अचानक माणिक ने किताब उठा ली. “पुखराज की किताब? क्या बात है” नीलम का दिल सदमे में चला ही जाता कि माणिक की मुस्कराहट ने इस सदमे को रोक लिया. वह उनको देख रही थी. जाने क्या सोचें, क्या कह बैठें. कुछ देर तक किताब के पीछे का पन्ना देखने के बाद माणिक ने किताब को अधबीच के किसी पन्ने या शायद आगे पीछे कहीं से पढना शुरू किया. हरा रंग माणिक के हाथों में था लेकिन नीलम के सब रंग ज़र्द हुए जा रहे थे. माणिक ने कहा- “खुली नज़्में” मई महीने को आधा बीतने में दो दिन बचे थे. रात के आठ बजे थे. दिल्ली जाने की तैयारी थी. नीलम ने इससे पहले क्या बातें की थी ये पुखराज को याद नहीं था लेकिन पौन घंटे बाद एयरपोर्ट निकलने से पहले नीलम कहा- “कल जो हुआ वह मुझे अभी तक सता रहा है. क्या आपको कुछ कहा है उन्होंने?” नीलम असल में पन्ना के बारे में सवाल कर रही थी. लेकिन इस बात से ज़रूरी बात उनके बीच थी कि अब जाने क्या होगा. नीलम ने कहा- वे टेक्सी करवा रहे हैं पुखराज चुप रहना चाहता था मगर उसने जवाब दिया- मेरा हाल अजूबा है. मगर मेरे हाव भाव सामान्य है. वह पूछती है- अरे क्यों? क्या मैंने कुछ किया? पुखराज ने...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]