फूल चुपचाप झड़ते रहते हैं इंतज़ार पास बैठा रहता है। न फूल विदा कहते हैं, न इंतज़ार कुछ कहता है। ••• कि सब काग़ज़ी हैं मगर किसी फूल के झड़ने से एक चौंक सी उठती है। ••• एक फूल चंपा का कुछ जल्दी झड़ गया है जैसे किसी याद में टहलते हुए हम फिसल कर हक़ीक़त में गिर पड़े हैं। ••• कितने कम फूल भीग पाते हैं बरसात में अधिकतर खिलकर इंतज़ार में झड़ जाते हैं। प्रेम मिलना भी अनिश्चित है। ••• जीवन खिलता है वन फूल की तरह प्रेम, तितली की तरह चूम कर उड़ जाता है। ••• फूल खिलते रहते, तितलियाँ लौटती रहती हैं, मगर इस बीच इंतज़ार भरी-भरी आँखों से देखता है, कोई धुंधली तस्वीर। ••• हवा के झाँकों से लहराती घास तोड़ देती है दिन का स्वप्न। प्रेम कहने की बात बात कभी नहीं था, कभी न कहना। ••• इस लम्हे घास के फूल हवा के संग डोल रहे हैं। कल हवा का रुख़ जाने क्या हो, जाने ये फूल किधर जाएँ। ••• केवल फूल ही नहीं, सूखी पत्तियों में, बारिश की बूँदों में, लू के झकोरों में, छीजती जाती छांव में भी इंतज़ार कहीं बैठा रहता है। ...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]