इसी जगह बैठे हुए धूप की प्रतीक्षा होगी किंतु दोपहर तक थोड़ी सी कच्ची धूप मिलेगी।  हम अक्सर अकारण उलझ जाते हैं। समझते हैं कि ये आवश्यक कार्य है, इसे पूर्ण करके ही आराम करेंगे। वास्तव में ये एक जटिल फंदा होता है, जिसमें अपने दिन रात फंसा लेते हैं। जीवन है तो काम बने रहेंगे। सब काम कभी एक साथ पूरे नहीं किए जाएंगे। हर काम के बाद एक नया नया काम आ खड़ा होगा।  इसलिए थोड़ा समय प्रतिदिन

इट स्मेल्स हैप्पीनेस - अणु शक्ति सिंह

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सेवाप्रसाद सहज यौन इच्छाओं से भरा सरल व्यक्ति है। वह अभी तक कुंठित नहीं हुआ है। समाज के सबसे निचले पायदान के कार्य स्वच्छता का कार्मिक है। उसके लिए सुखी परिवार की सीमा उन परिवारों तक समाप्त हो जाती है, जहां वह कचरा उठाता है। उसकी पत्नी फूल बेचती है। फूल बांटने वालों के हाथों में खुशबू बची रह जाती है, उक्ति की तरह हर रात पत्नी महकती हुई मिलती है। वह उसकी प्रतीक्षा करता है। इस प्रतीक्षा में खुशबू भरी स्त्री के अतिरिक्त अनेक स्त्रियों की तस्वीरें हैं। उनकी देह और खुशबू के बारे में कल्पनाएं पंख लगाए उसके आसपास उड़ती रहती है। उन नाज़ुक पंखों की छुअन से वह अक्सर उत्तेजित महसूस करता है। सेवाप्रसाद की इन कल्पनाओं से उपजी हरकतों पर पत्नी कायदा भी बिठा देती है। कचरा जिस तरह सेवाप्रसाद को ऊब और उकताहट से भरता है, उसके उलट जिनके यहां कचरा बीनता है, उन लोगों के जीवन का सुख उसे इच्छाओं से भर देता है। वह उस जीवन में सेंध लगाना चाहता है। भीतर प्रवेश करके सुख को चिन्हित कर लेना चाहता है।  डिकोड करने की ये चाहना फलीभूत होती है। वह एक घर के खुले दरवाज़े के भीतर प्रवेश कर जाता है। वहां प्रथम दृष्टि एक सुघ

टाई बांधे हुए बकरी

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बाड़मेर रेलवे स्टेशन के क्रॉसिंग पर बहुत सारी सुंदर बकरियां फाटक खुलने का इंतज़ार कर रही थी। उनमें से एक के गले में टाई बांधी हुई थी।  सिरोही नस्ल की बकरियां थी। हालांकि थोड़ा बहुत संकर हो जाना भी आम बात है। बाड़मेर शहर में इस नस्ल की बकरियां तेलियों और पठानों के पास अधिक हैं। यहां का किसान समुदाय मारवाड़ी या जरखाना नस्ल की बकरियां पालना पसंद करते हैं।  बाड़मेर के किसान बकरी को दूध और बाकर माने उनके बालों के लिए पालते हैं। ये बकरियां दो से तीन लीटर दूध दे सकती हैं। इनके बाल ऊंट के बालों के साथ जिरोही माने चटाई बुनने में काम ले लिए जाते हैं। हालांकि बाकर अधिक होने से जिरोही चुभती है।  सिरोही नस्ल के बकरे का भार चालीस पचास किलो के आसपास होता है। बकरियां औसत तीस पैंतीस किलो होती हैं। इस नस्ल का पालन पोषण मीट के लिए अधिक किया जाता है।  बकरी के दूध को डेंगू रोगी के लिए सर्वोत्तम माना जाता है। बाड़मेर में डेंगू के भयावह प्रकोप के समय दूध की कीमत अविश्वसनीय हो गई थी।  वैसे बकरी बहुत सुंदर जानवर है। ये काफी हठी स्वभाव का भी होता है। इसे पहाड़ों पर खड़ी चढ़ाई चढ़ने में कोई समस्या नह

टूटी हुई बिखरी हुई

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हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउ

समय के साखी

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कविताओं से मोहभंग है। फिर भी कविता वह जगह है, जहाँ मन को आश्रय मिलता है। या जैसे घर लौट आए हों।  कविता पढ़ने के अपने दुख हैं। उनका कुछ नहीं किया जा सकता। कि आप कविता पढ़ने जाते हैं और हताश होकर लौटते हैं।  इसलिए हर दो तीन बरस में देख आता हूं कि युवाओं ने कविता के लोहे को कितना तपाया है। इसी देखने में समय के साखी का अंक ऑर्डर किया था।  बहुत बरस बाद मैंने कविताएं पढ़ीं। पढ़कर सुख पाया। कुछ कविताएं परमानंद रहीं।  जमुना बीनी की कविता लौटने के इंतज़ार में, प्रतिभा गोटीवाले की सरस्वती पर माल्यार्पण, नेहा नरूका की कुलताबाई, विगाह वैभव की ईश्वर को किसान होना चाहिए, ज्योति रीता की प्रिय विनोदिनी, सौम्य मालवीय की कविता तिरंगायन और पार्वती तिर्की की सोसो बंगला।  पार्वती तिर्की की एक कविता चुनना मेरे लिए कठिन था कि सभी कविताएं मैंने कई बार पढ़ीं। सब मन को छूने वाली कविताएं हैं। आवश्यक कविताएं। इस अंक को मैं प्रसन्नता के अतिरेक में पढ़ रहा हूँ। अभी पूरा पढ़ा नहीं है। जो पन्ना खुलता है, उसे दोबारा तिबारा पढ़ने लगता हूँ। 

प्रतीक्षा के बारे में

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मैं प्रतीक्षा में था। हालांकि जीवन बीत चुका है और कोई प्रतीक्षा कभी गहरी मित्र नहीं हुई।  इसी प्रतीक्षा में आस पास को देखता रहता हूँ । चीज़ें कैसी हैं। उनका विन्यास कैसा है। रंग रूप किस तरह खिला बुझा है। लोग क्या कर रहे हैं। वे कैसे मनोभावों से घिरे हैं और कितने मनोभाव पढ़े जा सकते हैं।  इस देखने को अकसर शब्दों में उतार लेता हूँ। कि शब्दों से थोड़ी सी मित्रता है। किसी बात को ठीक ठीक कह देने लायक बना देते हैं। कभी कभी मैं मोबाइल से या कैमरा से तस्वीरें खींच लेता हूँ।  वैसे तस्वीर को न उतारा जा सकता है, न ही खींचा। कहां से उतारा जाता है। क्या तस्वीर कहीं ऊपर रखी है। क्या तस्वीर किसी हाथी-घोड़े पर चढ़ी है। और खींचना कैसे होता है। कोई फंदा डालकर या रंढू से बांधकर खींचा जाता है? हालांकि वह दूर का दृश्य है। उसे बिना पास गए सहेज लिया गया है लेकिन खींचा कैसे ये मुझे समझ नहीं आता।  फिर भी परसों शाम बाड़मेर के विवेकानंद सर्कल पर प्रतीक्षा में खड़े हुए मैंने एक तस्वीर ली। मैं वैसा ही छायाकार हूँ, जैसा कि संयोग से लेखक या रेडियो पर बोलने का काम करने वाला हूँ। कुछ परिस्थितियां ही होती हैं।  इसी परि

सुलगते जाने को

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हम अतीत में क्या खोज सकते हैं। भविष्य को कितना जान सकते हैं। वर्तमान को कितना देख सकते हैं। ये सोचते हुए एक पुरानी तस्वीर देखता हूं।   क्या मैंने इस तस्वीर को खोजा है या ये तस्वीर कुछ याद दिलाने को सामने चली आई है। कि इस लम्हे तुम कितना इस लम्हे को देख रहे थे। इस लम्हे से पीछे कितनी दूर तक सोचा था। आगे कभी इस लम्हे को कैसे याद करोगे।  शायद कुछ भी नहीं।  यादें एब्सट्रैक्ट हैं। नंगी हैं। हंसी और नमी से भरी हैं। उनमें तम्बाकू की गंध है। ऊंट की पीठ से उतारी काठी जैसी महक से भरी है। बहुत तेज़ भाग रही हड़बड़ी वाली किसी मशीन के अचानक रुक जाने से हुए घर्षण की जलती हुई खुशबू है।  रेड कार्पेट, टीवी शो, भव्य सम्मेलनों, प्रतिष्ठित करने को चमकते मोमेंटो, भीड़ में अंगुलियों के छू लेने भर की कामना से उपजा सुख, कहीं अपने नाम का शोर सुनने को चाह में हांफते हुए कुछ न कुछ करते जाने से बहुत परे की बात है।  मन किसी के साथ सुलगते जाने और फिर हवा में चुपचाप गुम हो जाने का मन है। उसे अतीत और भविष्य से क्या वास्ता होगा। वह बस वर्तमान के बारे में क्षणिक सोचता है कि काश तुम होते। जानता है कि नहीं हो।  जब जो नहीं

शर्ट का तीसरा बटन

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एक ही ख़त में सारा कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं है। ~ मानव कौल  पिछली गर्मियों में हिंदयुग्म के दफ़्तर से ये उपन्यास ले आया था। किताबें आधी आधी बंट जाती हैं। कुछ जयपुर और कुछ बाड़मेर वाले घर के हिस्से आती हैं। कि कहीं भी रहो, फुरसत में कुछ पढ़ सको। मानव को पढ़ना एक अलग अनुभूति है। वैसे हर लेखक की भाषा और कथानक के अलग जींस होते हैं। किंतु कुछ के हमारे मन से मिलते हैं।  मानव की कहानियां जिसने पढ़ी हैं और भली लगी। उनके लिए ये एक सुंदर उपन्यास है। प्रेम कबूतर कहानी कैशोर्य के प्रेम की सरलता को कहती है। उससे आगे इस कथा के किशोरवय पात्र जीवन की कठोरता से दो चार होते हैं। वे माँ, पिता, नाना, नानी के होने को एक सम्बंध से आगे मनुष्य के रूप में पहचानने लगते हैं। ये सुंदर बात है। अच्छा लगा। धन्यवाद मानव।

गलता जी मंदिर जयपुर

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विदेशी लोग थे। कड़ी धूप थी। बारिश से पहले की उमस थी। उनका उत्साह इन सबसे अधिक था। गलता जी के निचले कुंड के पास बैठक बनी हुई है। यहां कभी गद्दे और मसनद लगती होंगी। पानी को छूकर आती हवा के ठंडे झकोरे आते होंगे।  अब यहां बंदर अपने बच्चों के साथ लेटे हुए थे। दो श्वान भी दोपहर का आराम कर रहे थे। आकाश में कुछ बादल थे लेकिन बारिश की आस नहीं थी। एक श्वान उठा और कुंड के पानी में जाकर बैठ गया। गर्मी से राहत का तात्कालिक उपाय यही था।  विदेशी लोगों का दल कुंड के बीच बने फव्वारे की ओर मुंह करके योग मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवा रहा था। धूप से अपरिचित रहने वाली उनकी त्वचा पर हल्की आग थी। किंतु उनके चेहरों पर इस जगह होने का आनंद था।  मैं पसीने से भीग गया था। मेरी पीठ पर उमस ने गहरी लकीरें उकेर दी थी। मैं सीढ़ियां उतरते हुए ऊपरी कुंड में नहाने वाले बच्चों और युवाओं के श्याम वर्ण को याद कर रहा था। वे उत्साहित होकर गोता लगाते और फिर सांकल पकड़े हुए खड़े मुस्कुराते थे।  पानी का रंग ही पानी के स्वास्थ्य को बताने के लिए पर्याप्त था। काई का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हो चुका था। उसने कुंड में कोई जगह नहीं छोड़ी थी।

दरकते दायरे

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पुस्तक मेला में विनीता जी मिल गए थे। उस भेंट में उनकी दो किताबों पर साइन भी करवा लिए। विनम्र व्यक्तित्व।  वहाँ से लौटा तो बाड़मेर में सुबह के धुएं-धकार, थड़ी की चाय-शाय, दफ़्तर की हाजरी और शाम को खेल की उछल कूद में दिन बीतते गए। रेगिस्तान में कुछ दिनों मौसम अकारण सुहाना बना रहा। लोग अचरज करने लगे कि ये कैसा मौसम है। अप्रैल मई में ठंडी हवाएं चल रही। मौसम को अपने बारे में शिकायतें पसंद नहीं आई और उसने लू से रेगिस्तान को भर दिया।  लेकिन रेगिस्तान के लोगों को क्या फर्क पड़ता है। एक ने कहा आज गर्मी ज्यादा है। तो दूजे ने गर्दन झटक कर गर्मी को नाकाम और फालतू ठहरा दिया। तीजा कहता है, इस गर्मी में बाहर नहीं आना चाहिए था मगर एक जगह बैठे ऊब होती है। गर्मी बेचारी क्या बिगाड़ती है। पड़ती है, पड़ने दो।  ऐसे में किताबें पढ़ना, लिखना और कुछ आराम करना भी नहीं हो पाता। मैंने कुछ नहीं पढ़ा। हालांकि कुछ नहीं कुछ नहीं कहते हुए दो छोटे उपन्यास और एक अच्छी कहानी पढ़ ली थी। मगर ये कम ही रहा। गर्मी ज़्यादा रही।  दो दिन पहले अवकाश पर जयपुर आ गए। सामने चार किताबें दिखीं। विनीता जी का उपन्यास दरकते दायरे पढ़ना शु

सलेटी जींस

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बीते दिनों हमने कई बार तय किया कि इस बार स्काय ब्लू जींस और व्हाइट शर्ट, टी खरीदेंगे। अगले कुछ बरस यही रंग पहनेंगे।  कौन जानता है कि खरीदे जाएंगे कि नहीं अगर खरीदे गए तो कब तक पहने जा सकेंगे।  पुरानी तस्वीरों में दोस्त अब भी गले लगे, चिपके और मुस्कुराते हुए बैठे हैं। वे दोस्त जो कि हम कभी नहीं बिछड़ेंगे के फील से भरे थे। अब बस तस्वीरों में हैं।  उन तस्वीरों को देखकर शुबहा होता है कि क्या वे दोस्त थे?  लेकिन दिल तवज्जो नहीं देता। वह खुश रहता है कि उम्र भर चलने वाली चीज़ें, रिश्ते या याराने की आस क्या रखना? जब तक जितना साथ था, अच्छा था न। खुश भी थे न?  ऐसे ही एक हल्के सलेटी रंग की जींस थी। ब्लॉग में कहीं उसकी याद के निशान मिलते हैं। जब तक साथ रही दिल में रही। फिर कभी वह रंग सामने आया ही नहीं।  एक तांत्रिक पूछता है। रूह देखी है कभी। वही तांत्रिक रूहों के लिबास भी जानता है। उस तांत्रिक के बहुत चाहने वाले हैं। उनमें से एक ने मुझसे पूछा था। रूह को महसूस किया है कभी?  पता नहीं तब मैने उसे क्या जवाब दिया था। अब फिर से किसी ने मुझे पूछा तो कह सकता हूं। तुम हल्का आसमानी नीला और सफेद पहनकर मिलना।

लुटेरा

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प्रेम एक दारुण प्रतीक्षा है।  समय ने उसके चेहरे की कोमलता पर सुघड़ता के तार कस दिए थे। किशोरवय में हल्के झूलते गालों के स्पंदन को यौवन के संपूर्ण तनाव ने विस्थापित कर दिया था। ललाट पर चोट के तीन हल्के निशान थे। थोड़ा जूम करके देखने पर ललाट चांद की कोई तस्वीर सा दिख सकता था। स्कूल की किताब में दिखने वाला वो चांद जो आकाश के चांद से अलग था। जिसमें असमतल ज़मीन पर बेतरतीब छोटे गड्ढे थे।  नायिका का अकेलापन क्षितिज की रेख की तरह फैला हुआ था। हवेली में सजी मूल्यवान धातुओं की चमक की तरह कौंधते हुए एकांत सा अकेलापन। सेवकों, मुंशियों, मनोरंजन करने वालों के बीच सजीव खड़ा हुआ। क्या इसी ठहरी और बोझिल ऊब से दिल किसी कांटे पर गिर पड़ता है।  नायक ने न कांटा फेंका। न उस पर चारा लगाया। उसके साथ इतना हुआ कि वह किसी और प्रयोजन से तालाब में पांव डालकर बैठा था कि एक मछली गुदगुदी कर गई। उस चौंक में पहली बार पानी में तैरते मचलते रंग दिखें। उन रंगों को अपनी अंजुरी में छिपा लेने का मन हो गया। ये नहीं सोचा कि पानी से हाथ बाहर निकालते ही पानी बह जाएगा। मछली तड़प कर मर जाएगी।  नायिका के अधखुले होंठ रूमान की गहरी तस

मेलडीज़ ऑफ अ व्हेल

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मृत्यु के बारे में बात करना मना है।  ये अशुभ है। अशुभ कहना बात को टालना है। मृत्यु के बारे में संवाद असहज करते हैं। मानसिक विचलन लाते हैं। हम बात कर सकते हैं किंतु कठिनाई ये है कि इसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता। इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं है, इसके सब अनुमान गलत हैं।  जिस तरह दिन के उलट रात अधिक सम्मोहक, जादुई, भयावह, गोपनीय और रूमानी होती है, ठीक ऐसे ही जीवन के उत्कर्ष पर प्रतीक्षारत मृत्यु, एक क्षण पीछे चलती मृत्यु, औचक हर लेने वाली मृत्यु भयावह रूप से रहस्यमई है। साज़ से उड़े स्वर के बाद का सघन सन्नाटा है। किसी तार के टूटने के अप्रत्याशित स्वर की गहरी चुभन है।  जीवन सचमुच कितना हतप्रभ करता है, ये कहा नहीं जा सकता। काशी पर गद्य पढ़ रहा था। जीवन से मोहभंग नहीं हुआ है। न अभी से किसी दूसरी दुनिया में जाने की तैयारी शुरू की है। वैसे मैं इसे अप्रत्याशित ही रहने देना चाहता हूँ ।  मेरे एक ताईजी का जीवन पिछले महीने भर से धागे से बंधा हुआ था। अन्न जल स्वीकारने से देह ने मना कर दिया था। पाए पकड़े बैठे बच्चे आंसू भरी आंखों से उनकी मुक्ति की कामना करते रहते। मुक्ति के उपाय होते होंगे मगर विश्वसनी

एक अजनबी जगह रात

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स्टेशन पर कुछ अजनबी खड़े थे। उनके बारे में मुझे ये मालूम था कि वे किसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। उनकी बेसब्री भी उतनी ही जाहिर थी, जितनी कि उनकी प्रतीक्षा।  रात हो चुकी थी। दिल्ली शहर के हादसों से डराई गई एक लड़की की याद आई। मैंने दूर खड़े लोगों के पास तक का फेरा दिया। मुझे उनमें कोई ऐसा नहीं दिखा, जिससे अनुमान लग सके कि ये वही है। उनको देखने और भला समझने के क्षण भर बाद याद आया कि वे भी तो ऐसे नहीं दिखते थे। उनकी मुस्कान भी भली थी। वे कैब की पिछली सीट पर साथ बैठे हुए औचक चूम लेते थे। उनकी सवाली नज़र चूम लेने के संतोष से भरी होती।  कभी बहुत दूर मेट्रो में सटकर खड़े हुए उमस भरे माहौल में सांसों की गर्मी और कॉलर के पास से आती खुशबू आसपास बसी रहती। जब कभी धकियाते हुए भीड़ चढ़ती और करीब हो जाने के सुख का धक्का लगता। अचानक सब के रास्ते जुदा हो गए।  मैंने देखा कि घड़ी में क्या बजा है?  फिर सोचा कि मैं इस अजनबी शहर से बरसों मिला मगर अजनबी ही रहा। फिर यहाँ क्या कर रहा हूँ। क्या मैं किसी को विदा करके आया हूँ या मैं किसी से मिलने जा रहा हूँ।  दो मिनट में मेट्रो आएगी। मैं खाली गाड़ी में बैठ जाऊंगा। मै

बची हुई तस्वीर

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एक चिड़िया मनी प्लांट की पत्तियों के बीच झुक कर कुछ खोज रही थी. मुझे उसकी जिज्ञासा में रुचि नहीं हुई. मैं मोगरा की लता की शुष्क दिख रही शाख पर उग आए रेतीले रंग को देखता रहा. मौसम में आर्द्रता थी. आकाश में कुछ बादल थे. मेरे मस्तिष्क में टुकड़ों में की गई यात्रा में उचक जाने की स्मृतियां थी. कि अभी ही बस ने औचक ब्रेक लगाया, अभी ही रेलगाड़ी धक्क से रुकी. मैं सम्भल कर लौटा और पाया कि मोगरे पर कोई कोंपल नहीं है. कुछ पत्ते पीले हैं. जैसे थककर रंग कहीं और चला गया है. मैं समझता हूँ कि कभी-कभी न चाहते हुए भी जाना पड़ता है.  जाने कितने बरस हुए हैं. हम मित्र हैं. किसी एक मौसम में वह फूलों से लदी मुझसे मिलती है. उसी मौसम में धूप की तल्खी हमारी प्रतीक्षा कर रही होती है. फूलों की सुवास में बंद आँखें उस क्षण को जीना जानती है. बस यही सुख है बाकी सब बिछोह.  नौजवानी में कुछ बचाने के जतन में अक्सर उलझ जाता रहा. जितना उलझा उतना खोया. वे सब कष्ट निरर्थक नहीं रहे कि अब चाहता हूँ सब सुलझा रहे. कि आने वले कल हम नए पत्तों से मिल रहे होंगे. प्रेम की सुवास वही रहेगी, जो बीते बरस मोगरा की थी.  कुछ देर खड़े रहने क

काले लोफ़र शू

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मैं अपनी एक तस्वीर में काले रंग के चमड़े के लोफर पहले खड़ा हुआ हूं। इसके बाद बरस दर बरस लगभग हर तस्वीर में काले रंग के लोफर हैं।  सहसा पिताजी की याद आती है। वे सीढ़ियों के पास खड़े शू पॉलिश कर रहे हैं। सेंडो बनियान पहने और सूती तौलिया लपेटे हुए। वे जूतों की पॉलिश करने के काम में डूबे हुए हैं। उनका ध्यान केवल एक ही काम में है।  कुछ बरस बाद मैं उनके जूते पोलिश करने लगा। वे जूते देखते, उनको पहनते और चुपचाप चले जाते थे। कभी कभी जाते समय मैं उनके पांवों की ओर देखता था। जूते साफ और सुंदर दिख रहे हैं। ये देख लेने के बाद मैं अपने किसी काम में खो जाता था।  पिताजी अपने बाल छोटे रखते थे। वे लगभग हर महीने कटिंग के लिए जाते। एक भद्र सामाजिक व्यक्ति की तरह उनके बाल संवरे रहते थे। वे नित्य शेव बनाते थे। वे यदा-कदा कुर्ता पहनते थे. अन्यथा उनकी पोशाक पतलून और कमीज होती थी. वे सलीके से शर्ट को टक इन करते. चमड़े का बेल्ट बांधते और कुर्सी पर शालीनता से बैठते थे. उनकी व्यवस्थित जीवन शैली में केवल कुछ क्षण अलग होते थे. जब वे मानू या तनु के साथ होते. गोदी में उठाए जाने जितनी लड़कियां, उनके अनुशासन के बाँध मे

सदा न जीवन थिर रहे

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सदा न फूले तोरई सदा न सावन होय सदा न जीवन थिर रहे सदा न जीवे कोय. पत्ते झड़ रहे हैं. चम्पा की शाखाएं सूनी होती जा रही हैं. सुगंध बिखरने वाले अधिकतर फूल झड़ गए हैं. कुछ एक बचे हैं. सीढ़ियों पर छांव बिखरने वाला, उनको अपने पीछे छिपाए रखने वाला चम्पा अपने पत्तों का त्याग कर चुका है. वह रिक्त हुआ है. वह इस रिक्तता को नई कलियों और पत्तों से भरेगा. प्रकृति का ध्येय है नवीनता. सदा एक सा बने रहने की चाहना को त्याग कर नया कुछ रचना अच्छा होता है.

कोई क्या ही जानता है

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तुम बहुत सेफ खेले।  ये पढ़कर बहुत देर मुस्कुराता रहा। दो दिन बाद लगा कि ये बस मुस्कुराने की बात नहीं थी। तीन दिन बाद याद आया कि रेल में यात्रा के समय जो नेटवर्क डिस्कनेक्ट होता है, वह कभी कभी बहुत सारी नासमझी छोड़ जाता है।  रेल तुम्हारे पास ठीक मोबाइल नेटवर्क कब होगा? कि जो किसी को बेरुखी लगे, वह किसी को इंतज़ार में होना लगता रहे।  कुछ भी सेफ नहीं है। शुक्रिया।  *** एक रेलगाड़ी रेगिस्तान को चीरती हुई चलती है। पहाड़ की उपत्यका में जाकर ठहर जाती है। कभी पहाड़ नहीं जा पाती। ऐसे ही बहुत कुछ है।

औंधे पड़े ताश के पत्ते

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जूतों पर पान के पीक के दाग़, अंगुलियों में जले तम्बाकू की बासी गंध, सलवटों से भरी पेशानी पर उलझे बिखरे बाल, कमीज़ के कॉलर पर सियाह गिरहें, आस्तीनों में पड़ी अनगिनत सलवटों के साथ जुआरी ताश के औंधे पड़े पत्तों को टुक देखता था।  जैसे प्रेमी बैठा हो असमाप्य प्रतीक्षा में।  जीत कर जुआरी जूते बदलेगा, नहाएगा बहुत देर तक, चेहरे पर समंदर पार से आई खुशबू लगाएगा, सफेद कमीज पहन लेगा, ताश के पत्तों से दूर किसी शराबखाने में व्हिस्की के पास बैठा होगा।  जब तुम आ जाओगे और प्रेमी की प्रतीक्षा समाप्त हो जाएगी तब प्रेमी कहीं नहीं जाएगा। वह कहेगा थक गए हैं। आओ धरती पर लेट जाएं कि इंतज़ार बहुत कड़ा होता है। अब हम मिलकर आकाश देखते हैं कि इसे सदियों देखा जा सकता है।  लेकिन अकसर जुआ और प्रतीक्षा खत्म नहीं होती।

गिरजे का अकेलापन

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मंच से उतरे व्यक्ति का अकेलापन, उसके लिए बहुत डरावना होता है।  व्यक्ति हर क्षण मंच तक पहुंच जाने की लालसा से भरा हुआ अथक प्रयास करता रहता है। जन समूह के समक्ष आसन पर बैठकर कला, साहित्य, सिनेमा, नीति और अन्य सामाजिक विषयों पर अपनी सीमित समझ का ब्योरा देने के समय मानसिक उत्तेजना और अंधे अदृश्य अहंकार की पुष्टि के ठीक बाद वह स्वयं को भीड़ के बीच और बेहद सामान्य व्यक्ति की तरह पाता है।  ये सचमुच पीड़ादायक है। जलसे का वह हिस्सा खत्म हो चुका है। श्रोता और दर्शक अब किसी और को देख सुन रहे हैं। अभी अभी का नायक पदच्युत हो चुका होता है। प्रसिद्धि और प्रयास काम नहीं कर पाते। वह अकेला रह जाता है।  इस समय अकेले में अकेलापन या निराशा नहीं आती वरन एक हताशा कठोर प्रहार करती है। इसलिए टूटन बेहिसाब होती है। वह जिस जन को एक स्थाई शोर और चीयर समझा था, वह क्षणिक ठहरा।  मैं और संजय एक बंद दुकान के पेढ़ी पर बैठे थे। कुछ ऐसी बातें कर रहे थे।  हमारे पास कुछ कहानियों और कुछ उपन्यासों की बातें थी। इनके बीच संजय ने व्यक्ति के वर्चुअल के स्पेस के बारे में सुंदर बात कही। ये इस समय का सच है।  मैं और संजय सोशल साइट्स

अलीजा की उनींदी आंख से गिरा लम्हा - दो

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सपने कितने अच्छे होते हैं न? पहाड़ की तलहटी, रेगिस्तान का कोई कोना या समंदर के किसी किनारे नीम रोशनी में एक दूजे के साथ होना और फिर वह प्यार करना, जिसे सोच कर जिए जाते रहे कि काश ऐसा हो।  हालांकि हम ऐसी ही जगह पर थे। ये अचंभा था। किसने सोचा था? चार पांच बरस पहले की दौड़भाग भरी मुलाकात के बाद, ये क्षण सचमुच आएगा।  हम दूर रहते हुए जितना कुछ सोचते थे, वैसा कुछ नहीं हो रहा था। हम मिलकर गले लगकर चुप बैठ गए थे। जैसे किसी बच्चे को उसके सपनों के संसार में बिठाकर कह दिया जाए, जल्दी करना हमें वापस जाना है।  कुछ नहीं सूझ रहा था। न तो कोई गहरे बोसे याद आ रहे थे। न हमने एक दूजे को बाहों में भरकर स्क्वीज किया। हालांकि हम ऐसी बहुत बातें करते थे।  उसने अपनी तर्जनी से मेरी बाईं हथेली पर कुछ लिखा। मैंने पूछा क्या?  उसने नज़रें नहीं उठाई। मैं भी खिड़की के कांच के पार धुंधले साए सोचने लगा। अचानक उसने कहा "लिखने से सचमुच आराम आता है?"  मैंने कहा "पता नहीं"  वह कहती है "मेरे पिताजी डायरी लिखते थे। वे देर रात को जब भी जागते डायरी लिखने बैठ जाते थे।"  मैंने कहा "हर कोई अपना

विष के मद से भरी सांसें

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कभी बरसों बाद उसी सूने रास्ते पर वो फिर दिख जाएगा, ऐसा कौन सोचता है।  मैं अक्सर टूटी हुई चीज़ों को सावधानी से छूता हूँ। दुख जब किसी को तोड़ते हैं, तब वे तेज़ किनारे छोड़कर जाते हैं। दुख नहीं चाहते कि फिर से उनको कोई गले लगाकर बिसरा दे और हमको फिर से तोड़ने आना पड़े।  वो बरस कौनसा था, दिल से ये भी मिट गया था। कुछ याद नहीं रहा। रूठकर बिछड़ने की जगह लड़ कर पीड़ा से भरे बिछड़ना हुआ था।   परसों अचानक एक तस्वीर दिखी। हम चारों एक ही बिस्तर पर सटे पड़े थे। गद्दे पर रखे हुए भरे भरे शराब के प्यालों से बेफिक्र थे। कि औचक कहा "इतनी जल्दी और इतना सारा क्यों पी रहे हो?" प्याला हाथ में लिए एक से दूजे कमरे फिर बालकनी और फिर घर के आगे सीढ़ियों पर बैठ गए थे। "ऐसे ही अच्छा लगता है। खासकर तुम आस पास रहो तो एक बार में ही ड्रिंक खत्म कर के तुमको देखता रहूं।   सब खत्म हो जाता है। मैं जब भी ये कहता तुमको बहुत शिकायत होती थी। भरोसा नहीं होता था। तब तुमको पता नहीं था। बाद में पता चला कि मैं डायरी में ककहरे भी सहेज कर रखता हूं।  पुरानी डायरियां पढ़कर ही मुझे विश्वास हुआ कि अब तक सबकुछ नष्ट ही तो ह

सूने स्टेशन पर रेलकोच

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हम दो तरह के लोगों एक बीच जीते हैं।  एक वे लोग, जो बार बार टकराते हैं। अनियतकाल के लिए पटरी पर दौड़े जा रहे डिब्बे के सहयात्रियों की तरह। एक दूजे से मिलते, दिखते और फिर अपने कूपों में कहीं खो जाते हुए। उदासीनता और अप्रेम से भरे हुए। किसी मजबूरी से बंधे, बाहर न भाग पाने की हताशा में उपलब्ध लोगों के साथ मुस्कुराते हुए।  दूसरी तरह के वे लोग होते हैं। जो चुपचाप आए थे और बिना कोई आहट किए चले गए। उनकी याद से अधिक उनकी उपस्थिति महसूस होती रहती है। रोज़ के जीवन में कभी कभार जैसे किसी सूने रेलवे स्टेशन पर गाड़ी रुकती है और हम कुछ क्षणों के लिए डिब्बे से उतर जाते हैं। ठीक ऐसे ही उन लोगों के पास पहुंचते हैं। उनकी लिखी चिट्ठियां खोजते हैं। पोस्टकार्ड देखते हैं। उनके लिखे ब्लॉग, कविताएं और कहानियां पढ़ते हैं। उनकी किसी तस्वीर में उनका अकेलापन पढ़ते हैं और फिर चाहते हैं कि वे खुश रहें।  जीवन की रेल अचानक फिर से चल पड़ती है। सब स्टेशनों से बाहर जाने के रास्ते बंद हैं।  कभी कभी लगता है कि असल में चौकीदार हमारे दिमाग पर ताला लगाकर चले गए हैं। और हम किसी भी स्टेशन पर उतरते ही रेल छूट जाने के डर से दौड़क

दही बड़े

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साढ़े पांच सौ किलोमीटर का सफ़र करना होता है इसलिए हम एक नियत गति से हाइवे पर चलते रहते हैं। गुप्ता जी के दही बड़े की दुकान अक्सर पीछे छूट जाती है।  उन्नीस सौ सात में आगरा से आकर खेमचंद जी गुप्ता ने ब्यावर और बर के बीच सेंदड़ा गांव में दही बड़े की दुकान खोली थी।  अब ये दुकान हाइवे पर है। इसे राहुल गुप्ता संभालते हैं। दुकान के आगे एक तिपहिया से सकोरे उतारे जा रहे थे। मैंने पूछा "इतने सारे"  राहुल कहते हैं "हमारे दही बड़े, रबड़ी और कलाकंद मुंबई तक जाते हैं। इन सकोरों में ताज़ा बने रहते हैं। हम हर रोज पार्सल तैयार करते हैं।"  दुकान के भीतर कुछ पोस्टर लगे हैं। इनमें राजनीति से जुड़े जुड़े लोगों की तस्वीरें हैं, जो गुप्ता जी के दही बड़े खाकर गए। कुछ एक ख़बरें हैं, जो इस दुकान के इतिहास के बारे में बताती हैं।  परिवार के लोगों की तस्वीरें भी हैं। उनमें एक अलग दिखते हैं। मैं पूछता हूं ये कौन हैं। राहुल जी बताते हैं कि जब पड़ दादा जी ने ये दुकान शुरू की थी, तब ये छोटे बच्चे थे। ये दुकान पर काम करने लगे। पड़ दादा और दादा लोग चल बसे लेकिन ये अभी तक हैं। इनकी उम्र सौ साल के पास