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मौसमों के बीच फासले थे - एक

साफ़ रंग के चेहरे पर कुछ ठहरी हुई लकीरें थीं. इन लकीरों की बारीक परछाई में ताम्बई धागों की बुनावट सी जान पड़ती थी. वह मोढ़े पर बिना सहारा लिए घुटनों पर कोहनियाँ टिकाये बैठी हुई थी. चाय की मेज के पार भूरे रंग का सोफा था. वह उसी सोफे की तरफ चुप देख रही थी. कुछ देर ऐसे ही देखते रहने के बाद वह फुसफुसाई- “मैंने तुमको क्यों बुलाया था?”

उसे कुछ याद आया. उसने मुड़कर पीछे देखा. वह उठकर रसोई की ओर चल पड़ी. उसने फ्रीज़ से दूध का बर्तन हाथ में लिया तो लगा कि गरम दिन आ गए हैं. बरतन को थामे हुए अँगुलियों में मीठा-ठंडा अहसास आया. उसके डिपार्टमेंट में लगे वाटर कूलर के नल को पकड़ने पर भी ऐसा ही अहसास हुआ करता था. उसने अक्सर नल को पकड़े हुए पानी पिया. वे गरम दिन थे जब नया सेमेस्टर शुरू हुआ ही था.

ऐसे ही किसी दिन पानी पीने के वक़्त उसने कहा था- “तुम दूसरी लड़कियों की तरह पानी की बोतल साथ नहीं लाती हो?”

नहीं

वह थोड़ी देर उसे देखता रहा. वो देख रहा था कि उसने होठों के आस पास लगी पानी की बूंदों को पौंछा नहीं. कुछ बूंदें आहिस्ता से बह गयी थी, कुछ ठहरी हुई थी.

ऐसे देखते हुए उसने पूछा- “शहर में रहती हो?”

हाँ, मगर तुमको कैसे मालूम?

मैंने तुमको सोजती गेट पर उतरते हुए कई बार देखा था.

वे दोनों एक दूजे को बहुत बार देखते थे. उनके डिपार्टमेंट एक ही बिल्डिंग में थे. ठीक आमने सामने. अक्सर भरी धूप में विश्वविद्यालय परिसर सूना पड़ा रहता था. कमरों के आगे बने बरामदों की रेलिंग पर कोहनियाँ टिकाये हुए लड़के लड़कियां खड़े रहते थे. उन कोहनियों के आस पास प्रेक्टिकल फाइल्स पड़ी होती. कक्षा का लगभग हर लड़का, लगभग हर लड़की को किसी न किसी बहाने टटोल चुका था कि वह उसमें इंट्रेस्टेड है कि नहीं. कुछ एक ने कई-कई बार कोशिश की थी और फिर वे ढीठ हो गए थे. उन पर किसी बात का कोई असर नहीं होता था. उसके पास अनेक चिट्ठियां आई. उसके लिए बहाने से गीत गाये गए. उसके लिए बेवजह लतीफे सुनाये गए. सब कुछ बेअसर था.

एक रोज़ बरामदे की रेलिंग के पास खड़े हुए वह दिखा. वह उसी को देख रहा था.

कोई चार पांच मुलाकाते हुई. पांचवी बार में उसने लड़के से कहा- “मैं एंगेज हूँ. मैं खुश नहीं हूँ. असल में मुझे कुछ नहीं चाहिए. मैं जा रही हूँ.”

वे ग्यारह साल बाद फिर से अचानक मिले. लड़का एक आदमी हो चुका था. वह एक औरत. आदमी के बदन रेत की तरह ढह गया. औरत के भीतर पत्थरों की ठोस बुनावट थी. किसी भारी शोर के साथ भरभरा कर गिर पड़ी.

औरत ने कहा- “ज़िन्दगी के बारे में हम कुछ नहीं समझते थे.”

आदमी बोला- “तुम ठीक कहती हो”

औरत ने कहा- “घर आओगे कभी?”

आदमी ने कहा- “हाँ ज़रूर. कभी”

वह रसोई से एक मग लिए हुए बाहर आई. वह उसी मोढ़े पर बैठ गयी. उसने कहा- “तुम ऐसे क्यों हो. तुमने उस वक़्त भी कुछ नहीं कहा जब मैंने कहा था कि मैं खुश नहीं हूँ. मैं एंगेज हूँ. और मैं जा रही हूँ. तुम चुप, मुझे जाता हुआ देखते रहे. अब भी चुप बैठे हो?

लम्बी चुप्पी पसरी रही.

सामने सोफे पर खालीपन था. वहां कोई नहीं था. वह औरत उसी तरफ देख रही थी. उसके चेहरे की लकीरें अब भी ठहरी हुई थी. लकीरों के पास के ताम्बई रेशों पर धूप की चमक खिली थी. खिड़की से आता धूप का टुकड़ा फर्श से टकरा कर उसके चेहरे को रौशनी से धो रहा था.

उसने आँख उठाकर देखा कि घर के आगे से गुज़री कार रुक गयी है चली गयी.

[इंतज़ार की कहानियां उतनी उदास नहीं है जितना इंतज़ार]

Painting : Gargovi Art

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