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अजनबी बने रहने का दांव

एक अरसे तक घुटनों के बल बैठा हुआ व्यक्ति ये जानता है कि उठा कैसे जाता है। उसकी स्मृति और अनुभव में अपना खड़ा होना याद होता है किंतु बैठे रहने की लंबी बाध्यता के बाद खड़े होने की स्मृति ठीक बची रहती है, अनुभव जा चुका होता है। अनुभव को जंग लग सकता है। उसका क्षय हो सकता है।

ऐसे ही मैं रेल गाड़ी में अपनी शायिका पर पहुंचने से पहले कई बार दौड़ चुका था। मैं मन ही मन भाग कर रेल पकड़ रहा था। मैं चाह रहा था कि उस नियत जगह तक पहुंच जाऊं। इसके बाद मुझे अपने गंतव्य तक पहुंचने के दौरान कहीं न जाना पड़े।
चार नम्बर प्लेटफॉर्म वैसा ही है जैसे दूजे होते हैं। लेकिन इस पर आते ही एक घबराहट होती है। मैं मुड़कर पीछे नहीं देखना चाहता हूँ। यही वह जगह थी। जहां से वह मुड़ी मगर उसने अलविदा न कहा था। क्या ये एक स्वप्न है। क्या ये न मिटने वाली याद है। क्या ये ज़रूरी है कि मेरी सब रेलगाड़ियां चार नम्बर से ही छूटे।
पौने छह बजने को थे। रेल आ गई। यात्री जल्दबाज़ी में उतरना चाहते थे कि चढ़ने वालों की जल्दी उतरने वालों से बड़ी थी। मैं संकरे रास्ते में फंसे लोगों को देखता रहा। दोनों तरफ की जल्दबाजी एक दूजे में फंस चुकी थी।
मिडल बर्थ पर कोई सो रहा था। वह शायद अलवर से आ रहा था। ये बहुत अच्छा था कि मैं चुपचाप निचली शायिका पर लेट सकता था। मैंने ऐसा ही किया। चमड़े के थैले से एक उपन्यास निकाला। चद्दर को तकिए की तरह खिड़की के नीचे रखा। अपने लंबे गमछे से खुद को आधा ढक लिया।
दो सौ तीस पन्ने। मैंने अनुमान लगाया कि जोधपुर आने से पहले मैं इसे पढ़ लूंगा। मेरा मोबाइल ऑफ था। चिंता आस पास के यात्रियों की थी। अक्सर मुझे बड़बोले, तेज़ गाने बजाने और मोबाइल पर ऊंची आवाज में कोई वीडियो देखने वाले सहयात्री मिले। मैं उनसे कभी कुछ नहीं कहता। सहयात्री चाहे जैसा उत्पात मचा ले, मैं सिर्फ बर्दाश्त करता हूँ। कभी जब बर्दाश्त के बाहर होने लगता है तो एक बार उनको देखकर करवट बदल लेता हूँ।
तीस पैंतीस की उम्र के तीन यात्री थे। विनम्र थे। एक लड़की और दो लड़के। एक साथ यात्रा कर रहे थे। उनकी बातों से मुझे मालूम हुआ कि वे जोधपुर उतरेंगे। कोच में आते ही मैंने उपन्यास खोल लिया था। इस कारण भी सम्भव है वे धीमे और ज़रूरी बातें कर रहे थे।
उपन्यास का कथानक था। अतीत को पुनः जीते हुए, अतीत से बदला लेना। रेल तेज़ चल रही थी। कहानी भी तेज़। रेलगाड़ी हर स्टेशन पर समयपूर्व आती और कुछ अधिक देर खड़ी रहती। मैं तेज़ी से पढ़ता और रेल की तरह ठहर जाता।
जब भी रेल रुकती एक अधेड़ स्टेशन पर उतरते और बीड़ी सुलगा लेते। बन्द मुट्ठी में रखे सिक्के की तह बीड़ी को पकड़े हुए फूंकते। उनकी मुट्ठी के बीच लाल रोशनी होती और मैं अंधेरी छत पर लाइटहाउस की तरह चमकती लाल रोशनी याद करने लगता। बीड़ी पीते हुए आदमी को देखना संक्रामक था। उस आदमी की नज़र हर बार मुझ पर होती। मैं एक दो बार देखकर फिर किताब में खो जाता।
ये डेगाना जंक्शन था। जहां मैंने सुना "हरामज़ादे मरना है तो मर जा" वही लड़की जो मेरे सामने बैठी हुई थी, अब ऊपर की शायिका पर थी और अपना सब्र खो चुकी थी। उसके सहयात्री ने कहा "सुबह उसका माफी भरा फ़ोन आ आ जायेगा। परेशान मत होवो।" फ़ोन पर उसका पति था जो फुलेरा स्टेशन पर गाड़ी के आने के समय से लगातार बात कर रहा था। लड़की हमारे कूपे से बाहर रेल कोच के दरवाजे पर खड़ी होकर उससे बहस करती आ रही थी। वह जाने कब आकर लेट गई थी। मुझे किताब के कारण ध्यान न रहा।
मेड़ता रोड स्टेशन के निकल जाने के कुछ देर बाद उपन्यास का एक पात्र मर गया। इसके बाद उपन्यास किसी नई कहानी की नीव रखने को बचा रह गया।
अचानक मुझे याद आया कि पोलोटेक्निक कॉलेज में रसायन के अध्यापक पद पर भर्ती की परीक्षा देकर आ रही और औरतों के पार्टनर ने मुझे पूछा था कि क्या आप बर्थ बदल लेंगे। मैं बदलना नहीं चाहता था। इसलिए कि रेल यात्रा मैं भूल चुका था। पिछले एक बरस से बाड़मेर से जयपुर तक की छह सात यात्राएं मैंने अपनी कार में ही की थी।
मैंने उनसे कहा था कि मैं बदल लूंगा लेकिन वे लोग वापस न आए। उनकी आवाज़ें पास के कूपे से आ रही थी। एक बुजुर्ग महिला साइड लोवर पर सो रही थी। मैंने पंखे बन्द कर दिए थे। एक बार सोचा कि उनको अपनी चादर ओढ़ा दूँ।
लेकिन जिस तरह मैं रेल यात्रा भूल चुका था उसी तरह किसी की मदद करने का समय जा चुका था। हम अब अस्पृश्य हो चुके हैं। किसी को छूना, बांटना या पास बैठना असामाजिक और व्यवस्था विरोधी हो चुका है।
मैंने सोचा कि मुझे चार नम्बर प्लेटफॉर्म के अतीत से नहीं घबराना चाहिए। अब हम साथ यात्रा कर रहे हों तो भी अनमने, चुप और उदासीन बैठे रहने के सिवा कुछ नहीं कर सकते।
मैंने सुना कि किसी ने कहा "माँ ये शाल ओढ़ा देता हूँ।" मुझे आराम आया। मैंने अपना लम्बा अंगोछा सर तक खींचा। कभी-कभी रोशनी के छल्ले मेरे अंगोछे पर गिरते। तब मैं सोचता कि किसी स्टेशन से रेल गुज़र रही है।
अब मैं बहुत डरने लगा हूँ मगर समय ने मेरे पक्ष में पासा चल दिया है। अजनबी बने रहने का दांव काफी सुकून भरा है।
शुक्रिया।
* * *

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