इन्हें
पढकर विदूषक उदास हुए, ज्ञानी
हंस पड़े, दार्शनिकों
ने कहा पुद्गल है सब चीज़ें.
कभी हम स्नेह की डोर से बंध जाते हैं, वह अवस्था राग है. राग दुखों का कारण है. दुःख आयातित हैं. उनका निवारण राग के नष्ट होने में है. कहानी कहना भी एक राग है. इसी राग को एक दिन टूटना ही होगा. इस राग में दरारें पड़ती हैं. अभी हाल ही में पड़ी दरार से आते प्रकाश में मैंने जैन दर्शन को याद किया. मैंने जैन दर्शन को उतना ही पढ़ा है जितना अजमेर विश्व विद्यालय बीए के पाठ्यक्रम में पढाता था. उसी दर्शन की स्मृति मेरे साथ रही. मेरे कई सहपाठी, सखा और अध्यापक जैनी थे. जैन मुनियों के दल जब प्रवास पर होते थे तब मेरे पिताजी उनको घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करते थे.मेरी माँ उनके लिए खाना बनाती थी. एक बार कुछ साध्वियां आई. उन्होंने घर की रसोई में देखा कि माँ ने जो चपातियाँ बनाईं थीं वे चमक यानि मसाले रखने वाली लकड़ी की पेटी पर रखी थीं. उन्होंने पूछा क्या चमक में नमक है? माँ ने कहा हाँ है. साध्वियों ने उन चपातियों को अभोज्य कहा. उनके लिए हालाँकि माँ ने फिर से चपातियाँ बना दी. मगर मैं हमेशा सोचता रहा कि ऐसा क्यों है. पिताजी स्कूल में सामाजिक विज्ञान पढ़ाते थे उसमें जैन सहित अनेक धर्मों के बारे में पाठ थे. मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि नमक जीव हत्या का हेतु है शायद इसलिए उन्होंने उन चपातियों को स्वीकार न किया होगा जिनके नीचे नमक था. मेरे लिए श्वेत वस्त्र धारण किये नोच नोच कर घुटे हुए सर वाली साध्वियां और मुनि कोतुहल न थे. वे मेरे जीवन का हिस्सा थे.
कभी हम स्नेह की डोर से बंध जाते हैं, वह अवस्था राग है. राग दुखों का कारण है. दुःख आयातित हैं. उनका निवारण राग के नष्ट होने में है. कहानी कहना भी एक राग है. इसी राग को एक दिन टूटना ही होगा. इस राग में दरारें पड़ती हैं. अभी हाल ही में पड़ी दरार से आते प्रकाश में मैंने जैन दर्शन को याद किया. मैंने जैन दर्शन को उतना ही पढ़ा है जितना अजमेर विश्व विद्यालय बीए के पाठ्यक्रम में पढाता था. उसी दर्शन की स्मृति मेरे साथ रही. मेरे कई सहपाठी, सखा और अध्यापक जैनी थे. जैन मुनियों के दल जब प्रवास पर होते थे तब मेरे पिताजी उनको घर पर भोजन के लिए आमंत्रित करते थे.मेरी माँ उनके लिए खाना बनाती थी. एक बार कुछ साध्वियां आई. उन्होंने घर की रसोई में देखा कि माँ ने जो चपातियाँ बनाईं थीं वे चमक यानि मसाले रखने वाली लकड़ी की पेटी पर रखी थीं. उन्होंने पूछा क्या चमक में नमक है? माँ ने कहा हाँ है. साध्वियों ने उन चपातियों को अभोज्य कहा. उनके लिए हालाँकि माँ ने फिर से चपातियाँ बना दी. मगर मैं हमेशा सोचता रहा कि ऐसा क्यों है. पिताजी स्कूल में सामाजिक विज्ञान पढ़ाते थे उसमें जैन सहित अनेक धर्मों के बारे में पाठ थे. मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि नमक जीव हत्या का हेतु है शायद इसलिए उन्होंने उन चपातियों को स्वीकार न किया होगा जिनके नीचे नमक था. मेरे लिए श्वेत वस्त्र धारण किये नोच नोच कर घुटे हुए सर वाली साध्वियां और मुनि कोतुहल न थे. वे मेरे जीवन का हिस्सा थे.
मैं जब आकाशवाणी चूरू में पोस्टेड था तब मालूम हुआ कि आचार्य तुलसी सुजानगढ
में प्रवास पर है. हम अपना अल्ट्रा पोर्टेबल टेप रिकार्डर उठाकर चल दिए. इतने बड़े
आचार्य से कोई क्या साक्षात्कार करता और खासकर मेरे जैसा बच्चा तो मैंने
माइक्रोफोन उनके सामने कर दिया. मैंने कहा भौतिकवाद पर अपने विचारों से हमारे
श्रोताओं को अवगत कराएँ महाराज. उन्होंने दस मिनट के दो उद्बोधन दिए. उनको सुनते
हुए ऐसा लगता था कि उनके समक्ष कोई अदृश्य पुस्तक है जिसका वे पाठ कर रहे हैं. वे
सम्मोहक थे. उनमें गहरी शांति थी.
मुझे जैनियों से कोई प्रेम था. मैं चूरू से डेगाना आभा के पास जाता था.
रेल के रास्ते में लाडनू आता. मेरी इस यात्रा के दो हिस्से होते थे लाडनू आने
वाला है और लाडनू चला गया. लाडनू में जैन विश्व विद्यालय है. मैं रेल गाड़ी में
अक्सर सोचता था कि काश मैं तत्व मीमांसा पर किसी जैन प्राध्यापक के निर्देशन
में शोध कर सकूं. उन दिनों पढ़े लिखे की पहचान के लिए पीएचडी की डिग्री ही मंगल सूत्र
थी. मुझे वह चाहिए था. बचपना ही था. आगे चलकर पीएचडी उपाधि का इस तरह क्षय हुआ कि
मुझे संतोष आया चलो कोई बात नहीं कि डॉक्टर किशोर न कहलाये. मैं कोई चिन्तक या
बुद्धिजीवी नहीं था, मेरे पास अपनी भोग्य कामनाएं थीं. मैंने उन्हीं का पोषण किया.
मैं अब भी वही कर रहा हूँ. ये अगर कवितायेँ कही जाएँ तो समझिए कि असल में मेरे राग
द्वेष हैं. मैंने एक दर्शन की स्मृति का सहारा लेकर बात कहीं है. जैन दर्शन मेरी
इन बातों से कोटि कोटि ऊँचा है.
राग द्वेष से मुक्त
वीतरागी स्त्री स्थिर आसन
में
प्रेम की पतवार से ठेलती है
पृथ्वी को।
बुद्ध से वृद्ध
ऋषभदेव के
पदचिन्हों को
व्याख्यित करती है
क्या वे पति हैं
तुम्हारे जिसे न त्याग सको।
त्याग तो कुटिलता,
असभ्य भाषा
और अपने अहंकार
का ज़रूरी है।
फिर पति या पत्नी
को
त्याग कर जाते
हुए अनेक उदहारण हैं।
जिनके दुनिया पैर
पूजती है।
सर्वज्ञ सिद्ध
अहर्त
तुम्हारी
कोहनियों से टपक रहा है ममत्व
धरती तुम्हारी
गोद में आने आतुर है।
।। सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/1।।
ज़रा नीचे झांको
देवी
निगंठ नातपुत्त
में सुना था
आखिरी तीर्थंकर
का नाम पहली बार।
सुन्दर परदों के
पार
अट्टालिका के
भव्यतम शिखर से झांकती स्त्री
तुम्हारा अवतरण
कब हुआ था?
बीहड़ों से बहकर
आये
जल का आचमन तुमने
अज्ञान से किया था
या फिर तुममें
बचा रह गया
क्षत्रीय ज्ञातृ
कुल का कोई अंश।
तेजस्वी भाषा के
आलोक में
दिगंबर
निर्ग्रन्थ का लोप हो चुका है।
कुछ सीढियां
उतरने का समय है, हे देवी!
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/2।।
वस्त्र धारण किये
रहो देवी
झूठ से बने
वस्त्रों को
नोचते हुए
कठोर चेहरे से
कल्याण की कामना करती, है रूपवती
स्त्री।
असत्य हुआ जाता है
दिगंबर।
मगर गृहस्थों और
श्रावकों को
सार्वजनिक
निर्वस्त्र होने का आदेश नहीं है
तुम कुछ न तजो,
देवी।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/3।।
पर-पुरुष क्या
होता है झूठ किसे कहते हैं?
उन खो चुके आगम ग्रंथों
में
तीर्थंकरों ने
क्या कुछ लिखा होगा प्रिये।
क्या ब्योपार पर
गए
वणिकों की
स्त्रियों के पर
पुरुष संवाद के बारे में भी
कुछ रहा होगा।
क्या नेह के दो
टुकड़े
किसी अपराध में
रखे गए होंगे।
क्या किसी की
अपत्नी होते हुए भी
सौतिया डाह का
उल्लेख रहा होगा।
कहो देवी
क्यों खोयी चीज़ें
लुभाती हैं
क्यों आगम ग्रन्थ
स्मृत होते हैं।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/4।।
राह अँधेरी
रागद्वेषादिविजय
को
प्रभु कितने कष्ट
सहे आपने
कैसे पाया महावीर
होना।
ये केंचुए कौन
हैं?
सत्य का अंकुश
लिए
आती सुंदरियाँ
कौन हैं?
और प्रभु
इनमें बचे हुए
रागों के लिए
क्यों न छीन लिया जाए इनसे जैनी
होना
मार्ग दिखाओ।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/5।।
बंधन
ज्ञान प्राप्त होने पर
भोजन अनावश्यक हो जाता है
किन्तु स्त्री-शरीर को
कैसे भी नहीं होती मुक्ति.
और तीर्थंकर
क्या ये कठोर
वार्ता
समस्त स्त्रियों
के लिए है या
वायु में विचरते
गुलाबी फाहे
निबद्ध नहीं हैं इनमें
प्रभु अगर स्त्रियों की मुक्ति
नहीं है
तो मुझे भी एक
स्त्री होने का वर दो।
मैं प्रेम आसव
में रहूँ क्रीड़ारत
प्रत्यक्ष और
अप्रत्यक्ष ज्ञान की तरह।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/6।।
ऊँचा पदार्थ
ओ प्रिये
वह सुदीर्घ ऊँचाई
क्या विशेष है
वहां अधरों को
चूमे बिना होता है परोक्ष ज्ञान।
वहां मिट जाती है
इन्द्रिय अथवा मन
की ज़रूरत
और आत्मा
अपने ज्ञान से
छांट लेती है
काले-गोरे, छूत-अछूत, जैनी-अजैनी मन।
मैं मूढ़
काश जान पाता
अदृष्ट दूर स्थित
पदार्थों का अवधिज्ञान।
प्रभु
इतने ऊंचे
पदार्थों में कभी होता है
थोड़ा सा भी प्रेम
किसी के भी लिए।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/7।।
धनी चरवाहा
देवी
जिस विध चरवाहा
हांकता है जानवर
उस विध तुम कितने
मन हांकती हो।
कहाँ जायेगा रेवड़
हरे चारागाह में
या अंधे कुएं में?
वैसे
ये लोगों के मन
को पढने की
मनःपर्यायज्ञान
विधि कहाँ से सीखी है?
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/8।।
श्रुत ज्ञान
प्रिये
श्रुतज्ञान का
जो वृक्ष उगाया
है
उसके बीज किसने
दिए थे।
या किस संयोग से जन्मे
वे बीज?
वातायन में खड़ी
सुंदरी पर आसक्त
हो गया था
कोई शैतानी साया
या सुंदरी ने ही
पसार दिया था खुद को?
देव अपने तेज़ से
इसे भी उघाड़ो कभी।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/9।।
सबकुछ नाशवान है
प्रिये
दिक् काल सिमित
है प्रभु
तो सबका क्षय
होता ही होगा?
ढल जायेगा जोबन
उन्नत ललाट पर
उतर आएगी चिंता की रेखाएं
इसके पश्चात् एक
दिन
विस्मृति में बचे,
सताए, मरे हुए लोगों के लिए भी
कर पाओगे क्षमा
याचना?
मूर्ख
इन अधरों और जिह्वा
से
चूमा होता किसी
को।
अज्ञानी सींचे
जीवन बेल।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/10।।
कैवल्य
बिछोह में
आत्मा ने उतार
फेंका सबकुछ
तीर्थंकरों ने
इसे केवलज्ञान
कहा।
प्रेम के बिना
असंभव था
आत्यंतिक नाश।
।।सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/11।।
सापेक्षतावादी
बहुत्ववाद
बहु आयामी और
अनेक धर्मी सबको बनाता है
देवी(?)
या ये सब ऐसे हैं
ही?
चाहना, प्रेम और
सहवास को भी क्या जींस समझा जाएँ ?
इनके भी अलग अलग
और अनेक धर्म हों
तो तुम्हें बुरा तो न लगेगा.
अपनी ताड़ना के
शंकु को
आकाश की ओर कर
लो.
अनंतधर्मकं
वस्तु. अन्नतधर्मात्मकमेव तत्त्वम.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/12॥
रूपसी
तुम्हारे बदन के
हर बल से गिर रही
हैं गिरहें
और दर्शक के मन
से झरता है अकूत लोभ
मगर सब पुद्गल
है.
आह जिस रूप
लावण्य
चाहना को लेकर
आत्म वशीभूत हैं जगत
वे सब तो
सड़ने गलने वाली
नाशवान चीज़ें ठहरीं.
एक प्याला और दो
कि मेरा नाश हो.
तुम भी पुद्गल,
मैं भी पुद्गल.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/13॥
वह धतूरा है देवी
सुन्दर पुष्पों की आभा तले
मस्तिष्क नाशक बीजों का सजीव संग्रह.
सिहरकर दूर न हटो
धतूरा एक औषधि भी तो है.
जो सत्य से पूरित है वह ही फलित है
जो विनाशी होकर नित्यत्व है,
वह वस्तु है.
तुम भी एक वस्तु हो
एक समय साथ तरल थी, एक समय ठोस हो.
किसी और समय जाने कैसे कैसे हो जाओ.
अनेकांतवाद अनन्त अनेक होने का वाद है
अभी सब कलाएं जानना शेष है.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/14॥
मैं आकाश के आसन से उतर कर
तुमसे बात करूँ?
आह
मुनि स्थिर हो गए
अविचल प्रेक्षक की भांति
आकाश से उतरी सत्य की बाती.
लोक लाज
मान सम्मान सब विस्मृत
सहसा
तिमिर में खड़े तपस्वी पर
उतरा एक द्रव्य
ज्यों कोलाहल में उतरे मौन.
द्रव्य का लक्षण है
गुणपर्याय वाला होना.
श्रमणी
तुम्हारे पास ये कौनसा निश्चेतक है?
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/15॥
उसने कहा
यह ही सत्य है
मेरे तीर्थंकरों ने कहा है
इससे अधिक
दुर्नीति, दुर्गुण या दोषयुक्त नय (सत्य) कुछ नहीं.
क्या तुमने सिर्फ वे पत्थर के चरण देखे
उनके अभिवादन में पड़े तोड़े कुम्हलाये पुष्प देखे
क्या तुमने कभी मन से सुनी नहीं ये बात.
तुम्हारा सत्य असल में तुम्हारा अहंकार है.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/16॥
सत्य के अतिरेक भरे
तुम्हारे संभाषण को
आप्तमीमांसा के किसी पन्ने पर
रचयिता ने सत्यलाँछन कहा है.
सत्य के नाम पर
कौनसा अंग पकड़ रखा है तुमने हाथी का.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/17॥
मैं सही हूँ
हो सकता है तुम भी सही
आओ बैठें किसी कॉफी हाउस में.
हो सकता है कॉफी हाउस अच्छी जगह है
हो सकता है कॉफी हाउस बुरी जगह हो.
हो सकता है क्रिया विधि, उपवास और जीवन का
तुम्हारे नाम के आगे लिखे
कुलनाम से कोई वास्ता न हो.
भाषण में अभाष्य
भोजन में अभोज्य से अधिक कष्टप्रद है प्रिये.
स्यात, स्यात, स्यात ये मेरा भ्रम ही हो.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/18॥
सबकुछ खंडित है प्रिये
सत्य भी विभाजित है
सात भागों में
अस्ति, नास्ति और अव्यक्तम् के
संभावित मेल में बंटा हुआ.
भव्य शयनकक्ष के वातायन से
प्रेयसी कर रही थी
प्रिय संग अव्यक्तम् दृष्टि विहार
पत्नी प्रतीक्षा
कामायनी कल्पनाएँ
ढोंगी, ढोंग.
घड़ा मिट्टी था या मिट्टी घड़ा थी
सत्य अबूझ है अभी तक.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/19॥
शायद ये सच है
शायद वो भी सच है
मुझको उससे प्रेम है
शायद तुमको उससे प्रेम है
सत्य में उसे किसी से प्रेम नहीं
मैं सत्य हूँ और वह असत्य है.
शाड़करभाष्य में इसे
पागलों का प्रलाप कहा है प्रिये.
मजमे के बाद और उससे पहले
तुमने जो कुछ कहा
वह बहुत कोमल है इसके आगे.
तुम्हारा यज्ञ विरोधों का समूह
मैं हविष्य उसका.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/20॥
वीतराग से बड़ा देव और
अनेकांतवाद से बड़ा कोई सिद्धांत नहीं
उम्र के पचास बरस किसकी आराधना में गवाएं प्रिय
वो भूख किस कारण सही
वो तपस्या के हेतु क्या थे फिर?
आंशिक अपूर्ण सत्य के निवारण को
मेरे अधरों से फूटती हैं
कच्ची कोंपलें
वक्ष ढक गया भुजाओं की ओट में
बाक़ी कुछ भी ऐसा नहीं
जो अजाना हो जिसे लाया गया हो चुराकर.
मैं पदार्थ
मिलता हूँ पदार्थों में
कुपित न रहो.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/21॥
पत्र आया है दूर से
लिखा होकर उदास
भोगायतन शरीर है
भोग्य समस्त जगत
अनादि अविद्या
और वासना के
कर्म बंधन में जीए जा रहे
हैं.
लिखना तुम कैसे हो?
हे तीर्थंकर
पत्र का क्या लिखूं जवाब?
सब जीव स्वभाव से मुक्त.
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/22॥
चींटी का जीव चींटी के
बराबर
ऊंट का जीव ऊंट के बराबर .
मेरा जीव जाकर समा गया उसके
जीव में.
प्रभु
ये पदार्थ दोष है?
क्या हम दोनों केंचुए हैं
क्या हम दोनों डोल्फिन मछली हैं.
जीव चेतन द्रव्य
किस विध समझूं, किस विध
जानूं?
॥सुनो [जा]ना, व्यर्थ अभिमाना/23॥