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Showing posts from March, 2020

रेत को देशनिकाला

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कंगूरे पूछते हैं यहां तक कहाँ से आ जाती है, रेत। मेहराबें कहती हैं नीच चीज़ें ही होती हैं सर पर सवार। खिड़कियां उदास हैं इस रेत के कारण बन्द रहना पड़ता है। बग़ीचे नहाते हैं दो वक्त रेत की छूत से घबराए हुए। बहुत तकलीफ़ होती है नौकरों को भी जब मालिक की आंख में चुभ जाती रेत। लेकिन रेत को देशनिकाला नहीं दिया जा सकता। कि रेत पर ही खड़े हैं महल माळीये कि रेत से मिलकर ही बनी मेहराबें कि रेत में ही सांस ले रही है बग़ीचों की जड़ें कि मालिक ख़ुद खड़ा हुआ है रेत पर। हठी, निर्लज्ज, अजर, अमर रेत ने ही बचाकर रखा हुआ है सबकुछ सब कुछ बना हुआ भी उसी से है। * * * सूने राजमार्गों पर रेत पसर रही है। रेत के पांवों में छाले हैं। रेत घबराई हुई कम है। रेत, महलों और दरबारों से हताश अधिक है। * * * रेत ने ईश्वर को पाजेब की तरह पहना हुआ है। रेत ने ईश्वर को कांख में दबा रखा है। रेत ने ईश्वर को सर पर उठा रखा है। रेत के पास ईश्वर कम से कम होता जा रहा है। ईश्वर के न रहने पर तुम्हारी इस दुनिया को मिटा कर रेत को नई दुनिया बनानी पड़ सकती है। * *

इन दिनों की याद

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बिल्ली हेजिंग के पास पीठ के बल लेटी है। मैं मुख्य द्वार के पास लोहे की लंबी बैंच पर बैठा हूँ। हम दो ही हैं। बाकी दफ़्तर में सन्नाटा पसरा है। मैं बिल्ली को देखता हूँ और वह मुझे देखती है। विंक पर बहादुर शाह ज़फ़र की ग़ज़ल प्ले कर ली है। मेहदी हसन गा रहे हैं। बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी। तस्वीर थोड़ी देर पहले स्टूडियो में ली थी। इन दिनों की याद की तरह बची रहेगी।

छायाकार की तस्वीर में रखी बेचैनी

मैं कुछ भी हो सकता था मगर उसके बिना क्या ही था? अचानक एक बीता लम्हा याद आता है। बेचैनी, उद्विग्नता और डर से भरा हुआ। कि अब वो जाने कहाँ होगा। इसके बाद तेज़ क़दम मैं भागने लगता। मैं चल रहा होता मगर लगता कि भाग रहा हूँ। एक दस्तक होती। वह जाने कहाँ है। मैं जाने क्या चाहता हूँ। हम क्या करेंगे। दुनिया के किस सांचे में ये फिट होगा। क्या इससे कुछ बनेगा। क्या इससे कुछ बिगड़ जाएगा? जो हो सो हो। हर कदम और हर सांस पर एक लंबी और न खत्म होने वाली प्रतीक्षा बनी रही। कुछ ऐसा न था कि मैं मुस्कुरा सकूँ। मैं आवाज़ दे सकूँ। मैं कह सकूँ कि तुम्हारा होना कितना और क्या है। वह जो भी है। वह तस्वीर ले रहा है या तस्वीर में बेचैनी पढ़ रहा है। वह वही है। लेकिन ये तस्वीर वही लम्हा है। जहां मैं गुंजलक खड़ा हूँ। कब कौन कुछ सब कह सकता है। मैं कितनी अजीब तरह से देख रहा हूँ। इसलिए कि मैं ऐसा ही हूँ। कि मेरे साथ सुबह के रूमानी ख़्वाब देखता। चौंक कर जागता हुआ, वही है। ये दुनिया वैसी नहीं है। जैसी हमको सिखाई गयी है। ये उतनी साफ, सरल और सीधी नहीं है। इस दुनिया का ऐसा होना केवल कल्पना है। असल में दुनिया एक जादू

बियाबान में भागती रेल

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कलाई पर कान रखे लेटा हुआ था। धक-धक की आवाज़ सुनाई देने लगती है। मैं उसे थोड़ा अधिक ध्यान से सुनता हूँ। ये केवल रेल की आवाज़ भर नहीं है। ये आधी रात को बियाबाँ में भागती हुई रेल की आवाज़ है। मैं इस रेल में सवार कहीं जा रहा हूँ। रेल एक झटका खाकर रुकती है। जैसे कोई आपात स्थिति थी। मेरा बदन सीढ़ी से पैर चूकने के डर से सम्भलता हुआ ठहर जाता है। भाप जैसे धुएं के बीच से आता हुआ मैं सफेद दिखाई देता हूँ। प्रतीक्षालय के अंधेरे की ओर बढ़ते हुए मेरा रंग श्याम होने लगता है। प्रतीक्षालय के चिकडोर के अन्दर सीलापन है। चुप्पी का जाल है। मैं रेलवे स्टेशन से बहुत दूर निकल आया हूँ। सीधे सूने मार्ग पर तन्हाई पसरी है। अब मुझे पदचाप सुनाई पड़ती है। क्या ये मेरी पदचाप है या तुम मेरे पीछे चले आ रहे हो। मैं मुड़कर नहीं देखता। सोचता हूँ इतनी दीवारें किसने बनाई है। ये रास्ते किनके गुज़रने से बने हैं। ये शाम का धुंधलका है या आधी रात की जादुई चमकीली स्याही। धक-धक, धक। रेल फिर से चलने लगी है। मैं उतर चुका हूँ। इसलिए ये वो रेल है जिसमें तुम हो। रेल धक-धक का मद्धम लय में गाना गाने लगती है। मैं चाहता हूँ कि

जनता कर्फ्यू।

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जनता कर्फ़्यू। टीवी वाले कह रहे हैं कि हम आपको विश्व क्लासिक दिखाएंगे। रेडियो वाले कह रहे हैं कि आपका ज्ञान के साथ मनोरंजन करेंगे। किताबों वाले कह रहे हैं कि अच्छा अवसर है, किताबें पढ़िये। तो जिसके पास जो है वह उसने प्रस्तुत कर दिया है। आपकी सेवा में उपस्थित है। आप क्या करेंगे। आपने सोचा है? मैंने सोचा कि अगर मैं घर पर होता या एक दिन नितांत अकेले जीने का अवसर पाता तो क्या करता? इसी सोच में कोरोना की गम्भीरता के बारे में सोचने लगा। सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था और स्थिति के आस पास मनुष्य समाज चल रहा है। राजनैतिक और आर्थिक स्थितियाँ एक दूजे की पूरक है। एक के चरमराते ही दूजी अपने आप ध्वस्त हो जाती है। दुनिया की आर्थिक स्थिति को शेयर बाज़ारों के हाल से समझा जाता है। शेयर बाज़ार तीस प्रतिशत लुढ़क चुके है। ऐसा नहीं है कि ये कोरोना ने ही किया है। ये कोरोना नहीं तो किसी और कारण से भी करेक्ट होता। करेक्ट होना सही होता है। आप अपने आप को ठोक बजा कर सॉलिड कर लें तो ज़्यादा लंबे समय तक चल सकते हैं। शेयर बाज़ारों के गिरने का सिलसिला अगर यहीं रुक जाता है तो समझिए कि ये उनका अपना करेक्ट

बारूद से बिछड़े पलीते

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उसकी बातों का किसी भाषा में अनुवाद नहीं किया जा सकता था। इसलिए कि वे बातें किसी भाषा में लिखी नहीं जा सकती थी। प्रेम को कैसे कोई लिख सकता है कि वह कैसा है। इसी तरह दुख को भी कैसे लिखा जा सकता है। उपस्थिति या अनुपस्थिति को कैसे लिखा जा सकता। कुछ भी नहीं लिखा जा सकता। केवल एक ब्योरा दिया जा सकता है कि उसकी प्रेमिल आँखें चेहरे पर किस तरह टिकी थी। उन आँखों को इस तरह देखते हुये देखना कैसा था। उनको देखकर किस तरह मन भीग गया था। लेकिन शब्द और वाक्य अधूरे रह जाते हैं। वे ठीक-ठीक नहीं लिख पाते कि किस तरह सीले बरस उन आँखों के देखने भर से गायब हो जाते हैं। किस तरह उन आँखों की झांक पूरे बदन में लहू भर जाती है। अतीत की खरोंचों के निशान झड़ने लगते हैं। जैसे कोई पेड़ नया हो रहा हो। कोई कैसे किसी को कुछ कह सकता है कि तुमने कितना दुख दिया या कितना प्रेम किया। भाषा के पास अभी इतना नहीं है। अभिनय के पास भी नहीं। केवल बीते हुये कल के सामने आज रखकर कहा जा सकता है कि देखो तुम्हारे होने न होने से कितना कुछ बदल जाता है। लेकिन ठीक-ठीक ये नहीं कहा जा सकता कि तुम्हारा होना कितना है। एक तुम ही नाउम्मी

धुंध का कालीन

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मेरे सामने पुराने काग़ज़ों की सतरें थीं। जैसे मेरे बीते बरस किसी पुलिंदे से गिर कर बिखर गए हों। मैंने एक नज़र उन सतरों को देखा। मेरा देखना ऐसा था कि ये हैं तो है, इनका क्या किया जा सकता है। बीते हुए काग़ज़। मैं उनके प्रति उदासीन बना रहा। उन काग़ज़ों में जो लिखा था, उसे कोई नाउम्मीदवार ही पढ़ सकता था। उन काग़ज़ों को एक हसरत से देखना केवल उसके लिए सम्भव रहा होगा जिसने कभी जाना हो कि ठहर कर देखना ही जीवन है। केवल दौड़ते भागते हुए लोगों, सभ्यता और समय का पीछा करना एक बेकार काम है। क्या उन काग़ज़ों में कोई कागज़ किसी बुरादे में बचे हुए बारूद सा हो सकता था या वे सिर्फ सीलन का घर थे? मुझे नहीं पता लेकिन मैंने बार-बार उनको मुड़कर देखा। क्या मैं बिस्तर की उन सलवटों को याद करना चाहता था जो अकेले रह जाने के बाद बची थी। या फिर शायद मैं उन जगहों पर जाकर बैठ जाना चाहता था, जहाँ मुझे केवल अकेले ही होना था। हो सकता है उन काग़ज़ों को देखते हुए मैंने सोचा हो कि मेरे चेहरे पर छूटे नाज़ुक निशान उन काग़ज़ों में बिखरे-टूटे मिल सकते थे। हवा तेज़ चलने लगी। पीपल से गहरी और बेचैन करने वाली आवाज़ें आने लगीं। मैंने मुड़कर

मैं चलकर मुझतक जाना चाहता था

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मैं कब का लौट चुका था मगर अचानक वहीं पहुंच जाता था। हवा सूखे फूलों को बुहारती किनारे कर गयी थी। रास्ता दूर तक सूना हो गया। छीजती रोशनी फर्श पर गिर रही होती मगर लाल झाईं नहीं उग पाती। सलेटी रंग दूर जाकर स्याह हो रहा होता। हुजूम छंट चुका होता। लोग जा चुके होते। सूनी सड़क से उठते सन्नाटे के बगुलों की तरह आस-पास के कोनों में कोई धुन बजती रहती। वहां खड़े हुए मैं ख़ुद को देखने लगता कि क्या वो मैं उसी चेहरे को तलाश रहा है? लेकिन मुझे मैं कभी इस तरह खोजता हुआ न मिला। बल्कि हर बार झुके कंधे और थोड़ा सा सिर झुकाए हुए चुप खड़ा देख पाता। मैं चलकर मुझ तक जाना चाहता था। कि पूछ सकूँ तुम बार-बार यहां क्यों चले आते हो। ये किसी का घर नहीं है। यहां से कोई बस किसी जगह नहीं जाती। यहां से कोई रेल भी नहीं गुजरती। ये एक ऐसी जगह है जहाँ खुद चलकर आना पड़ता है, खुद ही जाना। मैं ये पूछने को बढ़ना चाहता तो पाता कि रोशनियों की लकीरें धुंध में बदल रही है। मैं जो वहां खड़ा था कहीं गुम हो गया हूँ। मैंने बहुत बार सोचा कि वहां ऐसा क्या हो सकता है जो मुझे खींच लेता है। विरल ही लेकिन ऐसा भी होता है कि हम साए से कहते हैं,

बारिश की सीलन

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तट तट तट बारिश की बूंदें दिखी नहीं मगर एक ख़ुशबू आई। बारिश के आने से पहले उसकी ख़ुशबू। फिर देर तक बिजलियाँ कड़कीं और पानी बरसता रहा। बेमौसम। अगले रोज़ कान बजने लगे। एक दीर्घ शोक में डूबी हुई बहुत दूर से आती आवाज़ जैसी हवा। खिड़की खोली। दरवाज़ा खोला। बाहर आया मगर चैत्र की शुरुआती आंधियों के निशान गायब थे। दोपहर होते हवा तेज़ बहने लगी। हर दीवार, हर मोड़ और हर दरख़्त से कट कर आती हवा में वही गीत था। तनहाई का गीत। कभी जब बेमन बारिश में भीग जाते हैं तब कैसा लगता है। कपड़े की छुअन भर से अजीब सा हाल होने लगता है। बदन से अपने टी को दूर रखे रहने की नाकाम कोशिश। जींस के भीगेपन से बचने की कोशिश। लेकिन सब नाकाम। ऐसा ही हाल था। चमकीली पन्नियों से नीली-पीली बेढब कंचों सी छोटी गोलियां निकालता और उदास आँखों से देखता हुआ निगल लेता। वे उदास आँखें घड़ी भर बाद सूनी आँखों में बदल जाती। सिर वैसा ही हो जाता जैसा बेमन भीगे कपड़ों से असहज बदन होता है। माइक्रोफोन का फेडर खोला और सोचने लगा कि मुझे क्या बोलना है। बरसों से उच्चरित शब्द भूल के खाने में चले गए। वाक्य अधूरे और गुंजलक हो गए। जैसे कि उनका कोई अर्थ ही न हो।

जादूगर का दुःख

जब जादूगर मंच से चला जायेगा तब दर्शक अपने असली दुखों से घिर जाएंगे। एक जादूगर ही होता है जो सियार को भेड़िया, कुत्ते को बिल्ली, कबूतर को खरगोश बना सकता है। वह सबको एक रंग में रँगे जाने का स्वप्न दिखाता हुआ आता है। उसका वादा होता है कि अफ्रीकी कालों, बर्फीले देशों के गोरों, मध्य के गेहुंआ लोगों को अपनी टोपी से निकालता हुआ एक जैसा कर सकता है। सब भेद मिटा सकता है। वह सारी प्रार्थनाओं को एक प्रार्थना में बदल सकता है। वह सब प्रार्थनाघरों के दरवाज़े एक दिशा में ला सकता है। वह इतिहास के तमाम अत्याचारों का बदला वर्तमान से ले सकता है। वह वीभत्स की स्मृति को सजीव कर सकता है। जादूगर के पास इतनी खूबियां होने के बाद भी उसके अपने निजी दुख होते हैं। सबसे बड़ा दुख होता है कि वह जानता है, जादू आंखों में धूल झोंकने का काम है। मैं आप की आँखों में धूल झोंकते हुए थकने लगता हूँ। कभी-कभी मेरा मन होता है कि सोशल मीडिया छोड़ दूं। लेकिन मैं आपके हक़ में सोचता हूँ कि शैतान की प्रेमिका की कविताएं कहता रहूँ ताकि आप सब व्यवस्था की बढ़ती नाकामी, भ्रष्टाचार, आर्थिक मंदी, लुटते बैंक, बेमौत मरते श्रमिक, आत्महत्