Skip to main content

जबकि वो उस शहर में नहीं रहती...




मैं मर गई हूँ. तुम भी अपने बिस्तर में मर जाओ.
उसने पहली बार देखा कि मरने के बाद चाँद तारों को देखना कितना अच्छा लगता है. नींद की प्रतीक्षा नहीं रहती. हवा और पानी की जरुरत ख़त्म हो जाती है. ब्रेड के बासी हो जाने या सर्द दिनों में दही के सही ढंग से जमने की चिंता से भी मुक्त हो जाते हैं. सबसे अलग बात होती है कि मरने के बाद कोई आपका इंतजार भी नहीं करता. वो इंतजार, जिससे उकता कर हर रात हम अपने बिस्तर में मर जाते हैं. ये सोचते हुए कि चाँद कायम रहा और सूरज रोज़ की तरह उगा तो सुबह देखेंगे कि हवा में ठंड कितनी बढ़ गयी है.

इन दिनों मैं यहाँ नहीं था, यह सच है.
मैं अजनबी भूगोल की सैर पर था. अपनी समझ खो चुके एक भटके हुए यात्री की तरह मेरी जिज्ञासाएं चरम पर थी. मेरे लिए वह नयी जगह थी. वहाँ पर बहुत सामान्य और उपेक्षा योग्य चीज़ें भी मुझे डरा रही थी. मैं एक पहली कक्षा का बच्चा था, जो दर्शनशास्त्र की किताब पर बैठा हुआ था. उस शहर में मेरा कोई नहीं रहता. उत्तर-पूर्व के ऊंचे पहाड़ों का रास्ता उसी जगह से जाता है. हाँ, बीस एक साल पहले मेरी एक बहन जोरहट में रहा करती थी. उसके फोन आया करते थे लेकिन मैंने कभी पूछा नहीं कि पहाड़ों के शहर कैसे दिखते हैं. अब सोचता हूँ कि हमें पूछते रहना चाहिए कि हमारी नियति का वेब जटिलता से गुंथा है. इसके अलग अलग सिरे हमारी प्रतीक्षा में होते हैं. संभव है कि इसे पढ़ते हुए तुम्हें भी ये ख़याल आये कि कभी इस रेगिस्तान में आना होगा.

कभी कभी हमें,
उन जगहों का मुआयना कर लेना चाहिए, जहाँ आने वाले कुछ सालों में जाना होता है.
मैंने देखा कि वहाँ हरे रंग की चादर बिछी है. घुमावदार रास्ते हैं. शहर से बाहर किन्हीं दो छोटी पहाड़ियों पर एक चौकोर हवेली खड़ी है. उसकी अनगिनत खिड़कियाँ बंद हैं. मैंने अग्नि दिशा की एक खिड़की को खोल कर देखा था. दूर तक चुप्पी पसरी थी. निर्जीव चुप्पी. मुझे उस हवेली में एक बड़ी अजीब सी अनुभूति हुई. जब मैं खिड़की से बाहर देखता तो लगता कि ये ऊंची नीची घाटियों वाला चुप सा स्थान है लेकिन जैसे ही मैं खिड़की बंद करता, एक भरा पूरा निर्जन रेगिस्तान दिखाई देने लगता.

साया अक्सर तनहा क्यों होता हैं? ये मुझे अब तक समझ नहीं आया.
उस हवेली में भी कोई था. ऐसा कोई जिसे कई सालों बाद वहाँ आना है. किसलिए? ये मालूम नहीं. मैं एक अफ़साना बुनने लगा. विस्मृत हो चुके दिनों का अफ़साना. इसकी सही शुरुआत के लिए मैं अपने होस्टल के कमरा नम्बर तीन सौ सात में चला आया. उसकी बालकनी में सिगरेट के टोटे पड़े थे. मुझे धुंए की तलब ने घेर लिया. मैं तीसरे माले से नीचे की ओर जाती हुई सीढियों की तरफ बेतहाशा भागने लगा. उस कमरे में आज भी जरुर किसी नौजवान की गंध बसी होगी लेकिन मैं अपने अतीत के दृश्यों को देख कर घबरा गया था. मुझे लगा कि मैं कितना बीत चुका हूँ.

उसकी आवाज़ सबसे अधिक रोमांस से भरी तब लगती जब वो बागीचे में घूमते हुए बात करती. मुझे ओल्ड केम्पस के सामने वाली रुई धुनने की दुकान में उड़ते हुए फाहे याद आने लगते. मैं सोचने लगता कि उसकी सांसें नर्म नाजुक फाहों की तरह आस पास उड़ रही है और वह उनको करीने से रखने के जतन किये जा रही है. सुबह और शाम बागीचे की हवा मेरे साथ चलती है. रात को आकाश में तारों की वो ज्यामितीय संरचना फ़िर अपने पास बुला लेती है. जिसमें एक तने हुए धनुष बाण का आभास होता है. अचानक आवाज़ फ़िर से आई, शायद यही कहा था. मैं मर गयी हूँ...

कई बरस हुए उसका फोन नहीं आया मगर अब उसे कभी ऐसा न कह सकूँगा कि मैं सिलीगुड़ी नहीं गया.

Popular posts from this blog

स्वर्ग से निष्कासित

शैतान प्रतिनायक है, एंटी हीरो।  सनातनी कथाओं से लेकर पश्चिमी की धार्मिक कथाओं और कालांतर में श्रेष्ठ साहित्य कही जाने वाली रचनाओं में अमर है। उसकी अमरता सामाजिक निषेधों की असफलता के कारण है।  व्यक्ति के जीवन को उसकी इच्छाओं का दमन करके एक सांचे में फिट करने का काम अप्राकृतिक है। मन और उसकी चाहना प्राकृतिक है। इस पर पहरा बिठाने के सामाजिक आदेश कृत्रिम हैं। जो कुछ भी प्रकृति के विरुद्ध है, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है।  यही शैतान का प्राणतत्व है।  जॉन मिल्टन के पैराडाइज़ लॉस्ट और ज्योफ्री चौसर की द कैंटरबरी टेल्स से लेकर उन सभी कथाओं में शैतान है, जो स्वर्ग और नरक की अवधारणा को कहते हैं।  शैतान अच्छा नहीं था इसलिए उसे स्वर्ग से पृथ्वी की ओर धकेल दिया गया। इस से इतना तय हुआ कि पृथ्वी स्वर्ग से निम्न स्थान था। वह पृथ्वी जिसके लोगों ने स्वर्ग की कल्पना की थी। स्वर्ग जिसने तय किया कि पृथ्वी शैतानों के रहने के लिए है। अन्यथा शैतान को किसी और ग्रह की ओर धकेल दिया जाता। या फिर स्वर्ग के अधिकारी पृथ्वी वासियों को दंडित करना चाहते थे कि आखिर उन्होंने स्वर्ग की कल्पना ही क्य...

टूटी हुई बिखरी हुई

हाउ फार इज फार और ब्रोकन एंड स्पिल्ड आउट दोनों प्राचीन कहन हैं। पहली दार्शनिकों और तर्क करने वालों को जितनी प्रिय है, उतनी ही कवियों और कथाकारों को भाती रही है। दूसरी कहन नष्ट हो चुकने के बाद बचे रहे भाव या अनुभूति को कहती है।  टूटी हुई बिखरी हुई शमशेर बहादुर सिंह जी की प्रसिद्ध कविता है। शमशेर बहादुर सिंह उर्दू और फारसी के विद्यार्थी थे आगे चलकर उन्होंने हिंदी पढ़ी थी। प्रगतिशील कविता के स्तंभ माने जाते हैं। उनकी छंदमुक्त कविता में मारक बिंब उपस्थित रहते हैं। प्रेम की कविता द्वारा अभिव्यक्ति में उनका सानी कोई नहीं है। कि वे अपनी विशिष्ट, सूक्ष्म रचनाधर्मिता से कम शब्दों में समूची बात समेट देते हैं।  इसी शीर्षक से इरफ़ान जी का ब्लॉग भी है। पता नहीं शमशेर उनको प्रिय रहे हैं या उन्होंने किसी और कारण से अपने ब्लॉग का शीर्षक ये चुना है।  पहले मानव कौल की किताब आई बहुत दूर कितना दूर होता है। अब उनकी नई किताब आ गई है, टूटी हुई बिखरी हुई। ये एक उपन्यास है। वैसे मानव कौल के एक उपन्यास का शीर्षक तितली है। जयशंकर प्रसाद जी के दूसरे उपन्यास का शीर्षक भी तितली था। ब्रोकन ...

लड़की, जिसकी मैंने हत्या की

उसका नाम चेन्नमा था. उसके माता पिता ने उसे बसवी बना कर छोड़ दिया था. बसवी माने भगवान के नाम पर पुरुषों की सेवा के लिए जीवन का समर्पण. चेनम्मा के माता पिता जमींदार ब्राह्मण थे. सात-आठ साल पहले वह बीमार हो गयी तो उन्होंने अपने कुल देवता से आग्रह किया था कि वे इस अबोध बालिका को भला चंगा कर दें तो वे उसे बसवी बना देंगे. ऐसा ही हुआ. फिर उस कुलीन ब्राह्मण के घर जब कोई मेहमान आता तो उसकी सेवा करना बसवी का सौभाग्य होता. इससे ईश्वर प्रसन्न हो जाते थे. नागवल्ली गाँव के ब्राह्मण करियप्पा के घर जब मैं पहुंचा तब मैंने उसे पहली बार देखा था. उस लड़की के बारे में बहुत संक्षेप में बताता हूँ कि उसका रंग गेंहुआ था. मुख देखने में सुंदर. भरी जवानी में गदराया हुआ शरीर. जब भी मैं देखता उसके होठों पर एक स्वाभाविक मुस्कान पाता. आँखों में बचपन की अल्हड़ता की चमक बाकी थी. दिन भर घूम फिर लेने के बाद रात के भोजन के पश्चात वह कमरे में आई और उसने मद्धम रौशनी वाली लालटेन की लौ को और कम कर दिया. वह बिस्तर पर मेरे पास आकार बैठ गयी. मैंने थूक निगलते हुए कहा ये गलत है. वह निर्दोष और नजदीक चली आई. फिर उसी न...