साफ़ रंग के चेहरे पर कुछ ठहरी हुई लकीरें थीं. इन लकीरों की बारीक परछाई में ताम्बई धागों की बुनावट सी जान पड़ती थी. वह मोढ़े पर बिना सहारा लिए घुटनों पर कोहनियाँ टिकाये बैठी हुई थी. चाय की मेज के पार भूरे रंग का सोफा था. वह उसी सोफे की तरफ चुप देख रही थी. कुछ देर ऐसे ही देखते रहने के बाद वह फुसफुसाई- “मैंने तुमको क्यों बुलाया था?” उसे कुछ याद आया. उसने मुड़कर पीछे देखा. वह उठकर रसोई की ओर चल पड़ी. उसने फ्रीज़ से दूध का बर्तन हाथ में लिया तो लगा कि गरम दिन आ गए हैं. बरतन को थामे हुए अँगुलियों में मीठा-ठंडा अहसास आया. उसके डिपार्टमेंट में लगे वाटर कूलर के नल को पकड़ने पर भी ऐसा ही अहसास हुआ करता था. उसने अक्सर नल को पकड़े हुए पानी पिया. वे गरम दिन थे जब नया सेमेस्टर शुरू हुआ ही था. ऐसे ही किसी दिन पानी पीने के वक़्त उसने कहा था- “तुम दूसरी लड़कियों की तरह पानी की बोतल साथ नहीं लाती हो?” नहीं वह थोड़ी देर उसे देखता रहा. वो देख रहा था कि उसने होठों के आस पास लगी पानी की बूंदों को पौंछा नहीं. कुछ बूंदें आहिस्ता से बह गयी थी, कुछ ठहरी हुई थी. ऐसे देखते हुए उसने पूछा- “शहर में रहत...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]