कई सौ सालों पहले
मूमल ने रेगिस्तान को देख कर उदास
अपनी ओढ़नी में भर लिए बहुत सारे रंग.
रेत में उग आई सोनल घास,
जहां गिरा था, चाँद सा कंघा मूमल के केश से.
महेंदर चढ़ा रहता था नौजवान ऊंट की पीठ पर
चांदनी रातों में, रेत के धोरों पर पीता रहा,
दीवड़ी भर मूमल का प्रेम
उन धोरों की छाती में बहती है, विलोप हुई नदी काक.
एक ढाढी बैठा रहता, काहू गाँव की एक जाळ की छाँव में
आधी आँखें मीच कर जताता था, संशय ज़िन्दगी पर मगर उसे प्रेम पर था यकीन
कहता, नैणा मुजरो मानजो, पिया नहीं मिलण रो जोग.
[ओ पिया हमारे मिलने का संयोग नहीं है, आँखों से अभिवादन स्वीकार लो]
चौमासे से पहले फुरसत की दोपहर में
एक कारीगर ने लिखा बावड़ी की पाल पर
सब उड़ जासी जगत सूं, रेसी बाकी प्रीत.
[इस दुनिया से सब कुछ खो जायेगा, प्रेम बचा रहेगा]
कुछ साल पहले
एक बिरतानी आदमी ने कहा कि यहाँ लिखा है
मैं रेगिस्तान हूँ, मुझे लूट लिया जाये, तेल के लिए.
उसने खोद दिया मूमल का दिल, नोच ली सोनल घास...
एक उदास मांगणियार ने गाना छोड़ दिया लोक गीत,
माणीगर रेवो अजूणी रात...
एक था, उथला उथला दिखने वाला मीठा गहरा रेगिस्तान...
* * *
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इस बात को एक हज़ार साल हो गए होंगे. अब यहाँ तेल के कुँओं पर आग उगलती चिमनियाँ है. विस्थापित लोग बस्तों में डॉलर लिए घूम रहे हैं. प्रेम के लिए कोई जगह नहीं है.
जन्मदिन शुभ हो मनोज. ये पोस्ट तुम्हारे लिए कि हम इसी रेगिस्तान में नंगे पांव दौड़ते हुए बड़े हुए हैं. हमें इससे प्रेम है. एक दिन आंधियां बुहार देगी हमारे पांवों के निशान मगर तब तक दिल में बसा रहे ये प्यारा रेगिस्तान...