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Showing posts from 2021

एक और बरस का अवसान

एक रस्म सी बन गई है तुझे भूल जाने को, तुझे ही याद करना।  क्या कुछ नहीं बीतता। सब कुछ। माने कोई शै नहीं जो साथ बनी रहे। उदास, हताश, अवसाद से भरे मगर फिर भी किसी आस में कभी मुस्कुराते हुए कभी बेख़याली में कहीं चल पड़ते हैं। जब चल नहीं सकते तो चले जाने का स्वप्न देखते हैं।  मैं हर बरस की आख़िरी शाम एक पोस्ट लिखता हूँ कि बरस कैसा था?  इस बार याद ही नहीं कि शहर, देश और दुनिया में क्या घटा। कौन किस तरह, किस राह चला गया। क्या था जिसकी आस थी और इंतज़ार में उसी ढब बैठे रह गए।  अपनों की पार्थिव देह से पटी हुई धरती को देखना सबसे भयावह था। पूर्व की पीढ़ियों की ज़ुबान से यदाकदा सुने गए महामारी के किस्सों में जो दहशत थी। उसी को अपनी आंखों से देखना, यही इस बरस का नग्न सत्य था। जिस पर डाले जा रहे पर्दे मौन आहों से चाक होते गए। आंसुओं का सैलाब पार्थिव देहों पर पड़ी ज़रा सी रेत को बहाकर ले गया।  ये अविश्वसनीय, दुःखद और असहनीय था।  समाज को बांटने वाली ज़ुबादराज़ राजनीति ने पिछले दशक में दुनिया के हर देश के नागरिकों को बांटा। इसी मंत्र से सत्ताएं हथियाई गईं। राजनीतिक हमले किए गए और मनुष्यता की गर्दन पर पांव रखकर ना

बहाने से

 सब चकचकाचक है मगर  अक्षय कुमार सज्जाद अली खान बने। हिन्दू लड़की से प्रेम किया और जान गवां दी। ये लक्षण सही नहीं है। कुछ तो गड़बड़ है।  मुझे फ़िल्म देखने और समझने का शऊर नहीं है। शायद इसलिए फ़िल्म देखने का मन भी नहीं होता। हालांकि मैं बहुत बार फ़िल्म देखना आरम्भ करता हूँ मगर हद से हद पंद्रह मिनट देख पाता हूँ।  मेरे भीतर अकूत ऊब है। वह मुझे एक जगह टिकने नहीं देती। कभी-कभी तीन-चार घण्टे कविता और कहानी पढ़ लेता हूँ। कि वहां तुरंत स्किप करके सर्फ किया जा सकता है। बस फ़िल्म ही है जो सब कलाओं को समेटे होती है उसे तुरंत स्किप नहीं किया जा सकता इसलिए बर्दाश्त के बाहर होने पर ही छोड़नी पड़ती है।  आज सुबह आकाश बादलों से ढक गया। मुझे लगा कि छुट्टी के दिन यही मौसम होना चाहिए। बिस्तर में घुस जाएं। कुछ पढ़ते देखते रहें।  हॉटस्टार पर नई फ़िल्म दिख गई। अतरंगी रे। न देख पाने की आशंका के साथ देखना आरम्भ किया। मैं मुस्कुराया।  अतरंगी रे आप देखिए। पूरी फ़िल्म में अनेक फ़िल्मों के अंश याद आते रहेंगे। कटपेस्ट की बेहिसाब कारीगरी साथ चलती रहेगी। एक कमी खलेगी कि फ़िल्म में कोई वल्गर सीन या डायलॉग नहीं है। इस कमी के लिए आप शु

छीजने की आहट

मन एक तमाशा है  जो अपने प्रिय जादूगर का इंतज़ार करता है। शाम से बालकनी में बैठे हुए सुनाई पड़ता है। तुम कितने कोमल हो सकते हो? खुद से पूछने पर कोई हैरत नहीं होती। न मुड़कर देखना होता है कि किसने पूछा।  मगर सवाल छुअन होता है। कभी स्मृति में ले जाता है।  मन के सम्बंध के छीजने की आहट को सुनकर बस अपनी नज़र भर उठाकर वीराने को देखते हो। तुम चुप बैठे रहते हो। क्या कुछ टूट जाएगा, ये नहीं सोचते। बस एक ही बात रह रहकर जंगली घास की तरह आस-पास हिलती हुई महसूस होती है। ये सब क्या हुआ?  तुम जानते हो कि हवा उस ओर बह रही है जबकि तुमको दूर से हिलता हुआ हाथ ऐसे दिखाई देता है, जैसे वह इधर आ रहा है।  तुम हल्की स्याह शाम में मुस्कुराते हो मगर छीजत उस मुस्कान पर उतर आती है। तुम मुंह फेरकर दूजी ओर देखते हो। जबकि तुमको देखने वाला कोई नहीं होता। वह जो दूर से हिलता हुआ हाथ है, असल में वह जा चुका और स्मृति उसके होने का भ्रम है।  डायरी का पहला पन्ना छूने से पहले सोचने लगते हो कि वह जो जीया, उस से अधिक खराब कैसे जीया जा सकता था।  अचानक ठहरी हुई शाम तुम्हारी हंसी से भर जाती है। तुम अपने आपको माफ कर देते हो। छीजत फिर से

सर्द रात

एक सस्ती सराय के कमरे में रात दूसरा पहर ढल गया था। मेज़ पर मूंगफली और निचुड़े नींबू पड़े थे, वह सो चुका था।  लिफाह बेहद ठंडा था। ओलों के गिरने का शोर बढ़ता जा रहा था। शराब के नशे से भरे दिमाग पर दस्तकें बढ़ती ही गई तब वह जागा। रात का एक बजा था। दरवाज़े के भीतर आती हुई औरत का चेहरा खुला था। काँधे पर शाल तिरछी पड़ी थी जैकेट भीगा-भीगा सा था। औरत की आंखों में एक बेचैनी थी।  उसने सिगरेट के लिए दाएं बाएं देखा तब तक औरत लिहाफ के भीतर घुसकर सो गई थी।  इंतज़ार कभी-कभी हिंसक बना देता है। शराब न पीने वाली औरत के होंठों पर उसने शराब की गंध से भरा मुंह रख दिया। औरत को प्रेम था या न था मगर इतनी बेसब्र चाहना थी कि हिंसा मद्धम आंच की तरह उगने लगी।  वह उसके बदन की ज्यामिति से भली भांति परिचित था। लेकिन हिंसा उसके बदन से पहला परिचय कर रही थी। वह उसे अपने आगे लेकर एक हूकते सियार में ढल गया था।  चौपाई हिंसा से लिहाफ गिर गया। रात की सर्द अकड़ गुम हो गई। वह कुछ देर उसकी छातियों में सर रखकर पड़ा रहा। जब तब उसकी पीठ को टटोलता। औरत की टांगों पर बहुत सारे बचपन के घावों और चोटों के बचे निशान उसे लिहाफ के भीतर अंधेरे में द

सब कुछ किसी स्याही में

चाहनाएं तुम्हारा पीछा करती है दिल दीवार की तरह चुप खड़ा रहता है। रेगिस्तान में दिन की तपिश भरी आंधियां रात को मदहोश करने वाली हवा में ढल जाती हैं। एक नशा तारी होने लगता है। बीत चुकी बातों और मुख़्तसर मुलाक़ात की याद किसी भीगी छांव की तरह छा जाती है। कभी किसी शाम धूल उतरती नहीं। आकाश के तारे दिखाई नहीं देते। सब कुछ किसी स्याही में छुप जाता है। उस वक़्त बन्द आंखों में कोई बेहद पुराना स्वप्न टिमटिमाने लगता है। जाने कब नींद आ जाती है कि स्ट्राबेरी जैसा चाँद देखना रह जाता है। जबकि वह ठीक बाईं और चमक रहा होता है। इस चाँद को देखने वाली चाहनाएँ उस जगह जा चुकी है। जहां तुम हो। मगर फिर भी...

तीज का चांद

शाम ढल रही थी। डूबते सूरज के ऊपर चाँद खिला था। रेगिस्तान के घर की छत पर आहिस्ता रोशनी का पर्दा गिर रहा था। दफ़अतन अंगुलियां स्क्रीन को छूती और फिर मन उन तस्वीरों को देखने से मुकर जाता कि उसने कहा था "ये मैं नहीं हूँ।" एक बार नज़र आसमान की ओर गई तो दिल धक से रह गया। ये चाँद कौनसा है। बचपन में किसी ने कहा था चौथ का चांद मत देखना। अपने ही भीतर गुम रहना। अकसर तारीखें भी याद नहीं रहती तो तिथियों का हिसाब नामुमकिन था। कोई चाहना रहे तो मन हर कुछ खोज आता है। वह भी जो वह नहीं है। ये चौथ का चांद न था। आसमान में तीज का चांद चमक रहा था। क्या ये अच्छा है? पता नहीं। एक सिगरेट टिमटिमाती रही जिस में उसकी सांसें नहीं घुली थी।

जो होना है

सौ दर्द उठाए, तड़पे रोए, बेचैन फिरे कि जी न सकें। सुबह खिले और पल में कुम्हलाए। बाल बनाए चेहरा धोया। बाइक उठाई दफ्तर को गए। शाम ढले उल्फ़त की दुकान पर खड़े-खड़े जब थक से गए। तब घर लौटे। कभी पीने बैठे तो पीते ही रहे। कभी देखा ही नहीं सूंघा ही नहीं। कभी मिले तो कसकर यू गले लगे जैसे ये आख़िरी लम्हा हो। कभी याद किया तो मुस्काए। कभी सोच लिया तो उठ बैठे कि क्या सबकुछ ऐसे ही चलना है। कभी किसी नई सूरत पे आंखें कुछ देर रही। फिर हंसते हुए सोचा जाने दो। कैसे भी रहो और कुछ भी करो वो जो होना है सो होता है।

कितना।

मैं एक उड़ती निगाह से उसके चेहरे को कितना पढ़ सकता था? चेहरे को देखा तो लगा कि शांति पसरी हुई है। उसके होंठ अधखिले बन्द हैं। आंखें मौन से आच्छादित। कुछ लटें जो बढ़कर गालों को चूम लेना चाहती थी, सिखलाए बच्चे की तरह बैठी थी। पानी मोड़ पर जिस तरह हल्का बल खाते हुए उचकता है मैंने उसी तरह मुड़कर देखा था। सोचा कुछ कह दूं। फिर मैंने मौन की गहराई में तलछट तक झांकना चाहा मगर देख न पाया। स्वयं से कहा- "चुप रहो।" शायद झिझक थी। पहचान में बची हुई अजनबियत की झिझक। बहुत बरसों से थोड़ा सा जानने की और उस क्षण तक कुछ न कहे जाने की झिझक। सोच की वनलता पर झूलते हुए मैं बालकनी से बाहर झांकने लगा। पत्तों के बीच अकेली चिड़िया ने जाने किसके लिए गाया। आस-पास कोई न था। मुझे लगा कि गाना सुख को सींचना होता होगा। या किसी ने कहा होगा कि हम मिलेंगे तुम गाते रहना। दाएं बाएं दो तीन बार पल भर की निगाह डालकर चिड़िया उड़ गई। क्या सब ऐसे ही बिना किसी इच्छा से बंधे उड़ सकते हैं। कि अभी यहीं थे और अब नहीं हैं। दोपहर उतर आई है। दूर तक धूप है। आकाश में रेत है। हवा में सरगोशी है। छतें सूनी है। सड़कें खाली हैं। बस एक मेरा मन है,

"शुक्रिया" मैं मुस्कुराया

अगर हम समझ सकें तो हर शै हमसे कुछ कहती है। इस दुनिया के स्थूल कारोबार से बहुत दूर अपने सघन एकांत में कभी हम दीवारों, पत्थरों, रास्तों, पंछियों से अपने मन की कोई बात कह बैठते हैं। हमें किसी अबोले सजीव या निर्जीव से बात करते हुए कोई देख ले तो वह कह उठेगा "ये दीवानापन है। पागल हो चुका है।" मैंने लोगों को बातें करते देखा है। मुझे अजीब लगता था। मैंने ऐसे लोगों के बारे में सुना कि वे बड़बड़ाते रहते हैं। मैंने ये मान भी लिया था कि ये केवल नीम बेहोशी में फूट रहे अस्पष्ट शब्द भर है। किंतु किसी रोज़ मैंने थककर दीवार का सहारा लिया। एक बीस साल का लड़का इतना थक चुका था कि पहली बार उसे लगा दीवार ने थाम लिया है। वह साथ खड़ी है। दीवार के पास बहुत देर खड़े रहने के बाद अचानक लगा कि उसे धन्यवाद कहा जाए। मैंने बोलकर कहा- "शुक्रिया" इसके बाद मैं मुस्कुराया। किसलिए मुस्कुराया? शायद इस बात के लिए दीवार ने थैंक यू सुना है। उसे अच्छा लगा है। आज सुबह फ़रीबा की कविताएं पढ़ रहा था। उन कविताओं से पहले पांच सात कवियों को पढ़ चुका था। एक साल नब्बे में जन्मी लड़की की कविताएं थी। मैं उनसे कनेक्ट होने की कोशि

अजनबी बने रहने का दांव

एक अरसे तक घुटनों के बल बैठा हुआ व्यक्ति ये जानता है कि उठा कैसे जाता है। उसकी स्मृति और अनुभव में अपना खड़ा होना याद होता है किंतु बैठे रहने की लंबी बाध्यता के बाद खड़े होने की स्मृति ठीक बची रहती है, अनुभव जा चुका होता है। अनुभव को जंग लग सकता है। उसका क्षय हो सकता है। ऐसे ही मैं रेल गाड़ी में अपनी शायिका पर पहुंचने से पहले कई बार दौड़ चुका था। मैं मन ही मन भाग कर रेल पकड़ रहा था। मैं चाह रहा था कि उस नियत जगह तक पहुंच जाऊं। इसके बाद मुझे अपने गंतव्य तक पहुंचने के दौरान कहीं न जाना पड़े। चार नम्बर प्लेटफॉर्म वैसा ही है जैसे दूजे होते हैं। लेकिन इस पर आते ही एक घबराहट होती है। मैं मुड़कर पीछे नहीं देखना चाहता हूँ। यही वह जगह थी। जहां से वह मुड़ी मगर उसने अलविदा न कहा था। क्या ये एक स्वप्न है। क्या ये न मिटने वाली याद है। क्या ये ज़रूरी है कि मेरी सब रेलगाड़ियां चार नम्बर से ही छूटे। पौने छह बजने को थे। रेल आ गई। यात्री जल्दबाज़ी में उतरना चाहते थे कि चढ़ने वालों की जल्दी उतरने वालों से बड़ी थी। मैं संकरे रास्ते में फंसे लोगों को देखता रहा। दोनों तरफ की जल्दबाजी एक दूजे में फंस चुकी थी। मिडल बर्थ प

किस के होने की याद आई

हवा का झौंका अपने साथ पत्ते उड़ाते गुज़रा। खिड़की बन्द थी बाहर कुछ देखा नहीं जा सकता था किन्तु सूखे पत्तों की खड़बड़ भीतर तक चली आई। मन औचक एक सूनेपन से भर गया। मन के भीतर कुछ सूख चुकी अनुभूतियाँ ठहरी थी। वे किसी उदास कर देने वाले झौंके की प्रतीक्षा में थी। जैसे कोई चटक जाने के लिए किसी बहाने के इंतज़ार में हो, ऐसे ही मन था। बाहर गली से गुजरे सूखे पत्ते मन में भर गए। पहले मन खाली कासे में हवा के आने से बजने वाले एक राग से भरा था। अब मन में खड़बड़ाहट भर गई थी। गर्मी केवल बाहर गली में नहीं पसरती। वह बंद कमरे के भीतर तक गूंजती है। ठंडी हवा के यंत्र चल रहे हो मगर महसूस होता है कि गर्मी पसर गई है। गलियां सुनसान हो चुकी है। सब कहीं चले गए हैं। अकेलापन मारक हो गया है। मैं एक लंबी सांस लेना चाहता हूँ। मैं सोचना चाहता हूँ कि किस चीज़ की कमी है। किस के होने की याद आई। कुछ नहीं जान पाता। मेरे कान बाहर गली में लगे रहते हैं कि फिर से कोई हवा का झौंका आएगा और उड़ते, ज़मीन से टकराते सूखे पत्तों की आवाज़ आएगी। आवाज़ आती है। सांस अटक जाती है। जैसे मैं किसी भय की प्रतीक्षा में था। भय आया और मैं सहम गया। थोड़ी देर बाद