हवा का झौंका अपने साथ पत्ते उड़ाते गुज़रा। खिड़की बन्द थी बाहर कुछ देखा नहीं जा सकता था किन्तु सूखे पत्तों की खड़बड़ भीतर तक चली आई। मन औचक एक सूनेपन से भर गया। मन के भीतर कुछ सूख चुकी अनुभूतियाँ ठहरी थी। वे किसी उदास कर देने वाले झौंके की प्रतीक्षा में थी। जैसे कोई चटक जाने के लिए किसी बहाने के इंतज़ार में हो, ऐसे ही मन था। बाहर गली से गुजरे सूखे पत्ते मन में भर गए। पहले मन खाली कासे में हवा के आने से बजने वाले एक राग से भरा था। अब मन में खड़बड़ाहट भर गई थी। गर्मी केवल बाहर गली में नहीं पसरती। वह बंद कमरे के भीतर तक गूंजती है। ठंडी हवा के यंत्र चल रहे हो मगर महसूस होता है कि गर्मी पसर गई है। गलियां सुनसान हो चुकी है। सब कहीं चले गए हैं। अकेलापन मारक हो गया है। मैं एक लंबी सांस लेना चाहता हूँ। मैं सोचना चाहता हूँ कि किस चीज़ की कमी है। किस के होने की याद आई। कुछ नहीं जान पाता। मेरे कान बाहर गली में लगे रहते हैं कि फिर से कोई हवा का झौंका आएगा और उड़ते, ज़मीन से टकराते सूखे पत्तों की आवाज़ आएगी। आवाज़ आती है। सांस अटक जाती है। जैसे मैं किसी भय की प्रतीक्षा में था। भय आया और मैं सहम गया। थोड़ी देर बाद...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]