मैंने चाहा कि लेवेंडर की पत्तियां अपनी हथेली में रख कर मसल दूँ. मैं झुक नहीं पाया कि मेरे कमीज़ और हथेलियाँ में कोई खुशबू भरी है. फुरसत के चार कदम चलते हुए जब हसरतों के कुरते की सलवटों में छिपे हुए बेक़रार रातों के किस्सों को पढना चाहें तो आधा कदम पीछे रहना लाजिमी है. ज़रा आहिस्ता चलता हूँ कि अपने कौतुहल में लिख सकूँ, ज़िन्दगी की लहर का किनारा क्या उलीचता और सींचता रहता है. इस लम्हे की खुशबू के उड़ जाने के डर के बीच ख़याल आता है कि क्या मेरा ये लम्हा किनारे की मिट्टी पर बिखरे हुए सीपियों के खोल जैसी किसी स्मृति में ढल कर रह जायेगा. मैंने फूलों और चीज़ों को उदासीन निगाहों से देखा और फ़िर सोचा कि रास्तों के फ़ासलों की उम्र क्या हुआ करती है? खुशबू की ज़द क्या होती है? इस वक़्त जो हासिल है, उसका अंज़ाम क्या है? मुझे याद आया कि ईश्वर बहुत दयालु है. वह सबके लिए कम से कम दो तीन विकल्प छोड़ता है. उनमें से आप चुन सकते हैं. मेरे पास भी दो विकल्प थे. पहला था कि मैं वहाँ रुक नहीं सकता और दूसरा कि मैं वहाँ से चला जाऊं. एक...
[रेगिस्तान के एक आम आदमी की डायरी]