एक अरसे तक घुटनों के बल बैठा हुआ व्यक्ति ये जानता है कि उठा कैसे जाता है। उसकी स्मृति और अनुभव में अपना खड़ा होना याद होता है किंतु बैठे रहने की लंबी बाध्यता के बाद खड़े होने की स्मृति ठीक बची रहती है, अनुभव जा चुका होता है। अनुभव को जंग लग सकता है। उसका क्षय हो सकता है। ऐसे ही मैं रेल गाड़ी में अपनी शायिका पर पहुंचने से पहले कई बार दौड़ चुका था। मैं मन ही मन भाग कर रेल पकड़ रहा था। मैं चाह रहा था कि उस नियत जगह तक पहुंच जाऊं। इसके बाद मुझे अपने गंतव्य तक पहुंचने के दौरान कहीं न जाना पड़े। चार नम्बर प्लेटफॉर्म वैसा ही है जैसे दूजे होते हैं। लेकिन इस पर आते ही एक घबराहट होती है। मैं मुड़कर पीछे नहीं देखना चाहता हूँ। यही वह जगह थी। जहां से वह मुड़ी मगर उसने अलविदा न कहा था। क्या ये एक स्वप्न है। क्या ये न मिटने वाली याद है। क्या ये ज़रूरी है कि मेरी सब रेलगाड़ियां चार नम्बर से ही छूटे। पौने छह बजने को थे। रेल आ गई। यात्री जल्दबाज़ी में उतरना चाहते थे कि चढ़ने वालों की जल्दी उतरने वालों से बड़ी थी। मैं संकरे रास्ते में फंसे लोगों को देखता रहा। दोनों तरफ की जल्दबाजी एक दूजे में फंस चुकी थी। मिडल बर्थ प...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]