मिथ्या स्वप्न से वास्तविक जाग। कल रात की नींद में मैं एक स्वप्न जी रहा था। दफ़्तर की एक महफ़िल में लतीफ़ा सुनाते हुए मुझे किसी आड़ से एक कुलीग दिखाई दी। उन्हें देखते ही बोध हुआ कि लतीफ़े की प्रकृति इस अवसर के अनुकूल नहीं है। उनको अपनी तरफ देखते हुए देखकर कंपकपी हुई। ये झुरझुरी हवा की ठण्ड के कारण थी। मैं छत पर चारपाई पर बिना कुछ ओढ़े सो गया था। हवा की ठंडक ने मेरा स्वप्न तोड़ दिया। मैं कमरे में गया। तकिया और चादर लेकर फिर से लेट गया। स्वप्न में अनुचित होने का बोध ये संकेत करता है कि वह एक मिथ्या स्थिति नहीं है। स्वप्न हमारी जागृत अवस्था की तरह सीखे गए अनुचित को अपने साथ लिए हुए था। अवचेतन या अर्धचेतन स्थिति में वह कौन है जो सावचेत करता है। डराता है। रोकता है। अगर वह स्वप्न भर है। मन का उलझ हुआ विकार या प्रकृति भर है तो वहां इन सब की उपस्थिति क्यों है? यही सोचते हुए मुझे नींद आ गयी कि सम्भव है स्वप्न एक वास्तविक जीवन है। उसका टूटना ही असल स्वप्न में लौट आना है। जो मिथ्या है वह सत्य है। जो कल्पना है वह सोच के भीतर और दृश्य से दूर एक और सत्य है। संभव है स्वप्न सत्य और जीवन मृत्यु...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]