इंतज़ार के फूल

फूल चुपचाप झड़ते रहते हैं 

इंतज़ार पास बैठा रहता है। 

न फूल विदा कहते हैं, न इंतज़ार कुछ कहता है।

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कि सब काग़ज़ी हैं 

मगर किसी फूल के झड़ने से 

एक चौंक सी उठती है। 

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एक फूल चंपा का कुछ जल्दी झड़ गया है 

जैसे किसी याद में टहलते हुए 

हम फिसल कर हक़ीक़त में गिर पड़े हैं।

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कितने कम फूल भीग पाते हैं बरसात में 

अधिकतर खिलकर इंतज़ार में झड़ जाते हैं। 


प्रेम मिलना भी अनिश्चित है।

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जीवन खिलता है वन फूल की तरह 

प्रेम, तितली की तरह चूम कर उड़ जाता है।

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फूल खिलते रहते, तितलियाँ लौटती रहती हैं, 

मगर इस बीच इंतज़ार 

भरी-भरी आँखों से देखता है, कोई धुंधली तस्वीर।

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हवा के झाँकों से लहराती घास 

तोड़ देती है दिन का स्वप्न। 


प्रेम कहने की बात बात कभी नहीं था, कभी न कहना।

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इस लम्हे घास के फूल 

हवा के संग डोल रहे हैं। 


कल हवा का रुख़ जाने क्या हो, 

जाने ये फूल किधर जाएँ।

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केवल फूल ही नहीं, सूखी पत्तियों में, बारिश की बूँदों में, लू के झकोरों में, छीजती जाती छांव में भी इंतज़ार कहीं बैठा रहता है। 

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