मैंने चाहा कि लेवेंडर की पत्तियां अपनी हथेली में रख कर मसल दूँ. मैं
झुक नहीं पाया कि मेरे कमीज़ और हथेलियाँ में कोई खुशबू भरी है. फुरसत के
चार कदम चलते हुए जब हसरतों के कुरते की सलवटों में छिपे हुए बेक़रार रातों
के किस्सों को पढना चाहें तो आधा कदम पीछे रहना लाजिमी है. ज़रा आहिस्ता
चलता हूँ कि अपने कौतुहल में लिख सकूँ, ज़िन्दगी की लहर का किनारा क्या उलीचता और सींचता रहता है. इस लम्हे की खुशबू के उड़ जाने के डर के बीच
ख़याल आता है कि क्या मेरा ये लम्हा किनारे की मिट्टी पर बिखरे
हुए सीपियों के खोल जैसी किसी स्मृति में ढल कर रह जायेगा.
मैंने फूलों और चीज़ों को उदासीन निगाहों से देखा और फ़िर सोचा कि
रास्तों के फ़ासलों की उम्र क्या हुआ करती है? खुशबू की ज़द क्या होती है?
इस वक़्त जो हासिल है, उसका अंज़ाम क्या है? मुझे याद आया कि ईश्वर बहुत
दयालु है. वह सबके लिए कम से कम दो तीन विकल्प छोड़ता है. उनमें से आप चुन
सकते हैं. मेरे पास भी दो विकल्प थे. पहला था कि मैं वहाँ रुक नहीं सकता और
दूसरा कि मैं वहाँ से चला जाऊं. एक आम आदमी की तरह मैंने चाहा कि शिकायत
करूँ लेकिन फ़िर उसके आराम में खलल डालने का इरादा त्याग दिया. उसे मुहब्बत
से अधिक गरज नहीं है. उसके रोजनामचों में ऐसी बेढब हरकतों के बारे में कुछ
दर्ज नहीं किया जाता कि इस दुनिया में हर पल असंख्य लोग खुशबुओं की चादरें
सर पर उठाये हुए मुहब्बत की पुरानी मजारों की चौखटें चूमते रहते हैं.
खो
देने का अहसास कुछ ऐसा होता है जैसे समय की धूल में गुम हुआ कोई शहर याद
आये. उस शहर की गलियों की तसवीर दिखाई दे और ऐसा लगे कि इस जगह पर हम पहले
भी थे. या किसी कालखंड में यही जीवन पहले जीया जा चुका है. आस पास पहियों
के शोर पर भागता हुआ शहर किसी थ्री डी फ़िल्म सा असर जगाता है
लेकिन मैं सिर्फ़ एक निरपेक्ष दर्शक हूँ. नाकाम और बेदखल दर्शक. चुप खड़े
पेड़ों के टूटे पत्तों की आहटों के साथ अजनबी रास्तों पर बेवजह टहलते हुए
बिछड़ने के बाद के हालात के बारे में सोचता हूँ. एक गहरी उदासी के साथ
घबराहट बेआवाज़ कदमों से बढ़ी आती है.
भूल जाता हूँ कि इस मंथर काल
में भी सब कुछ अद्वितीय है. इसे दोहराया नहीं जा सकता. यह बीतता हुआ लम्हा
और ठहरा हुआ दृश्य अजीर्ण है. यह सवालों का कारखाना है कि इस जीवन रसायन के
केटेलिस्ट क्या हैं? जो एक सहज, सरल प्रेम विलयन को बनाते हैं. ज़िन्दगी
के अज़ाबों से लड़ते हुए कुछ सख्त हो चला चेहरा किस तरह निर्मल उजास से भर
जाता है. दुनिया की सिखाई हुई मायावी समझ के मुखौटे को उतार कर अपने असली
वजूद में लौट आता है. प्रेम का सघन रूप किस तरह इतना पारदर्शी होता है.
उसने कहा कि लैवेंडर के इन पत्तों पर बैंगनी फूल नहीं खिलेंगे...
मौसम बदल रहा है. हवा का रुख भी. धूप खिला करेगी और नए फूल उम्र का
सफ़र तय करते रहेंगे. मालूम नहीं अपने प्रेम के एकांत को संवारने के लिए
वह पार्क के कितने चक्कर काटेगी. लोग टहल कर निकल जाया करेंगे और बैंचों की
हत्थियों के नीचे कुछ ओस की बूँदें बची रह जाएगी जैसे बचा रह जाता है एक
आंसू... जिसकी नातमाम बातें हथेलियों पर खिल उठेंगी. नाभि के पास तितलियों
के घोंसले में हवा की सरगोशी गोया किसी किस्से से आती एक रूमानी अज़ान.
बेचैनी दर बेचैनी. ये किसने पुकारा है मुझे... वक़्त का सिरा कहां खो गया
है. मैं कौन हूँ... आओ लौट कर. मुझे मेरी पहचान बख्श दो.
* * *
इज़्तराब : उद्विग्नता, विह्वलता, ANXIETY.
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इज़्तराब : उद्विग्नता, विह्वलता, ANXIETY.