ये ज़रूरी नहीं है कि काग़ज़ के फूल काग़ज़ से ही बने हों। ताज़ा फूल थे। महकते, लुभाते फूल। गमले में रख दिए। हवा ने या वक़्त ने उनकी नमी सोख ली। उन सूखे फूलों को देखकर लगता था कि वे काग़ज़ के फूल हैं। अचानक हाथ सूखे फूलों के गुच्छे पर गया तो काग़ज़ की छुअन महसूस हुई। काग़ज़ सी आवाज़ आई। वे फूल अगर छांव में न रखे होते तो धूप में काग़ज़ की तरह जल सकते थे। प्रेम भी एक दिन सूखा हुआ काग़ज़ फूल हो जाता है? नहीं। तुमने कभी देखा है कि तितली, भँवरे, चिड़ियाँ किसी मुरझाए फूल के पास उदास बैठी है? नहीं न। तितलियां और पंछी जानते हैं कि फूलों का काग़ज़ हो जाना, प्रेम का स्मृति में ढल जाना नियति है। इसलिए नए फूल तक उड़ो। तुम्हारी नियति एक नये क्षण की ओर चलते जाना।
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]