बदहवास दौड़ती हुई ज़िन्दगी को कभी कोई अचानक रोक ले तो कितना अच्छा हो. हासिल के लिए भागते हुए, नाकामी का मातम झोली में भरते जाना और फिर ज़रा रुके नहीं कि दौड़ पड़ना. याद के वे खाने सब खाली. जिनमें रखी हों कुछ ऐसी चीज़ें कि आखिरी बार सुकून से एक ज़िन्दगी भर साँस कब ली थी, पानी को पीने से पहले ज़रा रुक कर कब देखा था कि मौसम कैसा है. वो कौनसा गीत था जो बजता रहा दिल में हज़ार धड़कनों तक, आखिरी बार कब उठे थे. किसी प्रियजन का हाथ थाम कर... ऐसे सब खाने खाली.
हमारे भीतर किसी ने चुपके से हड़बड़ी का सोफ्टवेयर रख दिया है. विलासिता की चीज़ों के विज्ञापन उसे अपडेट करते जाते हैं. इस दौर का होने के लिए आदमी ख़ुद को वस्तु में ढालने के काम में मुसलसल लगा हुआ. वस्तु, जिसकी कीमत हो सके. वस्तु, जिसे सब चाहें. वस्तु, जिसके सज़दे में दुनिया पड़ी हो. ऐसा ही हो जाने के लिए भागम भाग.
रेल का फाटक दिन में कई दफ़ा रोक लेता है. हमारे शिड्यूल में रेल का फाटक नहीं होता इसलिए परेशानी, झल्लाहट और बेअदबी भरे वाक्य हमारे भीतर से बाहर की ओर आने लगते हैं. अपना स्कूटर एक तरफ रोक कर फाटक के नीचे से आने जाने वालों के लिए मैं उचित रास्ता छोड़ कर खड़ा हो जाता हूँ. एक तीन पहिये वाले सायकिल रिक्शा पर प्लास्टिक का बहुत बड़ा थैला रखा है. थैले ने पूरा रिक्शा ढक रखा है. इसमें पोलिबैग्स और कागज का कचरा भरा हुआ है.
मैं अपने सेल फोन के व्हाट्स एप्प पर देखता हूँ किसका स्टेटस अवेलेबल है? एक नन्ही लड़की मेरी पेंट को पकड़ कर खींचती है. "बाबूजी..." वह माहिर सियासतदाँ लोगों की तरह कोई ऐसा वाक्य बोलती है, जिसको साफ़ समझा न जा सके मगर ये मालूम हो जाये कि जो भी देना चाहो, दे दो. काले और लाल रंग के चैक से बनी उसकी फ्रॉक बेहद गन्दी. चीकट और मिट्टी से भरी हुई. बांया कॉलर भीगा हुआ. मैं सोचता हूँ कि ये इसके मुंह में रहता होगा.
मुझे मुस्कुराता देख कर लड़की फिर से कहती है. "बाबूजी..." मैं उसके सर पर हाथ फेरता हुआ मना कर देता हूँ. उसके बाल किसी उलझी हुई कंटीली झाड़ी जैसे बेहद रूखे और बेजान थे. मैं चाहने लगता हूँ कि बादल बन कर बरस जाऊं. इस लड़की के सर से सारी मिट्टी को धो डालूँ. अचानक से रिक्शे के पास से उसके पांच भाई बहन एक साथ नमूदार होते हैं. एक एक साल के फ़ासले से दुनिया में आये हुए से... तो मन बदल जाता है. अब मैं बादल होने की जगह नसबंदी करने वाला डॉक्टर हो जाना चाहता हूँ. मेरा मन एक पत्रकार के लिए श्रद्धा से भर जाता है, जिन्होंने उम्र भर अख़बार के लिए नसबंदी के लक्ष्यों की रिपोर्टिंग की थी.
एक लड़की आवाज़ देती है. दूसरी उसके पीछे. रेलवे के गेटमैन के पास पानी की मटकी रखी हुई है. सब उससे पानी पीने लगते हैं. गेटमैन उनको भगा देता है. भागती हुई लड़की, पचास साल के उस आदमी को कहती है, जा रे लंगूर ! लंगूर, देखने लगता है कि रेलगाड़ी आ रही है या नहीं. मैं देखता हूँ कि सेल फोन के स्क्रीन पर क्या लिखा है. मेरे आगे खड़ा हुआ एक दक्षिण भारतीय आदमी, एक स्कूटर वाले को देखते हुए कहता है. आप उस तरफ से कोशिश करिए, उधर शीशा नहीं अटकेगा.
गोल मोल सी नन्ही बच्ची जो उसकी गोदी में थी. वह मेरी ओर देखती है. रिक्शे वाली लड़कियों का दल, मांगना भूल कर उस नन्हीं बच्ची के हाथ और पैर छूने लगता हैं. वे बहुत दुलार से उसकी अँगुलियों को आहिस्ता से सहलाती है. पीछे से एक मोटरसायकिल वाला कहता है. ये एलपी यहाँ क्यों फंसाई है रे छोरियों. एलपी माने पच्चीस फीट लम्बा ट्रक. लड़कियां उसे नज़रंदाज़ कर देती है. वह फिर कहता है. कोई आदमी हो तो कुछ कहें भी, इन लड़कियों के मुंह कौन लगे?
एक लड़की कहती है. जा आदमी के मुंह लग.
मैं उस लड़की को शरारत भरी निग़ाह से देखता हूँ. उसे अहसास करता हूँ कि तुमने अभी अभी मोटरसायकिल वाले को जो गाली दी, उसे मैंने सुन लिया है. लड़की अपना मुंह बड़ी बहन के पीछे छिपा लेती है. बड़ी बहन मुस्कुरा कर मुंह फेर लेती है. मेरे सामने मैले कपड़ों में मुस्कुराता हुआ एक संसार पसर जाता है. बशीर बद्र साहब की याद आती है. मेरी मुट्ठी में सूखे हुए फूल हैं, खुशबू को उड़ा कर हवा ले गई.
रेलवे फाटक के खुलने का सब इंतज़ार करते हैं. एक दूसरे के चेहरे देखते हुए पहचान कायम करने लगते हैं. कोई भूली हुई बात सोचते हैं. लम्बी साँस लेते हैं. अपने वाहन से उतर कर पैरों पर खड़े होते हैं. सेल फोन पर किसी प्रियजन को याद करते हैं. कोई भूला हुआ हिसाब याद दिलाते हैं. ऐसे ही जब कोई रोक लेता है, बदहवास दौड़ती हुई ज़िन्दगी को तो हम उसके सबसे करीब खड़े होते हैं.
[सांध्य दैनिक राजस्थान खोजख़बर में प्रकाशित कॉलम]
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[Image courtesy : slodive ]