कोई बात है मगर क्या?

मैं नहीं समझ पाता कि बात क्या है। उसी क्षण उलझन में गिर जाता हूँ कि अगर बात है तो मालूम होनी चाहिए मगर बहुत सोचने के बाद भी कोई बात समझ नहीं आती।
दफ़्तर के खाली कमरे में एसी चल रहा होता है मगर बेचैनी होने लगती है। मैं दाएं-बाएं झांकता हूँ। सोचता हूँ क्या करूँ। बस इतना भर समझ आता है कि अब यहां दो क्षण भी बैठा नहीं जा सकता। मोबाइल का चार्जर और हैंड्सफ्री समेटता हुआ बाहर निकल आता हूँ।
खुले आकाश तले सीढ़ियों पर खड़ा हुआ चौतरफ़ देखता हूँ। सब ठहरा हुआ है। पेड़ की छांव में खड़े स्कूटर के पास रुकता हूँ। मैं चिड़ियों की आवाज़ें सुनना चाहता हूँ। चिड़ियों की आवाज़ के लिए इंतज़ार नहीं कर पाता।
रोज़ कोई सपना, इच्छा, चाहना या आशा कहीं खो जाती है। मैं जानता हूँ कि जीवन अत्यंत साधारण घटनाओं से बना होता है। इसमें अद्भुत और आश्चर्यचकित करने वाली ख़ुशी नहीं होती। इसमें ही रोज़ खप जाना होता है। लेकिन इस खपने को सोचने से हर बार बचा नहीं जा सकता।
कभी-कभी कितने ही बीते हुए दिन एक अफ़सोस की तरह सामने आ खड़े होते हैं। जैसे एक-एक कर पत्ते झड़ रहे हैं। सब कुछ बीत रहा है।
चाहना और प्रत्याशा से भरे जीवन का कॉकटेल बहुत भारी होता है। इस जीवन को सोचना ही उदासीन भारीपन लेकर आता है। शायद।
अकसर कोई बड़ी बात नहीं होती। सब कुछ यथावत चलता रहता है। अकसर कोई नाकामी, कोई ग़लती या कोई दुःख नहीं होता। लेकिन कुछ नहीं होने की छीजत के बाद जो बचा रह जाता है, शायद वही एक क्षण अचानक बेचैनी की शक्ल में हमें दबोच लेता है।
हम अपने हाल से कब मुंह फेर सकते हैं? लेकिन इससे भी बड़ी बात है कि उस बात कैसे लिखा जा सकता है जो समझ ही नहीं आ रही।
वह बात जो है तो सही मगर है जाने क्या?

Comments