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Showing posts from November, 2018

मन अंधेरे से भरी भखारी है

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या तो रख लो या ठोकर मार दो। दो साल बाद अब मुझे इस बात के लिए आग्रह नहीं रहा। अब लगता है कि जैसे जो बीत रहा है, उसमें अधिक हस्तक्षेप न करो। किसी की भी प्रकृति और बन्धनों को जाना नहीं जा सकता। इसलिए उसे जगह और समय दो ताकि वह सांस ले सके। हो सकता है तुम्हारी ही तरह वह भी किन्हीं दूजी बातों की परेशानी में घिरा है। इतना उकताया हुआ है कि कुछ करना उसके बस की बात न रहा। हताशा ऐसी ही कि खुलकर रो भी नहीं पा रहा। सबके मन अंधेरे से भरी भखारी है, उसमें जाने कैसे कैसे डर बैठे हैं।

या उसका होना न होता तो अच्छा होता ?

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रंगीन पेंसिल की लकीर थी। आगे न बढ़ी तो रुक गयी। आहिस्ता आहिस्ता हल्की हो गयी। अब गौर से देखना पड़ता। किसका रंग था ये? बहुत अधिक बरस नहीं, बस कुछ एक बरस पीछे झाँकने पर याद आता। उसका चेहरा थोड़ा सा बनता। खाली छूटे हुए चेहरे के पार कोरा आकाश झाँकता। प्यार करते थे। जैसे नदी के किनारे की रेत और पानी। नदी कम पड़ती तो रेत आगे बढ़कर उस तक पहुँच जाती। रेत दूर सरकती तो पानी आगे बढ़कर उसे छू लेता। इस तरह एक साथ ही दिखे। पानी और रेत की तरह। मगर जिस तरह रंगीन पेंसिल की लकीर खो गयी थी, उसी तरह पानी दूजी तरफ बहा, रेत दूजी ओर उड़ी। एक पानी की लकीर शेष रह गयी। कैसे होता है ऐसा ? उन दिनों वही सब कुछ लगता। इन दिनों उस होने के बारे में सोचकर ठहर जाते हैं। समझ नहीं आता कि वो जो हुआ, वह अच्छा था या उसका होना न होता तो अच्छा होता। झड़े हुये फूलों के रंग उड़े हुये हों ज़रूरी नहीं। कई बार रंग गहरे होते जाते हैं। मन श्वेतपट्ट है। बुझी बुझी लकीरों से भरा। दिल, रेत के धोरे की उपत्यका है, जिसमें एक सूखी नदी बहती है। ये कितना उदास दृश्य है। इस दृश्य से अधिक सुंदर भी क्या होगा?  * * * लेखक भले ही चला

कोई बतलाओ कि

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हमें हमारे बारे में क्या बताना चाहिए और जो हम बताएंगे क्या वह पर्याप्त और उचित होगा? क्या उस सबके होने से हम ये कह पाएंगे कि जीवन का ठीक उपयोग कर सके। ठीक न सही, क्या इतना भर कह पाएंगे कि जीवन जैसे जीना चाहते थे वैसे जिए। अगर न जी सके तो क्या ये कह पाएंगे कि हमने कोशिशें ईमानदारी से की थी। अगर हम अपने बारे में बताना चाहें। मैं अगर अपने परिचय में एक काफी लम्बी उम्र के बारे में लिख दूँ। जीवन जीने के लिए किये कार्यों का ब्यौरा दूँ। जैसे मैंने अख़बारों और पत्रिकाओं में लिखना सीखा। मैंने रेडियो के लिए बोलने का शऊर जाना। मैंने आत्मा में कीलों की तरह चुभी हुई घटनाओं को कहानी के रूप में कहकर मुक्ति चाही। प्रेम के वहम में जो महसूस किया उसे कविता की तरह बातें बेवजह कहकर एक ओर रख दिया। क्या रेडियो ब्रॉडकास्टर होना, पत्रिकाओं के पन्नों पर अपनी तस्वीरों के साथ छपना, कहानी की किताबों वाला कहलाया जाना कोई बड़ी बात है? पक्का नहीं ही। ये कहना कि मैं अपनी किताबों का प्रचार नहीं करता भी एक तरह का प्रचार है। ये कहना कि मैंने जो किया उससे कोई मोह नहीं है, ये भी एक तरह से अपने विगत का

जागती आँखों के बाद

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रात भर स्वप्न झड़ते हैं  मैं एक बेंच पर बैठा हुआ इस बरसात को देखता हूँ। झड़ते फूलों और सूखे पत्तों को हवा बुहार कर ले जाती। घास के किसी बूझे में कोई पत्ता ठहर जाता। कोई फूल किसी गिरह के साथ किनारे अटक जाता। हवा रुककर फिर से बहती। हवा के साथ और सूखे पत्ते और फूल आ जाते। झड़ जाने के बाद हम एक नयी इच्छा पा सकते हैं। झड़े हुये पत्तों और फूलों के साथ बहते जाने की इच्छा। पीले, हल्के गुलाबी और ऐसे ही उड़े-उड़े रंगों के बीच अपना प्रिय रंग खोजने की इच्छा। हम कहाँ जाएंगे। हवा कहाँ ले जाएगी? जिस तरह शाख से बंधे होने पर किसी से प्रेम करने के लिए कहीं जाया न जा सका। न कोई आ सका। क्या इसी तरह टूट बिखर जाने के बाद भी हम अलग कहीं उलझ जाएंगे? क्या मौसमों को पार करते हुये बहुत दूर पहुँच कर भी एक लम्हे को ठहरना और फिर बिछड़ जाना है? सफ़ेद कुर्ते पर जेब के पास नीले, लाल, पीले रंग फैलने लगते हैं। जैसे जेब में पानी के रंगों की टिकड़ियाँ रखीं थी। पतझड़ को देखकर उदासी में भीग गयी हैं। अब सब रंग फैलते जा रहे हैं।  * * * दायीं और हाथ बढ़ाता हूँ। पिछले महीनों तीन चश्मे टूट गए थे। इसलिए नीम न

होर्डिंग्स से ढके शहर

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शहरों को मल्टी नेशनल कम्पनियों के होर्डिंग और स्टोर्स व रेस्तराओं की चैन ने एक सा लुक दे दिया है। संकरी गलियों में भी एक से डिस्प्ले लगे हुए। अगर किसी की आवाज़ न सुनाई दे तो लगता ही नहीं कि किस महानगर में खड़े हैं। इन एमएनसी का नाश हो। हम शहरों को उनकी अपनी लिखावट, दीवारों, मेहराबों और कंगूरों से पहचान सकें। हम चमचमाती रोशनी से परे चेहरों के दुख सुख पढ़ सकें। हम हर जगह पूछ सकें कि ये रास्ता कहाँ जाता है। बताने वाला भी सोचे कि परदेसी है इसे बताने की ज़रूरत है। जिस कलकत्ते पर चम्पा बजर गिरने सा क्रोध करती थी। उसी कलकत्ते से प्यारे बांग्ला लोगों का प्रेम लेकर लौट आये हैं। कल कलकत्ते की दोपहर गरम थी। आज सुबह का रेगिस्तान बहुत ठंडा मिला। तस्वीर परसों शाम की है। पिता पुत्री बंगाली शादी के रिच्युअल्स देखते हुए।

जयपुरी पगड़ी वाले गांधी जी

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हेनरी डेविड थोरो एक विचारक थे। उनका मूल विचार था कि संसार में स्वविवेक से बड़ा कोई कानून नहीं है। गांधी जी को थोरो का ये चिंतन प्रिय था। गांधी जी ने भी आत्मपरीक्षण सम्बन्धी काफी प्रयोग किये। अपने अनुशासन पर काम किया। रेगिस्तान का प्रिय विचार है कि "माथो तावड़े में नी तपणो चाइजै" इसलिए गांधी जी को किसी जयपुर वासी ने पगड़ी पहना दी है।  * * * तस्वीर आज सुबह ली थी। अभी तो दिल्ली जा रहा हूँ। शताब्दी वालों ने फटाफट सेन्डविच नमकीन पॉपकॉर्न और पानी पुरस दिया। सारे यात्री जैसे इसी इंतज़ार में थे। भूखी अवाम की तरह टूट पड़े। मैंने आभा से कहा- "इतनी हड़बड़ी में सबको एक साथ खाना शुरू नहीं करना चाहिए।" आभा ने कहा- "क्या दिक्कत है?" मैंने कहा- "ये सब चीजें यहां तक कि सेन्डविच ठंडे ही हैं।" "तो ?" "बाड़े जैसी फील आ रही है" मैंने ध्यान दिया कि नमकीन आ गई लेकिन ग्लास नहीं आया। मुझे इस चिंतन में देखकर आभा ने पूछा- "क्या सोच रहे हो?" "नमकीन आ गई लेकिन ग्लास और बोतल अभी नहीं आये।" आभ

जयपुर में एक दीवार पर स्वप्ना बर्मन

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रेलवे स्टेशन के आगे गांधी जी जयपुरी पगड़ी पहने खड़े थे। मैं डिस्प्ले में देखने लगा कि गुवाहाटी एक्सप्रेस कितनी देर में आएगी। दस मिनट बाकी थे। आठ बजे आभा ने उठाया। मैं बिना मुंह धोए, रात जो कपड़े पहनकर सोया था, उन्हीं में रेलवे स्टेशन चल पड़ा। "आप ऐसे ही जायेंगे?"  मैंने कहा- "मुझे जयपुर में कौन जानता है?" स्टेशन से बाहर आते ही मैंने दुष्यंत को कहा- "जयपुरी पगड़ी में गांधी जी का फ़ोटो तो बनता है"  दुशु ने कहा- "मैं नहीं ले रहा"  मैंने कहा- "सोचो गांधी जी भी बहुरूपिये होते तो कैसा होता। कभी सरदार पटेल बन जाते, कभी नेताजी सुभाष बन जाते, कभी गोरों जैसे सूट बूट पहन लेते, कभी आदिवासी बनकर परिंदों के पंखों वाली टोपियां पहन लेते तो?" दुशु ने कहा- "आपको कैब मिली?" कैब वाले चार सौ रुपये मांग रहे थे। डेढ़ गुना पैसा लगेगा। अभी ट्रैफिक ज़्यादा है। हम पैदल चलते हुए जयपुर मेट्रो तक आ गए। वहां भी बहुत भीड़ थी। कोई पचास एक बंदर तो अंदर भी न जा सके थे। वे मेट्रो एंट्रेंस की दीवार पर ही इंतज़ार कर रहे थे। फिर सवा तीन सौ में ओला

प्रियंका गोस्वामी की आवाज़

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जीवन हमें भीतर से बुहारता रहता है। एक दिन हमारे पास कुछ नहीं बचता। न सुख न सन्ताप। ये कल सुबह की बात है। रेल के स्लीपर कोच में साइड बर्थ पर हम आमने सामने बैठे हुए थे। मैंने अपने इयरफोन देते हुए कहा- "सुनो" "कौन है?" "एक रेडियो प्रजेंटर है। मेरी ताज़ा पोस्ट पढ़ रही है" ढाई मिनट बाद कहा- "वाह! बहुत अच्छा पढा। ड्रामा की आर्टिस्ट है क्या?" मैंने कहा- "दोस्त है लेकिन मेरी कभी बात न हुई।" "अच्छा। ये आवाज़ तो आपकी उस दोस्त से ज़रा-ज़रा मिलती भी है" "कौनसी?" "अरे वो जिसके दो बेटियां हैं" दफ़अतन तीन नाम एक साथ कौंधे। मैंने पूछा- "क्या आप सचमुच उसका नाम भूल गयी हैं?" जवाब में सलवटों भरी पेशानी हाँ की तरह हिली। मैंने जो नाम लिया वह ग़लत ठहरा। दूजी बार में उत्तर सही हो गया। * * * समदड़ी रेलवे जंक्शन है। जब से मैंने इस गांव के बारे में सुना था तब से यही जाना कि इस गांव की कोई कल्चर नहीं है। वे जगहें जहां पर अलग दिशाओं से प्रवासी आते और बसते गए। जहां से दो से अधिक दिशा को रास्ते जाते हों, वे अनेक संस्कृतियों के संगम ह

हम जिन को खो चुके हैं

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जिस बरस वह लड़की मिली थी, मैं उस बरस की तसवीरों तक गया। मुझे देखना था कि मैं उन दिनों कैसा दिखता था। आह ! क्या हाथ लगा पता है? एक बिखरा टूटा हुआ आदमी। एक ठोकर उसके सामने खड़ी थी। वह उदास, शिथिल था। वह न आगे बढ़ पाता था, न ही लौटना उसके बस की बात थी। ऐसे हाल में भला क्या किसी को वे बातें पसंद आई होंगी, जो रिस रहे खून की तरह बहती गाढ़ी स्याही से लिखी थी। कभी-कभी स्याही से नमी की तरह जीवन से प्रेम उड़ जाता है। गाढ़ा बिछोह शेष रह जाता है।  * * * फ्रीज़ेश कारीन्थी की एक कहानी है- एक तरफा प्यार। कहानी का नायक जिससे प्रेम करता है, उसी से विवाहित है। वह उसे प्रेम नहीं कर पाता। उसे लगता है कि हमारे बीच की वासना प्रेम में बाधा है। वह उसके साथ रहते हुये, उससे दूर रहना चाहता है ताकि उसे प्रेम कर सके। इस कहानी को मैंने दो हज़ार दस में पढ़ा था। आठ साल बाद ठीक से याद नहीं है कहानी क्या कहती है। अब उस कहानी को कभी दोबारा पढ़ूँगा तो वह नए अर्थ में समझ आएगी। जैसे हम जिन को खो चुके हैं, उनसे नए सिरे से मिल सकें तो वे काफी अलग जान पड़ेंगे। हमें लगेगा कि जिन बातों के लिए दुखी रहे, वास्तव में वे ऐसी थी

नीले रंग के फूल

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"डू यू एवर फील गिल्ट?" मैंने उसकी ओर देखा। प्रश्न मुझसे टकरा कर बूमरेंग की तरह उसके चेहरे पर ठहरा हुआ था। स्थिर, शांत और प्रतीक्षारत चेहरा उत्तर का आकांक्षी था। प्रश्न दो चेहरों के बीच का सबकुछ बुहार के ले गया था। वहां एक निर्वात उग आया था। मैंने कहा- "ना" मेरे उत्तर को शायद उसने सुना नहीं। उसकी आंखें लगातार मेरे चेहरे को देख रही थी। मैंने भी अपलक उसे देखा। उसकी ठहरी आंखें और होंठ एकजुट थे कि कहीं कोई विचलन न था। ऐसा विचलन जिससे समझा जा सके कि प्रश्न उत्तरित मान लिया गया है। सहसा लगा कि उसके होंठ हिल रहे हैं। उनका हिलना इतना कम था कि अगर मैं पूरी तरह वहीं न होता तो इसे मिस कर देता कि उसने अगला प्रश्न पूछ लिया था। "कैसे" मैंने अपने होठों के किनारों को नीचे की ओर खींचा। जैसे मैं अपने उत्तर के बारे में आश्वस्त तो हूँ मगर ये ऐसा क्यों है, नहीं जानता। "इसलिए कि मुझे ये चाहिए। मैंने इसके होने पर सबसे बुरा परिणाम सोच रखा है।" अब उसके होंठ कुछ हिलते हुए दिखे। उसने कहा। "आई थिंक इट्स एन इनएस्केपेबल ट्रैप" उसकी आ

स्याह फ़टे हुए पलीते की तरह

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ले गया छीन के कौन आज तिरा सब्र ओ क़रार  बे-क़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी। उस की आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू  कि तबीअ'त मिरी माइल कभी ऐसी तो न थी। ~ बहादुर शाह ज़फ़र  (24 October 1775 – 7 November 1862) दीवाली है। दफ़्तर से घर आते समय रास्ते सुनसान थे मगर आसमान में आतिशबाज़ी दिख रही थी। जैसे हम किसी मोहब्बत में चटकने लगते हैं। हमें चटकाने वाला शरमाता रहता है लेकिन हम नए-नए ढब से खुलना चाहते हैं। एक रोज़ शोरगर हमको छोड़कर चला जाता है। हम एक स्याह फ़टे हुए पलीते की तरह शेष रह जाते हैं। नए दिन हमको छोटे बच्चों की तरह ठोकरें मारते हैं। लेकिन हम उस बच्चे का इंतज़ार कर रहे होते हैं जो बुझे हुए बारूद में सलामत शोर खोज रहा होता है। ये एक उम्मीद भर है। कोई जवाब नहीं आता, कोई अंगुली हमको नहीं चुनती। इसलिए दीवाली को इस तरह सजा लिया है। चीयर्स।

मेरी धंधे पर नज़र है

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एक करोड़ नौ लाख पाठक क्या पढ़ते होंगे सोचिये। व्हाट्स एप यूनिवर्सिटी को कोसते न रह जाना। महान होने को दिखावा करने वाले इन दम्भी व खोखले समाचार पत्रों का हाल भी लेते रहना। शेर ठीक याद नहीं और शायर का नाम भूल गए। वैसे भी कलियुग के बाद चौर्ययुग चल रहा है। झूठ भाषण इस युग की आत्मा है। और फिर बशीर बद्र साब अपनी याददाश्त खो ही चुके हैं। जिस दिन से चला हूँ मेरी मंज़िल पे नज़र है आँखों ने कभी मील का पत्थर नहीं देखा।  ~ डॉ बशीर बद्र

ज़िन्दगी असल में भूल भुलैया है।

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रात उसने कहा- "के, यू नेवर मिस मी" एक हल्का सा पॉज आया। इस पॉज में उसने शायद हल्की आह भरी। मैंने कहा- "इतने समय बाद बात करो और वो भी दोष लगाने के लिए" उसने कहा- "दोष नहीं है। पर ऐसा ही है। मैं जब तक आगे होकर बात न करूँ, आपकी ओर से कोई कॉल, कोई मैसेज नहीं आता" रात का मौसम बहुत अच्छा था। हल्की ठंड थी। चांद गायब था। पुल पर आधी चूड़ी की तरह सिलसिले में लैम्पपोस्ट चमक रहे थे। छत पर बिछी दरी पर लेटे हुए मैंने देखा कि साफ तारे दिख रहे थे। "अच्छा एक बात बताओ"  "क्या" "कुछ नहीं जाने दो" "अब पूछ लो" "कभी-कभी हम दुनिया की दौड़ में शामिल हो जाते हैं। जब थकते हैं तब याद करते हैं कि वो कौन था? जिससे बातें करते हुए सुख था। जिसके साथ चाय-कहवा पीते, जिसके साथ आंखों ही आंखों में शरारते करते हुए एक हंसी खिलती थी।"  "हाँ" "ये वो लम्हा है। इसलिए मुझे फोन किया" "सच कहते हो। लेकिन मैंने हमेशा याद किया" बहुत बरस पीछे। बेहिसाब खोये रहने के दिनों की किसी शाम का कोई टुकड़ा याद आय

फेसबुक लाइक कोई पैमाना है?

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गांव का एक लड़का है। फेसबुक, इंस्टाग्राम और यहां तक कि ट्विटर पर भी एक्टिव है। सोशल मीडिया के बारे में मुझे पक्का विश्वास है कि वह शहरों से अधिक गांवों में लोकप्रिय है। गांवों को सोशल मीडिया की अधिक आवश्यकता रही है। वही दस बीस चेहरे रोज़ देखना वही खेत के मेड़ की लड़ाई, वही हर रैवाण में दिखने वाले लोग, काम करने उसी रास्ते खेत जाना और आना। वही बोरड़ी और वही बुआड़ी। इसलिए गांव के लोगों के लिए दुनिया देखने, उनके बीच पंचायती करने के लिए सोशल साइट्स अद्भुत सुविधा बनी। शहरी लोग काम करने को यात्राएं करते हैं। उनके सहकर्मी बदलते रहते हैं। कभी जाम, कभी केंसिल होती बस रेल सुविधाएं उनको नए चेहरे और रास्ते दिखाती रहती हैं। वे मॉल्स में जाकर, मल्टीप्लेक्स में जाकर, पब में जाकर अपनी ऊब को स्थानांतरित करते रहते हैं। वे शहरी जो गरीब हैं, सम्पन्न शहरियों की जीवनशैली की आलोचना और ईर्ष्या में स्वयं को बिताते रहते हैं। शहरों की ऊब और गांव की ऊब में केवल गति का अंतर है। गांव में मारक शिथिल गति से ऊब सरकती है जबकि शहरों में द्रुत गति से ऊब फ्लाईओवर लांघती जाती है। गांव के इस सरल लड़के का राजनीतिक ज्