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Showing posts from June, 2023

समय के साखी

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कविताओं से मोहभंग है। फिर भी कविता वह जगह है, जहाँ मन को आश्रय मिलता है। या जैसे घर लौट आए हों।  कविता पढ़ने के अपने दुख हैं। उनका कुछ नहीं किया जा सकता। कि आप कविता पढ़ने जाते हैं और हताश होकर लौटते हैं।  इसलिए हर दो तीन बरस में देख आता हूं कि युवाओं ने कविता के लोहे को कितना तपाया है। इसी देखने में समय के साखी का अंक ऑर्डर किया था।  बहुत बरस बाद मैंने कविताएं पढ़ीं। पढ़कर सुख पाया। कुछ कविताएं परमानंद रहीं।  जमुना बीनी की कविता लौटने के इंतज़ार में, प्रतिभा गोटीवाले की सरस्वती पर माल्यार्पण, नेहा नरूका की कुलताबाई, विगाह वैभव की ईश्वर को किसान होना चाहिए, ज्योति रीता की प्रिय विनोदिनी, सौम्य मालवीय की कविता तिरंगायन और पार्वती तिर्की की सोसो बंगला।  पार्वती तिर्की की एक कविता चुनना मेरे लिए कठिन था कि सभी कविताएं मैंने कई बार पढ़ीं। सब मन को छूने वाली कविताएं हैं। आवश्यक कविताएं। इस अंक को मैं प्रसन्नता के अतिरेक में पढ़ रहा हूँ। अभी पूरा पढ़ा नहीं है। जो पन्ना खुलता है, उसे दोबारा तिबारा पढ़ने लगता हूँ। 

प्रतीक्षा के बारे में

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मैं प्रतीक्षा में था। हालांकि जीवन बीत चुका है और कोई प्रतीक्षा कभी गहरी मित्र नहीं हुई।  इसी प्रतीक्षा में आस पास को देखता रहता हूँ । चीज़ें कैसी हैं। उनका विन्यास कैसा है। रंग रूप किस तरह खिला बुझा है। लोग क्या कर रहे हैं। वे कैसे मनोभावों से घिरे हैं और कितने मनोभाव पढ़े जा सकते हैं।  इस देखने को अकसर शब्दों में उतार लेता हूँ। कि शब्दों से थोड़ी सी मित्रता है। किसी बात को ठीक ठीक कह देने लायक बना देते हैं। कभी कभी मैं मोबाइल से या कैमरा से तस्वीरें खींच लेता हूँ।  वैसे तस्वीर को न उतारा जा सकता है, न ही खींचा। कहां से उतारा जाता है। क्या तस्वीर कहीं ऊपर रखी है। क्या तस्वीर किसी हाथी-घोड़े पर चढ़ी है। और खींचना कैसे होता है। कोई फंदा डालकर या रंढू से बांधकर खींचा जाता है? हालांकि वह दूर का दृश्य है। उसे बिना पास गए सहेज लिया गया है लेकिन खींचा कैसे ये मुझे समझ नहीं आता।  फिर भी परसों शाम बाड़मेर के विवेकानंद सर्कल पर प्रतीक्षा में खड़े हुए मैंने एक तस्वीर ली। मैं वैसा ही छायाकार हूँ, जैसा कि संयोग से लेखक या रेडियो पर बोलने का काम करने वाला हूँ। कुछ परिस्थितियां ही होती हैं।  इसी परि

सुलगते जाने को

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हम अतीत में क्या खोज सकते हैं। भविष्य को कितना जान सकते हैं। वर्तमान को कितना देख सकते हैं। ये सोचते हुए एक पुरानी तस्वीर देखता हूं।   क्या मैंने इस तस्वीर को खोजा है या ये तस्वीर कुछ याद दिलाने को सामने चली आई है। कि इस लम्हे तुम कितना इस लम्हे को देख रहे थे। इस लम्हे से पीछे कितनी दूर तक सोचा था। आगे कभी इस लम्हे को कैसे याद करोगे।  शायद कुछ भी नहीं।  यादें एब्सट्रैक्ट हैं। नंगी हैं। हंसी और नमी से भरी हैं। उनमें तम्बाकू की गंध है। ऊंट की पीठ से उतारी काठी जैसी महक से भरी है। बहुत तेज़ भाग रही हड़बड़ी वाली किसी मशीन के अचानक रुक जाने से हुए घर्षण की जलती हुई खुशबू है।  रेड कार्पेट, टीवी शो, भव्य सम्मेलनों, प्रतिष्ठित करने को चमकते मोमेंटो, भीड़ में अंगुलियों के छू लेने भर की कामना से उपजा सुख, कहीं अपने नाम का शोर सुनने को चाह में हांफते हुए कुछ न कुछ करते जाने से बहुत परे की बात है।  मन किसी के साथ सुलगते जाने और फिर हवा में चुपचाप गुम हो जाने का मन है। उसे अतीत और भविष्य से क्या वास्ता होगा। वह बस वर्तमान के बारे में क्षणिक सोचता है कि काश तुम होते। जानता है कि नहीं हो।  जब जो नहीं

शर्ट का तीसरा बटन

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एक ही ख़त में सारा कुछ लिखने की ज़रूरत नहीं है। ~ मानव कौल  पिछली गर्मियों में हिंदयुग्म के दफ़्तर से ये उपन्यास ले आया था। किताबें आधी आधी बंट जाती हैं। कुछ जयपुर और कुछ बाड़मेर वाले घर के हिस्से आती हैं। कि कहीं भी रहो, फुरसत में कुछ पढ़ सको। मानव को पढ़ना एक अलग अनुभूति है। वैसे हर लेखक की भाषा और कथानक के अलग जींस होते हैं। किंतु कुछ के हमारे मन से मिलते हैं।  मानव की कहानियां जिसने पढ़ी हैं और भली लगी। उनके लिए ये एक सुंदर उपन्यास है। प्रेम कबूतर कहानी कैशोर्य के प्रेम की सरलता को कहती है। उससे आगे इस कथा के किशोरवय पात्र जीवन की कठोरता से दो चार होते हैं। वे माँ, पिता, नाना, नानी के होने को एक सम्बंध से आगे मनुष्य के रूप में पहचानने लगते हैं। ये सुंदर बात है। अच्छा लगा। धन्यवाद मानव।

गलता जी मंदिर जयपुर

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विदेशी लोग थे। कड़ी धूप थी। बारिश से पहले की उमस थी। उनका उत्साह इन सबसे अधिक था। गलता जी के निचले कुंड के पास बैठक बनी हुई है। यहां कभी गद्दे और मसनद लगती होंगी। पानी को छूकर आती हवा के ठंडे झकोरे आते होंगे।  अब यहां बंदर अपने बच्चों के साथ लेटे हुए थे। दो श्वान भी दोपहर का आराम कर रहे थे। आकाश में कुछ बादल थे लेकिन बारिश की आस नहीं थी। एक श्वान उठा और कुंड के पानी में जाकर बैठ गया। गर्मी से राहत का तात्कालिक उपाय यही था।  विदेशी लोगों का दल कुंड के बीच बने फव्वारे की ओर मुंह करके योग मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवा रहा था। धूप से अपरिचित रहने वाली उनकी त्वचा पर हल्की आग थी। किंतु उनके चेहरों पर इस जगह होने का आनंद था।  मैं पसीने से भीग गया था। मेरी पीठ पर उमस ने गहरी लकीरें उकेर दी थी। मैं सीढ़ियां उतरते हुए ऊपरी कुंड में नहाने वाले बच्चों और युवाओं के श्याम वर्ण को याद कर रहा था। वे उत्साहित होकर गोता लगाते और फिर सांकल पकड़े हुए खड़े मुस्कुराते थे।  पानी का रंग ही पानी के स्वास्थ्य को बताने के लिए पर्याप्त था। काई का अश्वमेध यज्ञ संपन्न हो चुका था। उसने कुंड में कोई जगह नहीं छोड़ी थी।