हवा हर कोने में रखती है ज़रा ज़रा सी रेत। रेत पढ़ती है रसोई की हांडियों को, ओरे में रखी किताबों को, पड़वे में खड़ी चारपाई को, हर आले को, आँगन के हर कोने को। रेत कहीं जाती नहीं, बस आती रहती है। रेत सुख की तरह आकर उड़ जाने की जगह हर कोने में पसरी रेत से मिलकर चादर बुनती है मगर दुःख नहीं है रेत। ये बस इसकी एक आदत है दुखो की तरह आना और फिर ज़िद्दी होकर पसरते जाना। रेत उड़ती है तो ये सुख हुई न। एक घना सुख, गहरे समंदर, ऊँचे पहाड़ और असीम रेगिस्तान जैसा होता है। ऐसे विशाल, वृहद् और पैमाइश से बड़े सुख की पहचान भूलवश दुःख के रूप में की जाती है। भूल फिर होती है कि सुख ऐसी चीज़ों को समझ बैठते जैसे दो पहाड़ों के बीच कहीं एक गीली नदी बहती हो, रेगिस्तान के बीच सात सौ हाथ गहरे कुएं में खारा पानी रहता हो और जैसे समंदर के बीच किसी टापू पर बची हो थोड़ी ज़मीन। रेत, पत्थर और पानी जहाँ असीम है वह असल सुख है। नदी, गहरा खारा पानी और ज़रा सा ज़मीन का टुकड़ा सुख में दुःख का छलावा घोलता है। ये विलासिता रचता है। ऐसी विलासिता जो हमें भिगोती सुखाती है कुछ इस तरह कि रेगिस्तान प्यास से भरा उड़ता बिखरता रहता ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]