उसके हाथ साफ़ थे. अंगुलियाँ सब गिरहों को करीने से रखती जाती थीं. दिल और दिमाग भले कितनी ही जगह उलझे हों, फंदे के कसाव न कम होते थे न फैलते थे. जब तक थका हारा हुआ बदन ठंडा था. वो आराम गरमाहट भली सी लगती थी. लोग कहते थे कि ये बुनावट असल में उसकी अँगुलियों की ज़रूरत थी. वे अंगुलियाँ जो बचपन से अब तक नयी छुअन की तलबगार रही मगर अपने ही किसी डर के कारण चुप लगाकर बैठी रहती थी. जिस तरह बेशर्मी आती है. जिस तरह असर खत्म होता है. जिस तरह परवाह जाती रहती है. उसी तरह ये हुनर भी आया था. अलग -अलग सिरे बांधना और फंदे बुनते जाना. एक दोपहर उसने सिरा बाँधा. शाम को बात करते हैं. शाम को फंदा डाला. "वो बहुत दूर है. हालाँकि लौटने में कोई तीन दिन का फासला भर है. मगर तुम समझते हो न कि किसी का यूं लौट आना लौटना नहीं होता. बस आधी रात को फ्लाइट लेंड करेगी. दो एक घंटे में घर की डोरबेल बजेगी. उसके इंतज़ार में कदम वहीँ दरवाज़े के पास खड़े होंगे. वह अपने ट्रोली बैग को किनारे कर देगा. उसी तरफ जहाँ पिछली बार लाया हुआ एक पौधा रखा होगा. वाशरूम उधर ही है. रास्ता बेडरूम के अन्दर है. अगर उसी की आदत न हुई होती तो वो...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]