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Showing posts from November, 2010

खेत में धूप चुनती हुई लड़कियां

वो जो रास्ता था, कतई रास्ता नहीं जान पड़ता था यानि जिधर भी मुंह करो उधर की ओर जाता था. रेत के धोरों में कुछ काश्तकारों ने पानी खोज निकाला था. वे किसान मोटे मोटे कम्बल लिए आती हुई सरदी से पहले चने की जड़ों में नमी बनाये रखने की जुगत लगा चुके थे. मैं ट्रेक्टर पर बैठा हुआ ऊँची जगह पर पंहुचा तब नीचे हरे रंग के छोटे-छोटे कालीन से दिखाई पड़ने लगे. मुझे इसमें कोई खास दिलचस्पी नहीं थी कि ट्रेक्टर किस तरह से सीधे धोरे पर चढ़ जाता है. मैं सिर्फ अपने देस की सूखी ज़मीन को याद कर रहा था जो बारह सालों में दो एक बार हरी दिखती थी. मैं इन खेतों को देखने नहीं निकला था. ये खेत एक बोनस की तरह रास्ते में आ गए थे. हमें मेहनसर की शराब पीने जाना था. ये रजवाड़ों का एक पसंदीदा ब्रांड था. हेरिटेज लिकर के कई सारे ख्यात नामों में शेखावटी की इस शराब का अपना स्थान था. मैं जिसके ट्रेक्टर पर बैठा था, वह बड़ा ही दुनियावी आदमी था. खेतों में फव्वारों के लिए दिये जाने वाले सरकारी अनुदान के लिए दलाली किया करता था. अफसरों से सांठ-गाँठ थी. कार्यालयों के बाबुओं को उनका कमीशन खिलाता और शौकिया तौर पर लोगों को अपनी सफलता के प्रदर

और अब क्या ज़माना खराब आयेगा

पंडित शहर का है और घर के बड़े बूढ़े सब गाँव से आये हैं. गणपति की स्तुति के श्लोकों के अतिरिक्त पीली धोती धारण किये हुए पंडित जी क्या उच्चारण करते हैं ये मेरी समझ से परे है किन्तु विधि विधान से आयोजन चलता रहता है. जटाधारी नारियल के साथ एक मौली भेजी जानी है जिस पर गांठें लगनी है. ये गांठे इस परिवार की ओर से तय विवाह दिवस को निर्धारित करती हैं. इन गांठों को दुल्हे के घर में हर दिन एक एक कर के खोला जाता रहेगा और आखिरी गाँठ वाले दिन शादी होगी तो उन्हें हिसाब से दुल्हन के यहाँ बारात लेकर पहुच जाना है. कभी हमारे यहाँ तिथि-दिवसों का और कागज-पत्रियों का उपलब्ध होना असंभव बात थी. फेरी पर निकलने वाले गाँव के महाराज से हर कोई तिथि और दिवस पूछा करता था. खेतों में काम करने के सिवा कोई काम नहीं था. ये तो बहुत बाद की बात है, जब स्कूलों का अवतरण हुआ. मेरे पिता और ताऊ जी घर से पच्चीस किलोमीटर दूर पढने जाया करते थे. उन दिनों अनपढ़ लोगों से याददाश्त में भूल हो जाना बड़ी बात नहीं थी इसलिए नारियल के साथ मौली में बंधी गांठे ही विश्वसनीय सहारा होती थी. कई बार भूल से अधिक गांठें खोली जाने से बारातें एक दो दिन प

रास्ते सलामत रहें

उन्होंने सबसे पहले पत्थर की नक्काशीदार रेलिंग को तोड़ा फिर गोल घेरे में बनी दीवार को उखाड़ फैंका. इस तरह चौराहे का घूम चक्कर नंगा दिखाई देने लगा. अगली सुबह उन्होंने बाहर के बड़े घेरे को इस तरह साफ़ कर दिया जैसे यहाँ इतना बड़ा सर्कल कभी था ही नहीं. मैंने अपने जीवन के बेशकीमती सालों में उदासी और ख़ुशी के अहसासों को साथ लिए हुए इस चौराहे को देखा है. अब स्वामी विवेकानंद की आदमकद मूर्ति और एक हाई मास्ट लाईट का पोल रह गया है. इन्हें भी अगले कुछ दिनों में हटा लिया जायेगा. मेरे स्कूल के दिनों से ही ये चौराहा साल दर साल संवारा जाता रहा है. युवा दिवस और चिकित्सा महकमे की योजनाओं के बारे में जागरूकता रैली निकालने के लिए बच्चों को स्कूल से उठा कर यहाँ लाया जाता रहा है. वे बच्चे स्कूल के जेल जैसे माहौल से बाहर आकर भी यहाँ यकीनन स्वामी विवेकानंद के बारे में नहीं सोचते होंगे. उन्हें कतार न टूटने, माड़साब या बहिन जी के आदेशों की चिंता रहती होगी या फिर वे मूंगफली ठेलों और चाट पकौड़ी वालों तक भाग जाने की फिराक में रहते होंगे. अब बच्चों को थोड़ा और दूर तक जाना होगा कि ये जगह बचेगी नहीं. दोस्

भूख आदमी को छत तक चढ़ा देती है

नाईजीरिया को लोग भुखमरी के सिवा और किसी कारण से जानते हैं या नहीं लेकिन मैं जानता हूँ कि वहां एक अद्भुत संस्कृति है योरुबा.. योरुबा लोगों का एक लोकगीत बरसों पहले पढ़ा था. उसे एक किताब के पीछे लिख लिया. मेरी किताबें अक्सर खो जाया करती है. खोने का एक मात्र कारण उसे मांग कर ले जाने वालों का लौट कर न आना है. भाषाएँ दुनिया के किसी कोने में बोली जाती हों या उनका विकास हुआ हो मगर उनकी समझ हतप्रभ कर दिया करती है. मनुष्य के दैनंदिन जीवन के प्रसंग देवों को दी जाने वाली बलि से अधिक महत्वपूर्ण हुआ करते हैं. सामाजिक विकास की कामना और मुश्किलों के गीत कालजयी हो जाया करते हैं. मैं सोचता हूँ कि विद्वानों को और बहुत से अनुवाद करने चाहिए ताकि हम समझ सकें कि मनुष्य मात्र एक है. उसकी खुशियाँ और भय सर्वव्यापी है. मनुष्य द्वारा किये गए प्रेम का अनगढ़ रूप जितना खूबसूरत लोकगीतों में दिखता और चीरता हुआ हमारे भीतर प्रवेश करता है ऐसा और कोई माध्यम नहीं है. लोकगीतों में हर स्त्री-पुरुष को अपना अक्स दिखाई दे सकता है. मनुष्य का प्रेम रसायन भाषाओं के विकास से पहले का है. इस तथ्य को लोकगीत चिन्हित करते हैं. मेरा रसा

यही मौसम क्यूँ दरपेश है ?

मौसमों की कुंडली में सेंधमारी करके उन्हें तोड़ देने का हुनर अभी आया नहीं है. कुछ दिन बिना पिए रहे, कुछ सुबहों का मुंह देखा, कुछ शामें घर में बितायी, कुछ रातों को देर तक दीये जलाये और आखिर में रविवार को फिल्म देखने के लिए गए. इससे पहले मैंने साल दो हज़ार दो में गुजराती नाटक 'आंधलो पाटो' जैसी फिल्म आँखें देखी थी. वह फिल्म बैंक के एक मैनिक अधिकारी पर केन्द्रित थी. जो तीन अंधे लोगों को बैंक लूटने के लिए मजबूर करता है. इसे अंजाम तक पहुँचाने के लिए नायिका उन्हें दक्ष करती है. उसमे कई सारे शेड्स थे. उस फिल्म को देखे हुए आठ साल हो गए हैं. आँखें फिल्म से पहले जनवरी सत्तानवे में जयपुर के एक सिनेमा हाल में 'सपने' फिल्म देखी थी. उस फिल्म में गायक एस. पी. बाला सुब्रह्मण्यम ने अभिनय किया था. काजोल पर फिल्माए गए गीत आवारा भंवरे के अलावा मुझे फिल्म से अधिक उस दिन की याद है कि वह बीता किस तरह था. जाने क्यों अँधेरे कमरों में बैठ कर गल्प और अनुभूतियों के तिलिस्मों को देखना कभी रास आया ही नहीं. कितनी ही खूबसूरत फ़िल्में आई. उनको क्रिटिक से लेकर आम दर्शक ने सराहा. मैं फिर भी ज

ओ वादा शिकन...

आजकल, जाने क्यों आवाज़ें बड़ी साफ़ सुनाई देने लगी है. बाहर गली में किसी के पाजेब की रुणझुण कदम दर कदम करीब आती हुई सुनाई पड़ती है फिर किसी के चलने की कुछ आहटें है और कभी दिन भर, सांझ की राग सा बच्चों का शोर खिड़की तक आकर लौट जाता है. कितने सफ़र, कितने रास्ते उलझ गए हैं. बेचैन रहा करने के दिन याद आने लगे हैं. सलेटी जींस और ऑफ़ वाईट शर्ट पहने घूमने के दिन. ऑफिस, घर या बाज़ार सारा दिन होठों को जलाते हुए सिगरेट के कई पैकेट्स पीना ज़िन्दगी के कसैलेपन को ढक नहीं पाता था लेकिन खुद को राख सा बिखरते हुए देखना सुख देता था. अकेलापन यानि पत्तों के टूटने की आवाज़, टूटन को सुनना माने एक लाचारी. वे उसकी आवारगी के दिन नहीं थे. कुलवंत की दुकान से सुबह शुरू होती और दिन सिगरेट की तरह जलता ही रहता. रात होते ही शराब फिर सवेरे उठ कर बालकनी में आता और देखता कि गाड़ी कैसे खड़ी है. अगर वह सही पार्क की हुई मिलती तो शक होता कि रात को खाना खाने गया ही नहीं. अपने हाथों को सूंघता. अँगुलियों के बीच खाने की खुशबू होती तो लगता कि कल सब ठीक था. सरकारी फ्लेट पर वह इतनी पी चुका होता कि दुनिया के सारे खौफ गाय