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तबेले का धुंधलका



वो पाकिस्तान से चला आया. अपनी बीवी और छोटी बहन के साथ. कई दिनों तक एक पेड़ की छाँव में पड़ा रहा. उससे कंजर अच्छे थे. जिनके पास तम्बू वाले घर थे. उससे भिखारी अच्छे थे. जो किसी प्रत्याशा के बिना मंदिरों के आगे पड़े रहते थे. वह एक ठेला लगाना चाहता था. उसे यकीन था कि एक ठेले के सहारे वह तीन लोगों का पेट भर लेगा. उसके पास सर छुपाने को जगह न थी. देश आज़ाद हुआ था और सेना के ट्रक शांति बहाली के लिए गश्त कर रहे थे. 

वह असंख्य दुखों के बीच भी अपनी जिजीविषा का पोषण करता जा रहा था. जीवन के कष्टप्रद थपेड़े, उसका मनुष्यों के आचरण से परिचय करवा रहे थे. वह सिंध से आया हुआ हिन्दू था. इसलिए वह सिन्धी हिन्दू था. इसलिए वह एक सिन्धी था. अपने वतन से बिछड़ कर नए शहर में अपनी बीवी और छोटी बहन के साथ एक घरोंदे की तलाश में, एक शरणार्थी सिंधी। 

वर्ष 1948 में मनोरंजन पत्रिका में छपी रांगेय राघव की ये कहानी "तबेले का धुंधलका" विस्थापन की पीड़ा का दस्तावेज़ है. इस कहानी में रांगेय राघव ख़ुद कथा के मुख्य पात्र हैं. यानी प्रथम पुरुष ही अपनी कथा कह रहा है. इस तरह की बुनावट कि आपकी साँस निकल जाये. इतनी सरल कि आपके कलेजे के पार उतरता हुआ दो धार वाला चाकू. सोचे गये आगामी अनगिनत भयों की कहानी.

एक दिन पत्नी कहती है। आज बीस एक हिन्दू तुम्हारी बहन को उठा कर ले जाते. मैंने बड़ी मुश्किल से बचाया है. इस सलवार के कारण वे इसे मुस्लिम समझ बैठे थे। कहानी में आखिर एक सेठ का गोदाम, आशा जगाता है. उसके पिछवाड़े में रहने के लिए एक छोटा सा तबेला है. सेठ का आदमी कहता है वह उनको इस जगह पर टिका सकता है. वह किसी काम की तलाश में बाहर जाता और थोड़ी देर बाद अचानक कर्फ़्यू की घोषणा हो जाती है. 

कहीं गोली चलने की आवाज़ सुनाई देती है. वह दौड़ता हुआ अपने तबेले की ओर भागता है. दरवाज़े पर अचानक किसी से टकरा जाता है. दोनों व्यक्ति गिर जाते हैं. ज़मीन से उठते हुये सामने वाला पूछता है, चोट तो नहीं लगी. वह अपनी पत्नी से कहता है, दरवाज़ा बंद कर लो. पुलिस आ रही है. उसकी पत्नी कहती है. सेठ का आदमी आया हुआ है. उधर अँधेरे में. 

वह बैठ जाता है, नहीं वह वहीं गिर पड़ता है. 

पत्नी उदासी से कहती है. 
मैं जानती हूँ तुम इसे सह नहीं सकते. पर... पर वह मुझे पसंद जो नहीं करता था. 
***

पाकिस्तान से आये सिन्धी को तबेले में रुकने देने के एवज में सेठ के आदमी द्वारा उसकी बहन की अस्मत का हर लेना. दुखियारी पत्नी का कहना कि वह अगर उसके साथ राज़ी हो जाता तो वह कभी बहन के साथ न होने देती. फिर ये कहना कि रहने को ठिकाना मिल गया है. परदेस में कैसी इज्ज़त ? यह मनुष्यता नहीं है. मनुष्य का रोज़गार, घर और इज्ज़त के साथ जीवन यापन कर पाना ही सभ्यता में जीने की निशानी होती है. 

कहानी मेरी आत्मा को ठोकर मारती है. मेरे चेहरे पर थूक देती है. मेरे हिरदे को बींध देती है. मैं सुबह के अख़बार के पहले पन्ने पर एक तस्वीर देख रहा हूँ. बेंगलुरु से असम लौटते हुए असंख्य नौजवानों की, या शायद देख रहा हूँ कि हज़ारों सिन्धी पाकिस्तान से चले आ रहे हैं. या मैं पांच हज़ार साल पुरानी सभ्यता वाले इंसान के वतर्मान को देख रहा हूँ. 
***
[Image courtesy : deccanchronicle.com]

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