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Showing posts from June, 2020

बहुत पुरानी तस्वीर

फिर मचलने लग गई दिल में हज़ारों ख़्वाहिशें आप की तस्वीर एक बरसों पुरानी देख ली। परवेज़ मेहदी साहब गा रहे हैं। आधा चाँद है। हवा बन्द है। किसकी तस्वीर याद आई? मैं सोचता हूँ तो कोई तस्वीर याद नहीं आती। किसी की भी नहीं। हम जिनसे खफ़ा होकर बिछड़ जाते हैं। स्मृति से उनकी तस्वीरें भी मिट जाती हैं क्या? एक लड़का, कभी एक आदमी और कभी एक अधेड़ खड़ा याद आता है। वह जिस से मिलेगा या जिस से मिल चुका है, वो दिखाई नहीं देता। केवल चौराहे के लैम्पपोस्ट, दुकानों की निऑन लाइट्स, ऑटो वाले और कैब वाले दिखाई देते हैं। वे सब जिनसे कोई शिकवा न था, सब स्मृति में बचे हुए हैं। जैसे रास्ते, मॉल्स, कहवाघर और अजनबी बिस्तरों वाली होटेल्स। लेकिन वे जो मिले, जिनको गले लगाया, चूमा, जिनके साथ रहे। उनकी सूरतें तस्वीरों से क्यों गायब है। मैं अक्सर मुड़कर नहीं देखता। किसी के पीछे भी नहीं झांकता। इसलिए कि हर पल एक नया आदमी हमारे साथ होता है। वह कहां क्या जी चुका है, उससे मुझे कोई लगावट नहीं होती लेकिन वह जो अभी मेरे साथ है, कल कहाँ होगा? ये सोचकर अक्सर घबरा जाता हूँ। हालांकि पुरानी तस्वीरों की स्मृति से सब ज़िंदा चेहरे गायब हैं और मुझ

तुम मेरे इंतज़ार में

मादक वनैली गन्ध और तुम्हारे नाम के बीच कितना कम फासला है। तीन दोपहरों से पसीना चू रहा था। मैं अपने अंगोछे से माथे का पसीना पौंछता था। उस अंगोछे से एक परिचित गन्ध आती थी। रंगों की गंध। मैं समझने लगता कि तुम भी कोई रंग ही हो। इस समय खुले आंगन में कुर्सी पर अधलेटा हूँ। सामने छपरे पर पसरी अमृता के दिल जैसे पत्ते अंधेरे में कहीं-कहीं चमक रहे हैं। पत्तों के ऊपर बादलों के असंख्य फाहे हैं। आकाश से हल्की बूंदें गिर रही है। कौन कह सकता था कि उमस की घुटन से भरा क़स्बा अचानक किसी ऊंचे पहाड़ी गांव सा हो जाएगा। बादलों के फाहों के बीच लोग चल रहे होंगे। लिबास नमी से भर जाएंगे। ठीक इसी तरह हम चुप रहते हैं। उसे कुछ कहते नहीं। उसका इंतजार करते हैं। बेख़याली में समझते हैं कि कुछ है नहीं। जाने दो। कहाँ रेगिस्तान और कहां वे पानी भरे बादल। एक रोज़ अचानक हम उनकी बाहों में पड़े होते हैं। न पड़े हों तो भी सोच सकते हैं कि ऐसा भी हो सकता है। कभी-कभी दूर बिजली चमकती है जैसे कंगन पर कोई रोशनी गिरी हो। कभी-कभी हल्की डूबी आवाज़ आती है जैसे कुछ गिर गया है। क्या? शायद, हमारे बेतरतीब पांवों से टकरा कर बिस्तर के किनारे रखी सुरम

सिगार बनाते आदमी की तरह

मैं तम्बाकू के गीले पत्तों के बीच सूखी हुई पत्तियां रखता हूँ। उनको गोल करके बांधता जाता हूँ। मेरी अंगुलियों में एक चरक सी बहती है लेकिन अंगुलियां इस तीखेपन की इतनी अभ्यस्त हो चुकी होती हैं कि वे तल्लीनता से लगी रहती हैं। एक तीखापन अंगुलियों की त्वचा को छूकर रक्त में घुल जाता है। मैं बहुत अधिक सोचता हूँ तब पाता हूँ कि सिगार बनाना भी एक नशा है। सुबह की ठंडी हवा बह रही होती है। कभी दोपहर की उमस में अंगुलियां भीग चुकी होती हैं। और अक्सर तो शाम ढल चुकी होती है। तम्बाकू के साथ अकेलेपन की गंध मिलकर एक नई ख़ुशबू बन जाती है। लकड़ी की कुर्सी पर अधलेटा होने से पहले सिगार एक ओर रख देता हूँ। बड़े कासे में रखे पानी में हाथ धोने लगता हूँ। सूती गमछे में हाथ पौंछते हुए पाता हूँ कि गमछा रंगों की उस ख़ुशबू से भरा है जिसे सिंध के लोग बनाते रहे हैं। ये क्या कर रहा हूँ। कुर्सी की पुश्त से पीठ टिकाये हुए आकाश की ओर देखता हूँ। बेरी के पत्तों के बीच से चिड़ियाँ जा चुकी होती हैं। शाखाएँ नीरवता से लदी होती हैं। आकाश में धुँआ नहीं दिखाई देता। तब लगता है कि दुनिया कोई जादुई मिट्टी का ढेला है। इस पर मैंने इतने सिगार बना

आम की ओर से चिड़िया को चिट्ठी

  उसका नाम होने को तो कुछ भी हो सकता था। न होता तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। उसका काम था शाखों पर झूलना। पत्तों से शरारतें करना। पेड़ को गाने सुनाना। उसका कुछ पक्का न था कि वह कब आएगी। वह अक्सर हवा के झौंके की तरह आती थी। आई और गायब। गायब और फिर से हाज़िर। कभी-कभी तो वह बार-बार आती। पलक झपकने भर के समय में वह कई बार आ जाती। खरगोश के लंबे कान जैसे पत्तों वाले चम्पा तक वह नहीं जाती थी। वह अक्सर अमृता की लता के सघन कोने में कुछ देर उल्टी लटकी हुई खोजबीन भरी निगाह दौड़ाती। फिर फुर्र से उड़ती हुई आक के फूलों में आ बैठती। वह गाना पहले सुनाती और अपनी चोंच से फूलों को बाद में छेड़ती थी। एक सुबह मुझे लगा कि आम का नन्हा पेड़ उसके आने का इंतज़ार करता है। वह आती तो आम के पेड़ को अपने पंखों की हवा तक न लगने देती। ये ख़याल आने के बाद मैं बार-बार आम और उसको एक साथ देखता। वे दोनों दूर-दूर होते मगर मैंने एक रिश्ता सोच लिया था। ऐसे रिश्ते को क्या कहूंगा? इसी उधेड़बुन में मैंने बहुत सारी बातें सोची। मुझे कोई ठीक बात हाथ न लगी। कोई पूछेगा तो कह दूंगा कि पेड़ उस चिड़िया के साथ इकतरफ़ा प्रेम में पड़ गया है। वह आकाश की ओ

तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम

नीले रंग के मकाऊ तोते उड़ते हुए आते हैं। मैं उनकी आंखों के पास बने पीले गोल घेरे देखने लगता हूँ। कभी अचानक बोहेमियन वेक्सविंग चिड़ियों का झुंड आ जाता जाता है। उनकी आँखों के ऊपर बनी स्याह बूमरेंग के नीचे सफेद लकीर में खो जाता हूँ। कितने ही सुंदर पंछी और उनकी बेहिसाब सुंदर आंखें मेरा मन बांध लेती है। एक रोज़ कभी तुम्हारी चमकती आंखों से उड़ते जादू के बादल मुझे घेर लेते हैं। मैं उस जादुई धुंध में सब पंछियों की आंखें भूल जाता हूँ। मैं इंतज़ार करने लगता हूँ कि तुम्हारी आँखें बोल पड़ेंगी। मैं कितनी ही बार तुम्हारी आवाज़ में अपना नाम सुनना चाहता हूँ। लेकिन अब मेरी चाहना कितनी अजीब हो गई है कि मैं चाहता हूँ तुम्हारी आँखें मुझे पुकार ले। शायद इसलिए कि तुम्हारी आवाज़ का बरसों इंतज़ार करने के बाद अब प्रेम और गहरा हो गया है। वह शब्दों से परे देखने में सुनना चाहता है। मेरा नाम कितना मामूली है और तुम्हारा पुकारना उसे कितना ख़ास बना सकता है। ये लिखना बहुत कठिन है।उतना ही कठिन जितना कि तुमको प्रेम करने से ख़ुद को रोक पाना। तुम्हारा साथ मुझे कितना नया कर देता है। मैं उस आदमी को भूल जाता हूँ जो कहना चाहता है कि मुझ

सूखे पत्ते की तरह

  हमारे बीच सीढ़ियां थी फिर भी हम ठहरे रहे। आकाश में सफ़ेदी में घुली नील जैसा छोटा सा बादल देखता हूँ। ऐसा लगता है कि आकाश इंतज़ार है। बादल एक उम्मीद है। सूने आकाश में बादल देखकर जून की उमस में तन्हा चुप खड़ा हुआ कोई पेड़ याद आता है। दूर तक पसरी धूप में छांव की एक गोल बिंदी याद आती है। रात होते ही आकाश वैसे दिखना बन्द हो जाएगा, जैसे अब दिख रहा है। अंधेरे में अनगिनत तारे चमकते होंगे। इंतज़ार का रंग स्याह हो जाएगा। याद की सिल्वर लाइनिंग फिर भी बादल को बचाये रखेगी। जैसे उम्मीद बची रहती है। अपनी नंगी बांहों पर हवा के भारहीन स्पर्श से ख़याल टूट जाते हैं। एक ठहरा हुआ बादल मन के विस्तार में किसी याद की तरह आहिस्ता सरकता जाता है। कुर्सी तक धूप आने वाली है। मैं कुर्सी पर इस तरह बैठा हुआ हूँ जैसे स्थिर पानी पर सूखा पत्ता पड़ा रहता है। कभी दाएं बाएं झांकता है और फिर अपने आप में खो जाता है। मन के तालाब में सूखे पत्ते की तरह कोई याद अकारण एक से दूजे कोने तक तैरती रहती है।

छितर जाना

  पानी पौधों के आस पास छितर गया है। आंगन की मिट्टी में पड़े पानी के पेच भले लग रहे। जलपात्र से बाहर बिखर गया पानी भी अच्छा लगता है। छितरा हुआ पानी देखकर लगता है कि पानी बोल रहा है। बीयर से भरा ग्लास और ग्लास से छलकती बीयर, चाय से भरा प्याला और चाय की तसली में छलक आई चाय के बीच भी बहुत अंतर होता है। वे जो भरे हुए हैं मगर छलके नहीं हैं, वे भरे-भरे नहीं लगते। छलक जाना ही भरा हुआ होना है, बाकी सब ने तो अधिक से अधिक बचाया हुआ भर है। मैं न छलकना चाहता हूँ न भरा-भरा रहना। मैं खाली रहना चाहता हूँ। लेकिन खाली रहना असंभव है कि खालीपन में मौन भरा होगा। मौन सरल होता या जटिल? मैं सोचने लगता हूँ कि मिट्टी की घण्टी से एक हल्की आवाज़ आती है। मिट्टी तांबे और कांसे की तरह नहीं बोल सकती लेकिन बोलती है। एक टूटे हुए बाजे के निचले सुर की तरह।

उदासी के फूल

वे किन बातों से खिलते हैं, ये नहीं मालूम। लिखता हूँ। लिखे हुए को पढ़ता हूँ तो लगता है कि ये ठीक है। कुछ देर आसमान को ताकता हूँ। कुछ हवा महसूस करना चाहता हूँ। उमस न होती तो क्या करता? ये सवाल आते ही ठहर जाता हूँ। कि सचमुच ऐसा क्या करना था कि मौसम सुहाना होता तो अच्छा लगता। कुछ भी तो नहीं। कभी कोई किताब साथ होती है। एक लैपटॉप के किनारे लगाने वाली एलईडी स्टिक है। उसे ऑन कर देता हूँ। कुर्सी की पुश्त से उसका क्लिप अटका देता हूँ। रोशनी किताब पर गिरती है। मैं अक्षरों को देखता हूँ। आस पास अंधेरा पसरा रहता है। कि अचानक किसी आवाज़ सरसराहट से अपने पांवों का सोचता हूँ कि क्या वे धरती से ऊपर हैं? पांव टेबल पर या पास रखी चारपाई पर रखे होते हैं। एक बार नीचे झांकता हूँ। छछूंदर घूम रहा है। वह अपनी नाक से कुछ टटोल रहा है। मैं क्यों अचानक चौंका? क्या हम कभी ख़ुद को बचा सकते हैं? शायद नहीं फिर भी हम चाहते हैं कि बचे रहें। खुद से कहता हूँ सब ठीक है। लिखे हुए को पढ़ता हूँ। सोचता हूँ कि ये किसके लिए लिखा है। इसे कहीं क्यों शेयर करना है। इसे पढ़वाने से क्या होगा। कोई ठीक जवाब नहीं मिलता। लिखावट में सब वे ही बातें