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Showing posts from November, 2014

सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना

इन्हें पढकर विदूषक उदास हुए , ज्ञानी हंस पड़े , दार्शनिकों ने कहा पुद्गल है सब चीज़ें. कभी हम स्नेह की डोर से बंध जाते हैं, वह अवस्था राग है. राग दुखों का कारण है. दुःख आयातित हैं. उनका निवारण राग के नष्ट होने में है. कहानी कहना भी एक राग है. इसी राग को एक दिन टूटना ही होगा. इस राग में दरारें पड़ती हैं. अभी हाल ही में पड़ी दरार से आते प्रकाश में मैंने जैन दर्शन को याद किया. मैंने जैन दर्शन को उतना ही पढ़ा है जितना अजमेर विश्व विद्यालय बीए के पाठ्यक्रम में पढाता था. उसी दर्शन की स्मृति मेरे साथ रही. मेरे कई सहपाठी, सखा और अध्यापक जैनी थे. जैन मुनियों के दल जब प्रवास पर होते थे तब मेरे पिताजी उनको घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करते थे.मेरी माँ उनके लिए खाना बनाती थी. एक बार कुछ साध्वियां आई. उन्होंने घर की रसोई में देखा कि माँ ने जो चपातियाँ बनाईं थीं वे चमक यानि मसाले रखने वाली लकड़ी की पेटी पर रखी थीं. उन्होंने पूछा क्या चमक में नमक है? माँ ने कहा हाँ है. साध्वियों ने उन चपातियों को अभोज्य कहा. उनके लिए हालाँकि माँ ने फिर से चपातियाँ बना दी. मगर मैं हमेशा सोचता रहा कि ऐसा क्यों है. पि...