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Showing posts from February, 2012

तामीर में शामिल एकाकीपन...

बावरी हवा ने विदा होते मौसम के पदचिन्ह पौंछ डाले थे और आने वाले मौसम का इंतज़ार करने के सिवा कोई रास्ता न था. ऐसी ही आज की शाम थी. मेरे कंधों पर एक नीले रंग का जेकेट रखा है ठीक वैसे कि तुझे भूल जाएँ तो बेहतर या याद आती रहे तो अच्छा... जाने दो, बेवजह की बात सुनो. अक्सर मेरे हाथ लगती थी एक तस्वीर तनहा, गुमसुम और बेनियाज़. कि अद्भुत रचयिता ने लड़कियों की तामीर में शामिल रखा, एकाकीपन. लड़के मगर बुनते रहे अपना एकांत, शराब के दो प्यालों से. * * *

उदासी, बहुत सारी बेसबब उदासी...

कौन पुकारेगा और किसको पुकारेगा... कोई नहीं पुकारेगा, किसी को नहीं पुकारेगा, फिर भी दया करो मुझ पर.. कोई कविता कोई कहानी नहीं सूझती बस तेरी आहट की लरज़िश मेरी छत पर उतर रही है. ईंटों के घर की कच्ची छत पर बिछे हुए इस सन्नाटे में यादों का चूरा उड़ता दिखता है. इस चूरे में एक उजला उजला दिन निकला है दिन की तपती पीठ पे इक सायकिल फिसली जाती है सायकिल पर रखे बस्ते में इक गीला दरिया बैठा है इस दरिया में यादों की रंगीन मछलियाँ गोते दर गोता खाती कोई लाकेट ढूंढ रही है, जो तूने आँखों से चूमा था... इस मंज़र से घबरा कर दिल और भी डूबा, साँस गई आखिर उकता कर मैंने विस्की जिन जो भी रखी थी, सब पी डाली है फिर भी बाहर सन्नाटा है, फिर भी भीतर सब खाली खाली है. कोई कविता कोई कहानी नहीं सूझती, बस तेरी आहट की लरज़िश...

ओ लड़के...

सब अजनबी रास्ते, सब अनजाने लोग. अपने ही शहर में चलते फिरते होता है महसूस कि किसी सफ़र पर निकल आया हूँ. तुम नहीं रहती मेरे शहर में, मैंने तुम्हें देखा भी नहीं... मगर फिर भी तुम्हारे सफ़र पर जाते ही मैं अचानक कई बार सड़कों को दूर तक गुम होते हुए, किनारे खड़े दरख्तों पर बैठे पंछियों को और सरकारी इमारतों के आहातों में हरकारों को देखता हूँ, अचरज भरी आँख से. मैं खो जाता हूँ किसी अनजाने शहर में... तुम न जाने किस गली से गुज़रना पसंद करो, इसलिए बसते जाते हैं शहर दूर दूर तक. * * * बेतुके ख़्वाबों के सिलसिले में एक टुकड़े से बुनी थी शक्ल, तुम्हारे घर की और फिर वह खो गया, उसी ख़्वाब की राह पर. मगर ये झूठ है कि मैंने देखा नहीं है तुम्हारा घर, तुम आये नहीं मेरे यहाँ. * * * [Image Courtesy : Michael Naples ]

गिर गया, चाँद सा कंघा मूमल के केश से

कई सौ सालों पहले मूमल ने रेगिस्तान को देख कर उदास अपनी ओढ़नी में भर लिए बहुत सारे रंग. रेत में उग आई सोनल घास, जहां गिरा था, चाँद सा कंघा मूमल के केश से. महेंदर चढ़ा रहता था नौजवान ऊंट की पीठ पर चांदनी रातों में, रेत के धोरों पर पीता रहा, दीवड़ी भर मूमल का प्रेम उन धोरों की छाती में बहती है, विलोप हुई नदी काक. एक ढाढी बैठा रहता, काहू गाँव की एक जाळ की छाँव में आधी आँखें मीच कर जताता था, संशय ज़िन्दगी पर मगर उसे प्रेम पर था यकीन कहता, नैणा मुजरो मानजो, पिया नहीं मिलण रो जोग. [ ओ पिया हमारे मिलने का संयोग नहीं है, आँखों से अभिवादन स्वीकार लो ] चौमासे से पहले फुरसत की दोपहर में  एक कारीगर ने लिखा बावड़ी की पाल पर सब उड़ जासी जगत सूं,  रेसी बाकी प्रीत. [ इस दुनिया से सब कुछ खो जायेगा, प्रेम बचा रहेगा ] कुछ साल पहले एक बिरतानी आदमी ने कहा कि यहाँ लिखा है मैं रेगिस्तान हूँ, मुझे लूट लिया जाये, तेल के लिए. उसने खोद दिया मूमल का दिल, नोच ली सोनल घास... एक उदास मांगणियार ने गाना छोड़ दिया लोक गीत, माणीगर रेवो अजूणी रात... एक था, उथला उथला दिखने वाला मीठा...