कि जहां हम खड़े हैं यहां से वे दिन, ज़रा से उस तरफ हैं कि दो कदम पीछे चल सकें तो वहीं पहुंच जाएं। * * * टीशर्ट की सलवट को ठीक करते हुए हमेशा दूसरे टी की याद आई। कि इस समय वह अलमारी में कहां रखा होगा। याद एक सहारे की छड़ी बनकर बहुत दूर तक ले जाती। याद पुरानी होने में बहुत समय लगाती है। याद में सबकुछ थ्रीडी दिखता रहता है। मॉल के चमकदार फर्श में दो लोगों का अक्स। बेशर्मी से मुस्कुराते, तेज़ी से आगे बढ़ते, हथेलियों के बीच किसी बदतमीज बात को सलीके से छुपाए हुए एस्केलेटर से नीचे उतरते हुए भीड़ में गुम होते हुए। बादल अचानक बरसने लगे। सड़क पर बिखरे पानी के पेच में फिर से दोनों की परछाई एक साथ दिखी। फिर मुस्कुराएं। मगर याद में अकसर चेहरे पर ठहरी उलझन भी सामने आ खड़ी होती है। कि सारा साथ और सारा झगड़ा, ठीक करने को है या मिटा देने को है। कि ये या वो नहीं सब चाहिए। सब। शहर इतने पसरे क्यों होते हैं कि घने बादल क्षण भर में पीछे छूट जाते हैं। दो बहुत दूर के घरों पर खाली आकाश तना रहता है। उनके बीच के आकाश पर बादल छाए रहते हैं। कभी बारिश के मौसम में भी रात भर बरसात नहीं होती, अगले द...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]