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Showing posts from May, 2019

किसी बात का तो है

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जब गर्मी बढ़ती है तो हवा गर्म होकर ऊपर उठ जाती है। हवा के ऊपर उठने से खाली हुई जगह को भरने के लिए हवा आने लगती है। जितनी तेज़ गर्मी उतनी ही तेज़ हवा। फिर आंधी आने लगती है। गर्मी तब भी नहीं रुकती तो रेगिस्तान की बारीक धूल आसमान पर छा जाती है। सूरज के ताप और धरती के बीच धूल की चादर तन जाती है। ऊर्जा के अजस्र स्रोत के तेज़ को पैरों तले की धूल भी बेअसर कर देती है। धूल सांस में घुलने लगती हैं। आंखों में भरने लगती है। दिखाई नहीं देता, सांस नहीं आती। हर शै पर गुबार धूल की चादर तान देता है। लगता है धूल का साम्राज्य स्थापित हो गया है। फिर पानी की चंद बूंदें धूल को बहाकर वापस धरती पर पैरों तले डाल देती है। पैरों की धूल हवा पर सवार होकर ख़ुद को आकाशवासी समझने लगती है लेकिन ये पल भर का तमाशा ठहरता है। पानी के बरसते ही दबी कुचली घास हर जगह से सर उठाने लगती है। वनलताएँ सारी दुनिया को ढक लेना चाहती हैं। रास्ते मिट जाते हैं। जंगल पसर जाता है। कांटे ख़ुद को जंगल का पहरेदार समझ हर एक से उलझते और चुभते हैं। सहसा हवा की दो एक झांय से कोई चिंगारी निकलती है और जंगल अपने पसार के गर्व को धू धू कर जलता

सोशल साइट्स एक फन्दा है

कुछ मित्र कहते हैं वे अनुशासित तरीके से इनका उपयोग करते हैं। मैं अक्सर पाता हूँ कि कहीं भी कितना भी अनुशासित रह लें कुछ अलग नहीं होता। सोशल साइट्स पैरासाइट है। वे हमारे दिल और दिमाग को खोजती रहती है। एक बार हमारे दिल-दिमाग में घुस जाए तो ज़हर फैलाने लगती है। इसके दुष्परिणाम हमको कम ही समझ आते हैं। अनिद्रा, थकान, बदनदर्द, चिड़चिड़ापन, अकेलापन जैसी समस्याएं हमको घेर लेती है। मित्रों से मिल नहीं पाना। उनसे फ़ोन पर बात नहीं कर पाना। अपने कार्यस्थल पर सहकर्मियों के सुख-दुःख सुनने कहने का समय नहीं मिलना। देर से सोना और नींद पूरी होने से पहले जाग जाना। बिस्तर में पड़े रहना कि अभी तो सुबह भी न हुई मगर ध्यान सोशल साइट्स पर ही होना। आख़िर किसी बहाने से फ़ोन उठा लेना। सोशल साइट्स को देखना और अल सुबह हताश हो जाना कि वहां कोई ख़ुशी की ख़बर नहीं है। ये भयानक है। लेकिन इसे लगातार बरदाश्त किया जा रहा है। सोचिये हमारे पास कितना ज्ञान है। कुछ साथ नहीं चलता  तो सोशल साइट्स पर क्या इकट्ठा कर रहे हैं। अपनी ख़ुशी के लिए दूसरे पर निर्भर न रहो  तो सोशल साइट्स में क्या खोज रहे हो।

प्यार में कभी-कभी

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ये डव है। वही चिड़िया जो बर्फीले देशों में सफ़ेद रंग की होती है। पहाड़ी और जंगल वाले इलाकों में हरे नीले रंग की होती है। मैदानी भागों में धूसर और लाल मिट्टी के रंग की मिलती है। ये वैश्विक शांति का प्रतीक है। ईसाई लोग इसे आत्मा और परमात्मा के मिलन की शांति का प्रतीक भी मानते हैं। मुंह में जैतून की टहनी लिए उड़ती हुई डव को विश्व भर में शांति कपोत के रूप में स्वीकारा गया है। रेगिस्तान में इसे कमेड़ी कहा जाता है। उर्दू फारसी वाले इसे फ़ाख्ता कहते हैं। इसके बोलने से रेगिस्तान के लोग चिढ़ रखते हैं। असल में इसके बोलने से ऐसा लगता है कि जैसे कह रही हो। "हूँ कूं कूं" हिन्दी में इसे आप समझिए कि ये कह रही होती हैं "मैं कहूँ क्या?" जैसे कोई राज़ फ़ाश करने वाली है। जैसे कोई कड़वी बात कहने वाली है। लोग इसे घर की मुंडेर से उड़ा देते हैं। इसके बोलने को अपशकुन माना जाता है। रेगिस्तान की स्थानीय बोली में इसे होली या होलकी कहते हैं। यहाँ दो तरह की कमेड़ी दिखती है। एक भूरे-लाल रंग की दूजी धूसर-बालुई रंग की। मैंने यहाँ कभी सफ़ेद कमेड़ी नहीं देखी। कल दोपहर लंच के लिए घर ज

इसके आगे क्या कह सकता था

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हरियल तोते लौट आये। उनकी टीव टीव की पुकार हर वृक्ष पर थी। जाळ पर लगे कच्चे पीलू तोड़ती उनकी लाल चोंच दिखाई दी। वे टीव टीव की पुकार लगाकर जाळ की शाखाओं से लटके हुए कुछ कुतरने लगे। मैं हरी पत्तियों से लदे वृक्ष में कभी-कभी दिखती लाल चोंच में खो गया। सुघड़ चोंच तीखी थी। किसी कटर के लॉक जैसी। मेरे निचले होंठ को अपने चोंच में दबाये हुए सहन हो सकने जितना ज़ोर लगाया। चोंच खुल गयी वह मेरे गाल को छू रही थी। मैं किसी रूमानी तड़प में उसे बाहों में भींच लेता मगर मैंने अपनी जीभ होंठ के भीतर घुमाई। क्या कोई यहां था? कोई न था। तोते पेड़ पर फुदक रहे थे। शाम हो चुकी थी। दफ़्तर से दिन की पाली वाले लोग जा चुके थे। मैंने लोहे की बैंच पर बैठे हुए चारों ओर देखा। तन्हाई थी। उस तन्हाई को देखकर यकीन आया कि जब मुझे काट लेने का ख़याल था। उस समय मेरे चेहरे पर अगर कोई चौंक आई तो उसे किसी ने नहीं देखा। शायद मैं चौंका भी नहीं था। एक समय बाद रूमान पर वे बातें हावी हो जाती हैं, जिनसे सम्बन्ध खत्म हुए थे। वनलता जिस तरह पेड़ों को ढ़ककर उनसे रोशनी छीन लेती है। उसी तरह कुछ उदास बातें स्याह चादर बनकर रूमान

बाखळ

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ढाणी की बाड़ के अंदर का कुदरती अनिर्मित खुला भाग बाखळ कहा जाता है। गांव से उठकर छोटे क़स्बों में आकर रहने पर अक्सर बाखळ पीछे छूट जाती है। एक बन्द घर जीवन हो जाता है। ये हमारे घर की बाखळ है। इसमें जो आपको दिख रहा है, वह सब हमको रिफिल करता है। जीवन से जोड़ता है। इसके लिए हमें बहुत नहीं करना पड़ता। बहुत थोड़ा करने पर बहुत सारा मिल जाता है। हमारे घर मे घटी है। जिसे दो पाट वाली चाकी कहा जाता है। माँ उस पर कभी मूँग, मोठ जैसी दालें, कभी अजवायन जैसे मसाले पीसती हैं। लेकिन अब एक बिजली से चलने वाली छोटी चक्की भी घर में आ गयी है। उस पर गेंहूँ और बाजरा पीसा जाता है। जब घर पर ही पिसाई होती तो साबुत धान घर पर आता है। गेंहूँ और बाजरा से बहुत थोड़ा सा हिस्सा इन मिट्टी के कटोरों में डाल देते हैं। पक्षी इनको चुगते हैं। अपना गाना सुनाते हैं। हवाई उड़ान के करतब दिखाते हैं और आराम करने लगते हैं। तस्वीर में एक कटोरे में आपको गिलहरी दिख रही होगी। इस कटोरे में इन दिनों पार्टी होने जैसा माल मिलता है। आभा अक्सर तरबूज, खरबूज, देशी ककड़ी और बीजों वाले फल जब भी लाती है। बीजों को सहेजती हुए कहती है- &