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Showing posts from August, 2012

तबेले का धुंधलका

वो पाकिस्तान से चला आया. अपनी बीवी और छोटी बहन के साथ. कई दिनों तक एक पेड़ की छाँव में पड़ा रहा. उससे कंजर अच्छे थे. जिनके पास तम्बू वाले घर थे. उससे भिखारी अच्छे थे. जो किसी प्रत्याशा के बिना मंदिरों के आगे पड़े रहते थे. वह एक ठेला लगाना चाहता था. उसे यकीन था कि एक ठेले के सहारे वह तीन लोगों का पेट भर लेगा. उसके पास सर छुपाने को जगह न थी. देश आज़ाद हुआ था और सेना के ट्रक शांति बहाली के लिए गश्त कर रहे थे.  वह असंख्य दुखों के बीच भी अपनी जिजीविषा का पोषण करता जा रहा था. जीवन के कष्टप्रद थपेड़े, उसका मनुष्यों के आचरण से परिचय करवा रहे थे. वह सिंध से आया हुआ हिन्दू था. इसलिए वह सिन्धी हिन्दू था. इसलिए वह एक सिन्धी था. अपने वतन से बिछड़ कर नए शहर में अपनी बीवी और छोटी बहन के साथ एक घरोंदे की तलाश में, एक शरणार्थी सिंधी।  वर्ष 1948 में मनोरंजन पत्रिका में छपी रांगेय राघव की ये कहानी "तबेले का धुंधलका" विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ है. इस कहानी में रांगेय राघव ख़ुद कथा के मुख्य पात्र हैं. यानी प्रथम पुरुष ही अपनी कथा कह रहा है. इस तरह की बुनावट कि आपकी सा...

कुछ बात और है कि...

एक बरसा हुआ बादल था, जैसे दुख से भरी युवती का सफ़ेद पीला चेहरा। एक मिट्टी की खुशबू थी कीचड़ से भरी हुई। एक आदमी की याद थी जो मर कर भी नहीं मरता। एक तुम थे जिसने कभी दिल की बात कही नहीं और एक मैं था कि जाने क्या क्या बकता गया। साहब क्या खोज रहे हो? ईमान का एक टुकड़ा बचा था खो गया है आचरण के गंद फंद अब कहां मिलेगा. **** मैडम जी, ये कैसी उदासी? चप्पल की एक जोड़ी अम्मा ने दी थी जाने कहाँ गयी है घर परिवार के झूठ झमेले में अब कहां मिलेगी. * * * बेटा जी, किसलिए यूं मुंह फुलाए मेरे वो, सोशल साईट से विदा हो गए सेल नंबर भी बंद पड़े हैं मीका जाने कब गायेगा, तूं छुपी है कहां मैं तड़पता यहाँ * * * ओ टकले कारीगर, ये कैसी चिंता दो रुपये का छोटा रिचार्ज करा कर बच्चे घर से पूछा करते हैं बापू, सौ रुपये का खाना लेकर कब आओगे. * * * डॉक्टर जी ये हैरत है कैसी पैंसठ साल की ये बुढ़िया दिन भर में दस रुपये का कपड़ा सी लेती है सोच रहा हूँ मोतियाबंद के जालों में से दिखता कैसे है? * * * गाँधी टोपी वाले ट्रक डिलेवर रूठे क्यों हों तुम लोगों ने देश की गाड़ी कंडम कर दी गियर का भी ग्रीस खा गए. चरखे सारे टूट गए हैं,...

मेरी मुट्ठी में सूखे हुए फूल हैं

बदहवास दौड़ती हुई ज़िन्दगी को कभी कोई अचानक रोक ले तो कितना अच्छा हो. हासिल के लिए भागते हुए, नाकामी का मातम झोली में भरते जाना और फिर ज़रा रुके नहीं कि दौड़ पड़ना. याद के वे खाने सब खाली. जिनमें रखी हों कुछ ऐसी चीज़ें कि आखिरी बार सुकून से एक ज़िन्दगी भर साँस कब ली थी, पानी को पीने से पहले ज़रा रुक कर कब देखा था कि मौसम कैसा है. वो कौनसा गीत था जो बजता रहा दिल में हज़ार धड़कनों तक, आखिरी बार कब उठे थे. किसी प्रियजन का हाथ थाम कर... ऐसे सब खाने खाली.  हमारे भीतर किसी ने चुपके से हड़बड़ी का सोफ्टवेयर रख दिया है. विलासिता की चीज़ों के विज्ञापन उसे अपडेट करते जाते हैं. इस दौर का होने के लिए आदमी ख़ुद को वस्तु में ढालने के काम में मुसलसल लगा हुआ. वस्तु, जिसकी कीमत हो सके. वस्तु, जिसे सब चाहें. वस्तु, जिसके सज़दे में दुनिया पड़ी हो. ऐसा ही हो जाने के लिए भागम भाग. रेल का फाटक दिन में कई दफ़ा रोक लेता है. हमारे शिड्यूल में रेल का फाटक नहीं होता इसलिए परेशानी, झल्लाहट और बेअदबी भरे वाक्य हमारे भीतर से बाहर की ओर आने लगते हैं. अपना स्कूटर एक तरफ रोक कर फाटक के नीचे से आने जाने...