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Showing posts from August, 2020

कोई बात है मगर क्या?

मैं नहीं समझ पाता कि बात क्या है। उसी क्षण उलझन में गिर जाता हूँ कि अगर बात है तो मालूम होनी चाहिए मगर बहुत सोचने के बाद भी कोई बात समझ नहीं आती। दफ़्तर के खाली कमरे में एसी चल रहा होता है मगर बेचैनी होने लगती है। मैं दाएं-बाएं झांकता हूँ। सोचता हूँ क्या करूँ। बस इतना भर समझ आता है कि अब यहां दो क्षण भी बैठा नहीं जा सकता। मोबाइल का चार्जर और हैंड्सफ्री समेटता हुआ बाहर निकल आता हूँ। खुले आकाश तले सीढ़ियों पर खड़ा हुआ चौतरफ़ देखता हूँ। सब ठहरा हुआ है। पेड़ की छांव में खड़े स्कूटर के पास रुकता हूँ। मैं चिड़ियों की आवाज़ें सुनना चाहता हूँ। चिड़ियों की आवाज़ के लिए इंतज़ार नहीं कर पाता। रोज़ कोई सपना, इच्छा, चाहना या आशा कहीं खो जाती है। मैं जानता हूँ कि जीवन अत्यंत साधारण घटनाओं से बना होता है। इसमें अद्भुत और आश्चर्यचकित करने वाली ख़ुशी नहीं होती। इसमें ही रोज़ खप जाना होता है। लेकिन इस खपने को सोचने से हर बार बचा नहीं जा सकता। कभी-कभी कितने ही बीते हुए दिन एक अफ़सोस की तरह सामने आ खड़े होते हैं। जैसे एक-एक कर पत्ते झड़ रहे हैं। सब कुछ बीत रहा है। चाहना और प्रत्याशा से भरे जीवन का कॉकटेल बहुत भारी होता ह...

ठहरी हुई सतर

जीवन भीतर से तरंगित होता है। कभी-कभी उसकी आवृति इतनी क्षीण होती है कि सुनने के लिए ध्यान लगाना पड़ता है। सुस्त बाज़ार में खाली पड़ी नाई की दुकान, किराणे की पेढ़ी के आगे सूनापन और चाय की थड़ी की बैंचों पर पसरी चुप्पी दिखाई देती है। असल में जीवन का बाजा तब भी बज रहा होता है। सूनी बैंचों पर बैठे हुए, दुकानों के आगे बने ओटों पर ज़र्दे को थपकी देते और बीड़ी सुलगाते लोगों की स्मृति ठीक से बुझ नहीं पाती उससे पहले दृश्य में नए चेहरे समा जाते हैं। एक ठहरी हुई सतर पर कुछ नए लफ्ज़ गिरते हैं और वह आगे बढ़ जाती है। मैं ऐसे दृश्यों को शब्दों में बांध लेना चाहता हूँ। दीवार पर अशुद्ध वर्तनी में लिखे अनुरोध पढ़ते हुए देखना चाहता हूँ कि पिछली बरसात से अब तक दीवार पर स्याह रंग कितना बढ़ गया है। सड़क पर उड़ते कागज़ के कप, बुझी हुई बीड़ियाँ, सिगरेट के टोटे और पान मसालों की पन्नियां समय के निशान हैं। संझा होते ही इनको बुहार दिया जाता है तब लगता है जैसे किसी गहरी झपकी से जाग गया हूँ। खुद को देखता हूँ कि मैं बिल्कुल नया हूँ। मैं जो वहीं बैठा था। समय जो निरन्तर बीत रहा था। जीवन जो अपनी उम्र में एक टिक आगे बढ़ गया था। कुछ भी ठ...

लेकिन नियति।

सब ख़राब और अच्छे काम नियति के खानों में रखे जा सकते थे। सब योजनाओं को नियति के हवाले किया जा सकता था। इससे भी कड़ी बात थी कि हर सम्पन्न कार्य पर नियति की मोहर लग जाना। इससे इनकार न कर पाने की बेबसी और अधिक बुरी थी। कहीं कोई उदास ख़्वाब लिए चुप बैठे होते। प्यार से ऊबकर प्यार तलाशते जैसे तम्बाकू से ऊबकर फिर से तम्बाकू सुलगाते। कहीं कोई आहट होती दिल पहले ही मान लेता कि ये वो नहीं है। समय का कारवां गुज़रता रहता। बस।

ये मैं ख़ुद नहीं जानता

कभी-कभी स्वप्न में जेबें छुहारों से भरी होती हैं जैसे कभी-कभी दिल उसकी चाहना से भर जाता है। तन्हाई में कच्ची दीवार पर बैठा रहता। दोपहर में लम्बी धूपिया धुन बजती रहती। किसी शाम मुंडेर से नीचे पांव लटकाये हुए आंखें गली को देखती थी। सूनेपन में जब कोई दिख जाता तो आंखें कहीं और देखने लगती। तपती खाली दोपहर, सूनी सांझ और तारों भरी नीरव रात किसी की मोहब्बत कैसे हो सकती है? मगर थी। एक बार दिल किसी काम में लग गया। खेल, जुआ या मोहब्बत, तो फिर वह अपना कुछ नहीं सोचता था। दिल शुरुआत करना तो जानता था मगर सलीके से कुछ भी सम्पन्न करना सीख नहीं पाया। यही खामी अकसर एक ख़ूबी बन जाती थी कि जिंदगी को गुज़रना होता है वह गुज़रती रहती थी। आज दिल भर आया। चाहने वालों से और जिनको चाहा। फिर उसी कच्ची दीवार, उसी मुंडेर, उसी नीरव रात के पास लौट जाने का मन हुआ। मगर वह किशोर बहुत पीछे छूट गया है, जिसके पास ये सब था। अब एक बेहद मीठी शराब है। सुरूर तो होता है मगर कोई बात गुम है। जैसे जेबों से सब छुहारे गिर गए हों। मैं बेहद पुरानी व्हिस्की या छुहारों से कितना प्रेम करता हूँ, ये मैं ख़ुद नहीं जानता। जैसे होना। तुम रहना। * * *