"ज़िंदगी की हर बात कितनी भी बेवजह हो, वह कविता से अधिक सुंदर होती है" बातें बेवजह के साथ आगे बढ़ते हर कदम पर पाया कि बेवजह की इन सारी बातों की जड़ है उन्मुक्त प्रेम! हालांकि अन्य छुटपुट भाव पत्तों की तरह अटके पड़े हैं। 'उसके नाम के पीछे छिपा लेता हूँ मैं अपना अकेलापन, कि इस दुनिया में कोई समझ नहीं सकता भरे पूरे घर में भी कोई हो सकता है अकेला' भरे पूरे घर में रहते हुए भी किसी से प्रेम करने की कभी कोई वजह नहीं बता सकता इसलिए प्रेम में पगी ये बातें बेवजह की ही हुई। ढेर सारी ऐषणाओं से भरा प्रेम। अपने मन की उर्वर जमीन पर प्रेमिका के देहरुपी पेड़ से लिपटे बैठे रहना, उसकी छाँव की ठंडक पाना, उसे अंक में भर उसके फूलों की महक को महसूस करना, चाहना बढ़ने पर फल तोड़ कर खा लेना ये उन्मुक्त कामनाएँ इस जमीन पर खरपतवारों की तरह जहाँ तहाँ ढिठाई से सिर उठाती रही हैं। प्रेम में देह को नकार कर रुह रुह की यहाँ पुकार नहीं है। उसमें बिंधकर मन को छलनी करने का कोई भाव नहीं, ग्लानि नहीं। शैतान का चोला ओढ़ समाज की बँधी बँधाई लीक को तोड़ कविताओं के नायक द्वारा बेधड़क, बेलाग, बिंदास और...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]