रोज़ ज़िन्दगी के कुछ ड्राफ्ट मिट जाते हैं मगर याद में थोड़े से बचे रह जाते हैं। कोई पत्ता शाख से गिरता है तो शायद नहीं सोचता कि ये गिरना किसी ड्राफ्ट का हिस्सा था। ऐसे ही शाख पर बने रहना भी शायद प्लांड न था। तो क्या ज़िन्दगी बिना किसी प्लान के मिलती है। सुबह आँख खुलने तक स्वप्न टूट चुके होते हैं मगर थोड़े से बचे रह जाते हैं। कभी-कभी थोड़े से कुछ ज़्यादा। एक तरतीब और सिलसिले से उनका ड्राफ्ट बन जाता है। बीत चुके स्वप्न का ड्राफ्ट। सूनी सड़क, खुले आहाते और नज़र के सामने लगभग बियाबान कैनवास को देखते हुए ख़याल आता है कि किसी सब्ज़े से चला आ रहा हूँ। अब तक पीले सघन पतझड़ तक पहुंच चुका हूँ। मगर। कितने सारे ड्राफ्ट अब भी बचे हुए हैं। मेरी पीठ के पीछे बैठी एक चिड़िया सोचती है कि आवाज़ दूँ या नहीं। वह औचक सामने आकर आवाज़ देती है। इसके बाद दिखती है लेकिन कभी कंधे पर नहीं बैठती। वह अब भी है मगर समय एक इरेजर की तरह ड्राफ्ट पर घूम रहा है। जाने क्यों लगता है कि वह जिस तरह औचक सामने आई थी उसी तरह कभी औचक हम घंटो साथ बैठे रहेंगे। विदेशी बबूल की पत्तियां बरसात की तरह झड़ती है। मैं अपनी बांह पर पड़ी पत्तियां नहीं झटकता। ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]