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Showing posts from January, 2019

दिल को ऐतबार न हुआ

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वो जो बात उसने कही थी। उसे वह ही जानता था। दिल के पास कोई ख़बर न थी, जो उसकी बात को झूठ कह सके। न दिल वहां गया, न दिल ने उनको देखा, न दिल ने जाना कि वहां क्या हो रहा था। इस सब के बाद भी दिल ने उसकी कही बात पर ऐतबार न किया। किसलिए? नहीं पता। उसने बार-बार समझाया। उसने रूठकर जाने की बातें कही और बार-बार लौटकर आया। उसने ऐतबार न होने को शक़्क़ी होना कहा। उसकी बातों एक सी-सा झूला हो गई। एक बात वह कहता कि तुम्हारे साथ होना मेरी भूल थी। दूजी बात कहता कि प्लीज़ मान जाइए। इन दो बातों के बीच अपमान, बेरुख़ी, चाहना और प्रेम की छोटी-छोटी असंख्य बातें बस गई थी। एक के बाद एक उलट बात पड़ती। दिल पत्थर बना खड़ा रहा। बरसों बाद सब सच साफ सामने खड़ा था। कि उसकी बातें ऐतबार के लायक न थी। उसने जो कहा वह सब आधा-अधूरा था। उसने जो जीया वह छुपा रखा था। मैंने एक लंबी सांस ली और देर तक सोचा। बहुत देर तक। आख़िर दिल को बिना जाने कैसे मालूम हुआ। दिल को सच कौन बता जाता है। कौन? इसके बाद मैं दिल पर भरोसा करने लगा। कुछ तीन चार बरस पहले दिल फिर से अड़ गया। मैंने चाहा कि उसका ऐतबार करूँ। माम

दुःख की पावती

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किस रोज़ पहली बार दुःख हुआ था, ये याद नहीं है। उसके बाद के दुःखों का क्या हुआ? ये भी ठीक-ठीक नहीं बता सकता। उन तमाम दुखों के बारे में बहुत छोटी लेकिन एक जैसी बातें याद हैं। दुःख एक विस्मय साथ लेकर आता था। असल में पहले विस्मय ही आता, उसके पीछे छाया की तरह दुःख चल रहा होता। विस्मय मेरे दिल को बींध देता। जैसे पारे से भरी सुई चुभो दी गई है। दिल तेज़ी से भारी होने लगता और मैं डरने लगता कि दिल धड़कना बन्द कर देगा। इसके अलावा मेरे हाथ-पैर शिथिल होने लगते। दिमाग में ठंडा लावा भरने लगता। दिमाग एक बोझ की तरह हो जाता। ये सब अनुभूतियां मिलकर समग्र रूप से एक दुःख के आने की पावती बनती। दुःखों के आने के प्रति मैं स्वयं को कभी शिक्षित न कर पाया। मेरे मन में उनके आगमन के लिए कोई स्थान न था। मैंने हर एक के लिए ऐसे जीवन की कामना या कल्पना की थी, जिसमें दुखों के लिए कोई स्थान न था। मैं रोज़ देखता था कि दुःख आस-पास तेज़ी से घट रहे हैं लेकिन उनके लिए स्थान कभी न बना सका। दुःख जितनी द्रुत गति से आया, उसके उलट जाने में उतना ही शिथिल रहा। कभी-कभी दुःख महीनों साथ बना रहा। इतने लंबे साथ से वह मेरा अपना हिस्सा

कभी प्यार नहीं किया मगर

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कभी-कभी मैं सीधे चलता हूँ। जैसे दाएं-बाएं देखे बिना बग्घी का घोड़ा चलता है। मेरे पांवों से टप-टप की आवाज़ आने लगती है। मेरे पांव एक दूजे को काटते हुए पड़ते हैं। मैं एक लंबे बालों वाली प्रेयसी में ढल जाता हूँ। उन बालों को देखे बिना मुझे ऐसा महसूस होता है कि मेरे बाल हवा में उड़ रहे हैं। मैं सोचता हूँ कि उन दो आँखों तक पहुंच गया हूँ। उन तक पहुंचकर मुस्कुराता हूँ कि उनकी आँखों में झांकते हुए मैंने बाइस्कोप देखते बच्चे की तरह अपनी आंखें दोनों हाथों से ढक ली हैं। मैंने कभी प्यार नहीं किया मगर...

काली रात उकेरने के लिए

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नींद जितनी भारी होती जाती, सुबह उतनी ही दूर रह जाती। कभी-कभी हमें पता होता है कि आज नींद नहीं आएगी। हम अपने आपको सुलाने में पहले नाकाम मान चुके होते हैं। ऐसी रातों में अक्सर मैं कुछ काम करने लगता हूँ। जैसे कि छत पर चले जाना। मैं अपने आपको वहीं चारपाई पर छोड़ देता हूँ। जैसे कोई माँ अपने नन्हे बच्चे को बन्द आराम कुर्सी में बिठा कर काम करने लगती है। मैं भी एक माँ की तरह अपने आप को वहीं छोड़ छत पर थोड़ी दूर टहलता हूँ। जब मैं टहलने निकलता हूँ तो चारपाई पर पड़े मैं को आराम आने लगता है। जैसे मेरे होने से उसे कोई उलझन थी। जैसे वह बन्धन में था। चारपाई पर पड़ा हुआ मैं अब तारे देखने लगता हूँ। कभी-कभी नज़र बहुत दूर तक नहीं जाती तब मैं लैम्पपोस्ट देखने लगता हूँ। अक्सर तो ऐसा होता है कि मैं लैम्पपोस्ट देख रहा होता हूँ मगर असल में देख नहीं रहा होता हूँ। अचानक चहलकदमी करता हुआ मैं अपने पास वापस आता हूँ तो लगता है कि मेरे होने से मुझे इतनी उलझन तो न थी। मैं अपने लौट आने को भला सा महसूस करता हूँ। इसके बाद मुझे ख़याल आता है कि फिर वो क्या बात थी? मैं क्यों परेशान और उलझन से घिरा था। नींद उड़ी ही

पढ़ते-पढ़ते - मनोज पटेल

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पुस्तक मेला से एक किताब खरीदी। एक ही किताब की चौदह प्रतियां। पांच प्रतियां पुस्तक मेला में बेहद प्यारे दोस्तों को उपहार में दी। तीन प्रतियां एक कैरी बैग में स्टॉल पर टेबल पर रखी थी। एक फ़ोटो खिंचवा कर वापस मुड़ा तब तक कोई इसी प्रतीक्षा में था कि उठा ले। उसने उठा ली। दुःख भरे दिल को तसल्ली दी कि अच्छा है कोई एक बेहतरीन किताब पढ़ेगा और मित्रो को बांटेगा। वह एक अच्छा चोर था कि अच्छी किताब चुरा सका। छः प्रतियां अपने उन दोस्तों के लिए लाया जो मेला नहीं जा सके थे। अब मेरे पास दो प्रतियां बचीं हैं। इनमें से एक सहकर्मी के लिए है दूजी आभा के लिए। हिंदी बुक सेंटर के स्टॉल पर मैं बार-बार गया। एक साथ इतनी प्रतियां लेना और उनको अपने पास रखना सम्भव न था। हिंदी बुक सेंटर वालों को बड़ा शुकराना अदा किया। वे भी अचरज में थे कि इस तरह कोई किसी किताब को चाहता है? उसका इंतज़ार करता है? मनोज पटेल अब हमारे बीच नहीं है। एक तमन्ना थी कि किसी रोज़ उनके साथ बहुत देर तक बैठा जाए। उनसे बात की जाए कि आपके क्लोन कैसे बनाये जा सकते हैं। किन्तु इस दुनिया में कुछ भी एक सा नहीं बनता। सब अपने आप में अनूठे

बहुत ख़ुश होने पर

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एक मैं हॉल में छूट गया था, एक मैं बैंच पर बैठा हुआ था। अंदर छूट गया मैं इंतज़ार से भरा था। निरन्तर किसी को देख लेने के इंतज़ार से भरा। बैंच पर बैठा हुआ मैं उस अंदर छूट गए मैं को देख रहा था। मैं उसके कंधे पर थपकी देना चाहता था। उसके मुड़ते ही गले भी लगाने का सोच रहा था। उससे कहना चाहता था- "चाहना के पास झीने पर्दे भी होते हैं। वे असलियत को ढक देते हैं" अचानक मुझे लगा कि चेहरों की एक लहर आई। इस लहर में भीतर छूट गया मैं घबरा गया है। वह जिसे देख लेना चाहता है, वह खो गया है। इस हाल में खड़ा वह देखता कहीं है, सोचता कुछ है और फ़ोटो किसी के साथ खिंचवाता जाता है। बैंच पर बैठे हुआ मैं परेशान होने लगा। मैंने अपने जैकेट की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला। मैं सिगरेट सुलगा रहा था तभी मुझे याद आया कि कल किसी से कहा था- "बहुत ख़ुश होने पर सिगरेट की तलब होने लगती है" सिगरेट सुलगाते ही मैंने देखा कि हॉल के भीतर खड़ा मैं उसी के इंतज़ार में है। जिससे मैंने सिगरेट और ख़ुशी की बात कही थी। इससे पहले कि हॉल के भीतर खड़ा मैं अपने इंतज़ार की अंगुलियां छूते हुए गलियारों में गुम

कोई भी नहीं लौट सकता

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मैं बैठ जाता तो  मेरे भीतर के आदमी को बेचैनी होने लगती।  इसलिए मैं उठ जाता।  बहुत दूर साथ साथ चलने के बाद  मैं थकने लगता लेकिन भीतर का व्यक्ति  मेरी थकान से अचरज में पड़ जाता। आखिरकार दिवस की समाप्ति पर  मैं देखता कि इस तरह बेचैन होकर चलने से क्या मिला?  तब मेरे भीतर का व्यक्ति सर झुकाकर बैठ जाता।  वह कनखियों से कभी-कभी मुझे इस तरह देखता  जैसे कह रहा हो, उस पल वहीं रुक जाते तो अच्छा था। हम दोनों उस पल तक लौट नहीं पाते।  कोई भी नहीं लौट सकता। वह केवल एक स्मृति या छवि में देखा जा सकने वाला पल रहा जाता है।

कभी बहुत बड़े आदमी हो जाएंगे

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"मैं आपके साथ एक फ़ोटो खिंचवाना चाहता हूँ" एक नौजवान ने ऐसा कहा तो मैं उसके पास खड़ा हो गया। उसने अपना फ़ोन सेल्फ़ी मोड में किया तो मैंने कहा- "यहां पर बहुत लोग है कोई भी हमारी फ़ोटो खींच देगा।" फ़ोटो हो जाने के बाद उसने मुझसे पूछा- "आप कौन हैं?" मैं मुस्कुराया। "मैं किशोर चौधरी हूँ। रेडियो में बोलने की नौकरी करता हूँ। राजस्थान से आया हूँ" उसने कहा- "मैं बहुत देर से आपको देख रहा हूँ। हर कोई आकर गले मिलता है और फ़ोटो खिंचवाता है।" मैंने कहा- "ये हमारी याद के लिए है। तस्वीरें हमें मुलाक़ातें और चेहरे याद दिलवाती हैं" उसने पूछा- "आप करते क्या है? मैं समझ गया कि उसका आशय है पुस्तक मेला में रेडियो वालों को कोई क्यों गले लगाएगा।" मैंने कहा- "मैं कहानियां लिखता हूँ। उधर देखिए। जो ऊपर एक किताब रखी है वह मेरी है" नौजवान चला गया। थोड़ी देर बाद किताब साथ लेकर आया। "सर इस पर साइन कर दीजिये" मैंने उनका नाम लिखकर साइन कर दिए।" किताब वापस लेते हुए कहा "मैंने सोचा कि आप कभी बहुत